राहुल गांधी ने सरकार और संघ की दुखती रग पर हाथ रख दिया है!
गुरुवार को राहुल ने दो बातें कहीं। एक तरफ़ उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश का संविधान बदलना चाहता है। दूसरे, उन्होंने कहा कि संघ ने तिरंगे को तब तक सलामी नहीं दी, जब तक कि सत्ता नहीं मिल गई।
मुझे नहीं मालूम राहुल गांधी की स्पीचेस कौन लिखता है। इतना तो तय है कि ये बातें वे अपनी बुद्धि से नहीं कह सकते। लेकिन इन बातों के पीछे जो द्वैधा है, वह भाजपा नेतृत्व को विचलित कर देने की क्षमता रखती है।
इसको आप भारतीय राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्रवाद की दुविधा भी कह सकते हैं।
इसके संदर्भों को समझने के लिए थोड़ा इतिहास में जाना पड़ेगा।
एक "राष्ट्र-राज्य" के रूप में आधुनिक भारत की व्याख्या "सांस्कृतिक राष्ट्रवाद" के उन पूर्वग्रहों के साथ द्वैत में है, जिसके मूल में "हिंदुत्व" है, इस असहज कर देने वाले विचार से भाजपा और संघ जितना बचने का प्रयास करेंगे, उन पर प्रहार उतने ही प्रखर होते जाएंगे।
एक राजनीतिक इकाई के रूप में "भारतीय राष्ट्र" का कभी अस्तित्व नहीं था। वेदों में भले ही "राष्ट्र" का नामोल्लेख हो, "महाभारत" में भले ही भारतवर्ष हो, लोकश्रुतियों में भले ही "आर्यावर्त" रहा हो, यह भारत एक "राजनीतिक इकाई" के रूप में कभी था नहीं। सोलह "महाजनपद" थे, मौर्य, कुषाण, गुप्त "साम्राज्य" थे, यवनों की "सल्तनत" थी, फ़िरंगियों का "उपनिवेश" था, किंतु कहीं पर कोई "भारतीय राष्ट्र" नहीं था।
जो था, वह सांस्कृतिक सातत्य था, एक सूत्र में पिरोने वाली सांस्कृतिक अंतर्धारा थी, जिसको हम "हिंदुत्व" कहते हैं। पहले इसी को सनातन परंपरा कहा जाता था।
दुविधा की शुरुआत तब हुई, जब भारत में एक ऐसा "राष्ट्रीय आंदोलन" उपजा, जिसके मूल में अब "हिंदुत्व" नहीं था। जिसके मूल में "राजनीतिक सम्प्रभुता" की आकांक्षा थी। इसी को "भारतीय स्वतंत्रता संग्राम" कहा जाता है।
इसकी "टाइमलाइन" मान लीजिए, 1857 से 1947 तक।
1857 वह साल था, जब भारत में "साम्राज्यवाद" का अधिकृत रूप से अंत हुआ और "औपनिवेशिकता" की बुनियाद पुख़्ता हुई।
"ब्रिटिश राज" ने भारत के "राजनीतिक एकीकरण" का सूत्रपात किया
और यही दुविधा के मूल में है।
1857 में जिस "आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद" की परिकल्पना की गई, "भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस" के नेतृत्व में चलाए गए स्वाधीनता आंदोलन ने जिसकी जड़ों को और मज़बूत किया, जिसकी परिणति 1947 में एक "सम्प्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य" के रूप में "भारतीय राष्ट्र" की स्थापना के रूप में हुई, तीन साल बाद जिसका एक "संविधान" निर्धारित किया गया। वही दुविधा है! क्योंकि "हिंदू राष्ट्रवाद" उस स्वाधीनता संग्राम के लक्ष्यों से पूर्णरूपेण सहमत नहीं था।
1947 में मज़हबी आधार पर भारत के विभाजन से हिन्दू राष्ट्रवाद और उग्र हुआ और महात्मा गांधी की हत्या हो गई। 1990 के दशक में भारतीय जनता पार्टी के उद्भव ने उसे एक राष्ट्रवादी मुहावरा, जन स्वीकार्यता और राजनीतिक विस्तार प्रदान किया।
समस्या यह नहीं है कि "राष्ट्रवाद" और "हिंदुत्व" एक दूसरे के पर्याय हैं या नहीं। समस्या यह है कि "भारतीय राष्ट्रवाद" और "हिंदू राष्ट्रवाद" के बीच में कौन सी फांक है!