गंगा सफाई को लेकर एनजीटी अर्थात राष्ट्रीय हरित अधिकरण का एक बेहद ही खास फैसला यह आया है कि गंगा तट से 100 मीटर तक के क्षेत्र को 'नो डेवलपमेंट जोन' घोषित करते हुए 500 मीटर के दायरे में कचरा फेंकने पर 50 हजार रुपए जुर्माने का प्रावधान लागू कर दिया गया है।
स्मरण रखा जा सकता है कि गंगा नदी की साफ-सफाई को लेकर देश में पिछले कई बरसों से सशुल्क अभियान चल रहा है, लेकिन विस्मय होता है कि अभी तक कोई भी अनुकूल परिणाम देखने को नहीं मिले हैं। करोड़ों की धनराशि खर्च कर देने के बाद भी नतीजा जीरो बटा सन्नाटा ही उपलब्ध हुआ है। सरकारी खजाने से पिछले 32 बरस में तकरीबन 22 हजार करोड़ रुपया पानी में गंगा के नाम पर बहा दिया गया किंतु गंगा नदी की स्वच्छता लेशमात्र भी नहीं लौट सकी है। इतनी बड़ी धनराशि के खर्च की क्यों नहीं सीबीआई जांच होनी चाहिए?
सनातन संस्कृति की प्रतीक और 'मां' बताई जाने वाली नदी, गंगा कार्ययोजना की शुरुआत वर्ष 1985 में वाराणसी से राजीव गांधी ने 900 करोड़ रुपयों से की थी। वर्ष 2014 में राजग सरकार के अस्तित्व में आने के बाद से ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्राथमिकताओं में गंगा सर्वोपरि है। वैसे तो गंगा की साफ-सफाई के लिए वर्ष 1980 में ही योजनाएं बना ली गई थीं किंतु केंद्र और संबंधित राज्य सरकारों की दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में कुछ किया नहीं जा सका। वर्ष 1985 में गंगा सफाई के लिए शुरू की गई गंगा कार्ययोजना अब बतौर 'नमामि गंगे' केंद्र सरकार की प्रमुख प्राथमिकताओं का एक हिस्सा है।
प्रधानमंत्री बनते ही नरेन्द्र मोदी ने प्रदूषित गंगा की चिंता करते हुए 20 हजार करोड़ का जो बजट आबंटित किया, 5 बरस की अवधि के लिए उसका अनुमोदन मई 2015 में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भी कर दिया। अब यह एक अनुमोदित एकीकृत संरक्षण मिशन है। अन्यथा नहीं है कि 'नमामि गंगे' कार्यक्रम को 100 फीसदी केंद्र द्वारा वित्तपोषित कार्यक्रम बनाया गया है जिसमें 15 बरस के लिए संचालन और संरक्षण की सुविधा का प्रावधान भी रखा गया है।
केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती ने कहा है कि गंगा नदी के जल परीक्षण के लिए अब इंजीनियरिंग के छात्रों को भी जोड़ने का फैसला किया गया है जिसके तहत कम से कम दो-ढाई सौ इंजीनियरिंग छात्रों को गंगा नदी के जल परीक्षण कार्य हेतु जोड़ा जा रहा है। माना कि गंगा नदी के जल परीक्षण हेतु इंजीनियरिंग के छात्रों को जोड़ा जाना एक अच्छी पहल कही जा सकती है किंतु 2,500 किलोमीटर से अधिक लंबी दूरी तक बहने वाली गंगा के लिए क्या दो-ढाई सौ छात्रों का संख्या बल पर्याप्त कहा जा सकता है?
'नमामि गंगे' नामक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जिस अतिमहत्वाकांक्षी योजना के लिए वर्ष 2015 से 2020 के दौरान जो 20 हजार करोड़ खर्च करने का प्रावधान किया गया है, उस मद में से अभी मार्च 2017 तक सात-साढ़े सात हजार करोड़ रुपए ही खर्च हो पाए हैं। 32 बरस का अत्यधिक समय और कार्य प्रगति की धीमी गति के कारण गंगा सफाई अभियान का यह प्रकरण एक जनहित याचिका के जरिए सर्वोच्च न्यायालय से होता हुआ जब एनजीटी अर्थात राष्ट्रीय हरित अधिकरण पहुंचा तो एनजीटी ने इसका गंभीर संज्ञान लिया। शायद यहीं से हर-हर गंगे, नमामि गंगे और गंगा कानून की प्रासंगिकता का प्रश्न प्रारंभ होता है।
गंगा के 100 मीटर क्षेत्र को 'नो डेवलपमेंट जोन' घोषित करते हुए उसके 500 मीटर तक में कचरा फेंकने का जो निर्णय एनजीटी ने लिया है, उसका श्रेय पर्यावरण प्रेमी एमसी मेहता को ही दिया जाना चाहिए। एमसी मेहता ने वर्ष 1985 में एक जनहित याचिका दायर की थी, सुप्रीम कोर्ट ने उक्त याचिका वर्ष 2017 में एनजीटी को सौंप दी। एनजीटी ने तब से अब तक केंद्र सरकार, उत्तरप्रदेश सरकार, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और अन्य सभी पक्षों व पक्षकारों के सुनने के बाद ही 'नो डेवलपमेंट जोन' और जुर्माने वाला आदेश जारी किया है।
एनजीटी अध्यक्ष न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार के नेतृत्व वाली पीठ ने गंगा सफाई मुद्दे पर अपने फैसले में कहा है कि हरिद्वार से उन्नाव के बीच 500 किलोमीटर क्षेत्र, गंगा नदी तट से 100 मीटर तक का दायरा 'नो डेवलपमेंट जोन' माना जाएगा जिसके तहत इस जोन में किसी भी प्रकार का निर्माण अथवा विकास कार्य नहीं किया जा सकेगा। फैसले में यह भी कहा गया है कि इसके अलावा गंगा नदी में किसी भी प्रकार का कचरा फेंकने वाले को 50 हजार रुपया पर्यावरण हर्जाना देना होगा। एनजीटी ने कचरा निस्तारण संयंत्र का निर्माण और नालियों की साफ-सफाई सहित संबंधित सभी विभागों को अपनी-अपनी विभिन्न योजनाएं अगले 2 बरस में पूरा करने का आदेश दिया है।
13 जुलाई 2017 को पारित किए गए एनजीटी के आदेश में उत्तरप्रदेश सरकार को भी निर्देशित किया गया है कि वह 6 हफ्तों के भीतर सभी चर्मशोधक कारखाने उक्त प्रतिबंधित क्षेत्र से हटाकर कहीं और किसी सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरित करे ताकि इन कारखानों से निकलने वाला दूषित जल गंगा को गंदा नहीं कर पाए। अभी इन चर्मशोधक कारखानों से जो प्रदूषित अपशिष्ट निकलता है, उससे गंगा की गंदगी तेजी से बढ़ रही है। इस रोक से गंगा का प्रदूषण रुकेगा।
एनजीटी ने उत्तराखंड सरकार को भी निर्देशित करते हुए कहा है कि वह गंगा और उसकी छोटी सहायक नदियों के तटीय क्षेत्र में होने वाले धार्मिक कार्यक्रम प्रतिबंधित करे। इन धार्मिक कार्यक्रमों के लिए कोई सुविधाजनक किंतु सख्त नियमावली बनाई जा सकती है, जो गंगा को प्रदूषित होने से बचाने में कारगर साबित हो सकती है।
सभी संबद्ध संस्थाओं को यह आदेश भी दे ही दिया गया है कि वे अगले 4 माह में प्रदूषणरोधी संयंत्र लगाने का काम पूरा कर लें। इन सब कामों पर निगरानी और अपने निर्देशों पर अमल सुनिश्चित करने के लिए एनजीटी ने एक पर्यवेक्षक समिति का गठन भी कर दिया है। यह समिति एक नियमित अंतराल से समय-समय पर अपनी रिपोर्ट एनजीटी के समक्ष पेश करेगी। अपने 543 पन्नों वाले फैसले में एनजीटी ने गंगा नदी सफाई कार्य को गौमुख से हरिद्वार, हरिद्वार से उन्नाव, उन्नाव से उत्तरप्रदेश की सीमा, फिर उत्तरप्रदेश की सीमा से झारखंड की सीमा और झारखंड से बंगाल की खाड़ी तक विभिन्न खंडों में विभक्त कर दिया है ताकि 'नमामि गंगे' कार्यक्रम को तीव्र गति से पूरा किया जा सके।
याचिकाकर्ता वकील एमसी मेहता का कहना है कि हरिद्वार से उन्नाव के बीच स्थित 500 किलोमीटर क्षेत्र में गंगा सफाई पर सात-साढ़े सात हजार करोड़ रुपया अभी तक खर्च किया जा चुका है, लेकिन गंगा की दुर्दशा जस की तस ही बनी हुई है। इस खर्च की क्यों नहीं सीबीआई जांच होनी चाहिए?
देश के 11 राज्यों की तकरीबन 50 फीसदी आबादी अर्थात 50 करोड़ भारतीयों के लिए जीवनदायिनी और 10 हजार मेगावॉट बिजली उत्पादन क्षमता रखने वाली गंगा को अपने उद्गम स्थल गंगोत्री से निकलने के बाद स्वच्छ रखने की सबसे पहली चुनौती पवित्र धर्मनगरी हरिद्वार से ही मिलती है। तमाम दावों और आदेशों के बावजूद गंगा यहां सर्वाधिक मैली है। हरिद्वार में 120 एमएलडी प्रतिदिन सीवर निकलता है जिसमें से 60 एमएलडी अर्थात लगभग आधा सीवर बिना शोधन सीधे गंगा में गिरा दिया जाता है। यहां स्थापित सीवर शोधन यंत्र की क्षमता सिर्फ 65 एमएलडी है। नदी किनारों पर कूड़े-कचरे के ढेर लगे हैं। यहां तक कि हर की पौड़ी सहित तमाम गंगा घाटों से बहकर गंदगी सीधे-सीधे गंगा में जा मिलती है। अन्यथा नहीं है कि देश की 26 फीसदी से अधिक कृषि भूमि गंगा घाटी में आती है जबकि 5 लाख हैक्टेयर कृषि भूमि सिंचाई के लिए निचली गंगा नहर पर आश्रित है।
उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कहते हैं कि अगर गंगा को नहीं बचाया गया तो उत्तर भारत रेगिस्तान बन जाएगा। उनकी चिंता जरा भी साधारण और अस्वाभाविक नहीं है। केंद्रीय गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती ने भी स्वीकार किया है कि दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित 10 नदियों में हमारी पवित्र गंगा नदी भी शामिल है। हालांकि पहली बार गंगा नदी के संपूर्ण क्षेत्र में गंगा के डाल्फिन सहित जलीय जीव का व्यापक आधारभूत सर्वेक्षण कर लिया गया है।
यहां तक कि देश के 'राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग शोध संस्थान' (नीरी) ने भी गंगा नदी जल के औषधीय गुणों से जुड़ीं विभिन्न विशेषताओं का अपना अध्ययन कार्य भी पूरा कर लिया है। 'नीरी' की रिपोर्ट में कहा गया है कि गंगा नदी जल में पाया जाने वाला 'ब्रह्म द्रव्य' अर्थात औषधीय गुण कोई पौराणिक मान्यता मात्र का विषय नहीं है, बल्कि इसका वैज्ञानिक आधार भी है। इसके लिए 3 मौसमों के अध्ययन की जरूरत थी। उक्त मौसमों के अध्ययन उपरांत ही 'नीरी' ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी है।
अप्रासंगिक नहीं है कि राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर देश के समस्त जल संसाधनों को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करते हुए एक व्यापक जल नीति बनाने की मांग अरसे से उठती रही है। अब ज्ञात हुआ है कि गंगा संरक्षण को गति देने के लिए केंद्र सरकार गंगोत्री से गंगासागर तक एक 'गंगा कानून' लाने का विचार कर रही है।
न्यायमूर्ति गिरधर मालवीय की अध्यक्षता वाली एक 4 सदस्यीय समिति ने इस कानून का मसौदा तैयार कर लिया है जिसे जल्द ही संसद में पेश कर दिया जाएगा। इस कानून के तहत 'गंगा पुलिस' तैनात करने की भी योजना है। 'गंगा रक्षा' की देखभाल एक प्राधिकरण करेगा, जो संपूर्णत: केंद्र सरकार के अधीन कुछ इस तरह से रहेगा कि कोई भी राज्य सरकार इसमें अपनी मनमानी नहीं कर पाएगी।
कहा जा रहा है कि गंगा संरक्षण के नतीजे वर्ष 2018 से आना शुरू हो जाएंगे। पहले कहा जा रहा था कि वर्ष 2014 से 2016 तक गंगा साफ होने लगेगी। फिर वर्ष 2016 से 2018 तक का आश्वासन दिया गया। उसके बाद थक-हारकर वर्ष 2017 में यह तक कह दिया गया है कि अविरल गंगा के लिए 7 बरस अर्थात वर्ष 2022 तक का समय लगेगा और अब तो यह भी कह दिया गया है कि गंगा संरक्षण सफाई अभियान अकेले सरकार के भरोसे संभव नहीं है किंतु गंगा सफाई कोई असंभव काम नहीं है।
सौ-डेढ़ सौ बरस पहले ब्रिटेन की टेम्स या यूरोप की डैन्यूब नदी तो सड़ांध मारने लगी थी किंतु वहां की सरकारों ने सब कुछ बदल दिया। सरकारें चाहें तो बहुत कुछ बदला जा सकता है किंतु गंगा कदापि टेम्स नहीं है। गंगा का मामला करोड़ों भारतीयों के जीवन, रोजगार और आस्था से जुड़ा मामला है। केंद्रीय मंत्री उमा भारती के मुताबिक गंगा नदी में प्रतिदिन 20 लाख और प्रतिवर्ष तकरीबन 60 करोड़ लोग 'हर-हर' कहते हुए डुबकी लगाते हैं, जबकि टेम्स या डैन्यूब या राइन नदी में ऐसा कुछ भी नहीं होता है।
अब देखते हैं कि 'हर-हर गंगे' और 'नमामि गंगे' की राजनीतिक जुमलेबाजी से आगे बढ़ते हुए यह 'गंगा कानून' की परजीवी बाध्यता क्या जादू दिखाती है?