निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 25 जुलाई के 84वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 84 ) में खांडव वन में इंद्रप्रस्थ का निर्माण करके के बाद कुंती सहित सभी पांडव, द्रौपदी, धृष्टदुम्न, श्रीकृष्ण, बलराम और राजा द्रुपद इंद्रप्रस्थ नगर और उसके महल को देखकर अचंभित हो जाते हैं। सभी महल का निरीक्षण करते हैं।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
फिर युधिष्ठिर का राज्याभिषेक होता है। इंद्रप्रस्थ की सभा में उनका पहले भव्य स्वागत होता है। फिर श्रीकृष्ण उन्हें सिंघासन पर बैठाते हैं। फिर विधिवत रूप से उनका राज्याभिषेक होता है और नृत्य-गान का आयोजन होता है।
इसके बाद श्रीकृष्ण कहते हैं कि आज से आप इस इंद्रप्रस्थ राज्य के एकछत्र राजा हैं। इस सिंघासन और इस राज्य की मुद्रा पूरे देश में सर्वमान्य होगी, ऐसी मेरी शुभकामनाएं हैं महाराज युधिष्ठिर। राजतिलक के इस शुभ अवसर पर मैं द्वारिका राज्य की ओर से आपका अभिवादन करता हूं और ये नौलखा हार आपको भेंट करता हूं। इसे स्वीकार कीजिये महाराज।..इसके बाद सभी लोग उनका तिलक करके अभिवादन करते हैं।
इसके बाद पांचों पांडव अपने निजी कक्ष में वार्तालाप करते हैं। तब अर्जुन कहता है- वाह भाताश्री वाह। आज तो स्वयं द्वारिकाधीश ने आपका राज्याभिषेक किया है। इंद्रप्रस्थ के लिए इससे बढ़कर सम्मान की क्या बात हो सकती है। सभी वार्तालाप कर ही रहे होते हैं तभी वहां नारदजी पधार जाते हैं। सभी उनका स्वागत करते हैं। वे भी सभी को आशीर्वाद देकर कहते हैं कि मैं स्वर्गलोक में आपके पिताश्री पांडु से मिलकर ही सीधा यहां आ रहा हूं। आपके पिता अतिप्रसन्न है परंतु कुछ चिंतित अवश्य दिखाई दिए। जब मैंने उनसे चिंता का कारण पूछा तो कहने लगे कि मैं अपने जीवन काल में राजसूय यज्ञ नहीं कर सका। वह अधूरी इच्छा मुझे कचोटती रही। इसलिए मेरा मन अशांत रहता है। यदि मेरी इस इच्छा को मेरा कोई पुत्र पूरी कर दे तो उसके पुण्य का फल मुझे अब भी प्राप्त हो सकता है।
यह सुनकर युधिष्ठिर कहते हैं कि हे महात्मा, हे पिताश्री मैं देवर्षि को साक्षी मानकर आज ये शपथ लेता हूं कि मैं अपने स्वर्गवासी पिता की इच्छा को अवश्य पूर्ण करूंगा। एक ऐसा राजसूय यज्ञ करूंगा जिसे भविष्य की पीढ़ियां भी स्मरण करेंगी।...इसके बाद युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ श्रीकृष्ण को अपनी इस इच्छा और प्रण के बारे में बताकर कहते हैं कि अब हमारा पहला कर्तव्य यह है कि हम आर्यावर्त के समस्त राजाओं को इंद्रप्रस्थ राज्य के आधीन कर उनसे कर प्राप्त करें।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं निश्चय ही परंतु जो हमारे पहले से ही मित्र हैं उनसे कर नहीं सहयोग की मांग करना होगी महाराज। तब युधिष्ठिर कहते हैं कि ये उचित है परंतु जो हमारी अधीनता को स्वीकार नहीं करेंगे उनसे तो युद्ध करना ही पड़ेगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां महाराज इसलिए इंद्रप्रस्थ से जो ध्वज लेकर जाएगा उसके साथ पूरा सैन्यबल भी रहेगा। इस पर युधिष्ठिर कहते हैं कि चारों दिशाओं में जो वीर हमारा ध्वज लेकर जाएगा उसका चुनाव भी आप ही करें मथुसुदन। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि उसका चुनाव तो ये (पांडव) वीर स्वयं ही कर लेंगे महाराज।
इस पर युधिष्ठिर कहते हैं कि मैं अपने चारों भाइयों को सेनापति बनाता हूं। अब बोलो तुममें से कौन वीर किस दिशा में प्रस्थान कर रहा है? तब नकुल खड़ा होकर कहता है मैं अपने लिए दक्षिण दिशा का चुनाव कहता हूं। फिर सहदेव कहता है- और मैं पश्चिम दिशा के राजाओं को अधीन करने जाऊंगा। तब भीम कहता है पूर्व दिशा मेरी रही। अंत में अर्जुन कहता है उत्तर दिशा पर मेरा अधिकार होगा।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप सबने दिशाएं तो चुन ली परंतु किसी ने ये सोचा कि दो महान राज्य है जिनको अधीन करना परम दुष्कर कार्य है? एक है हस्तिनापुर और दूसरा है मगध। क्या ये दोनों महान शक्तियां सहज मैं ही आपकी अधीनता स्वीकार कर लेंगी?
तब भीम कहते हैं तो फिर मगथराज को मेरी गदा के लिए निश्चित कर दीजिये। इस पर अर्जुन कहता है और हस्तिनापुर को मेरे उत्तरदायित्व पर छोड़िये। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- ऐसा नहीं है ये दोनों महान कार्य हैं इसलिए जहां हमारा कार्य नीति से चल जाए वहां नीति से ही काम लेना होगा और जहां युद्ध अपरिहार्य हो वहां हमें पूरी शक्ति के साथ आक्रमण करना होगा। यही राजनीति है महाराज। तब युधिष्ठिर कहता है- आपके इस कथन से मैं सहमत हूं महाराज। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हस्तिनापुर तो आपके परिवार में ही गिना जाता है इसलिए उसे आपको पारिवारिक भावना की सहायता से ही जीतना होगा। यह सुनकर युधिष्ठिर कहते हैं कि अर्थात। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि अर्थात ये कि सर्वप्रथम आप पितामह भीष्म और महाराज धृतराष्ट्र के पास जाइये और उनसे राजसूय यज्ञ की आज्ञा लीजिये एवं आशीर्वाद मांगिये। अवश्य वो आपको आशीर्वाद देंगे। बस हस्तिनापुर हो गया ना आपके साथ।
यह सुनकर भीम कहता है और मगधराज जरासंध? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- वो युद्धप्रिय है और उसे मारना भी इतना सरल नहीं है भीम। उसने भगवान शिव से अनेक दिव्य शक्तियां ले रखी हैं और महाराज उसने अपनी भुजाओं के बल से आर्यावर्त के 86 राजाओं को बंदी बना रखा है और उन सबको एक कंदरे में कैदकर रखा और जब उनकी संख्या 100 हो जाएगी तब वह उन सबकी बली चढ़ा देगा। यह सुनकर भीम कहता है तो इसका अर्थ यह है कि हम अकेले जरासंध को ही परास्त कर लें तो उसके बंदी राजा स्वयं ही हमारे अधीन हो जाएंगे? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि निश्चिय ही परंतु इंद्रप्रस्थ के पास इतनी बड़ी सेना ही नहीं है कि मगध राज्य पर आक्रमण करके उसे हराया जा सके।
तब युधिष्ठिर पूछते हैं तो फिर इसका उपाय क्या है मधुसुदन? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि वो एक वीर है उसे द्वंद युद्ध के लिए ललकारा जाए तो वह कभी इनकार नहीं करेगा। इसलिए मल्ल युद्ध में ही उसे परास्त किया जा सकता है क्योंकि उसका शरीर दो टुकड़ों से जुड़कर बना है। मल्ल युद्ध में उसके शरीर के दो भाग करके अलग-अलग फेंकना होगा और मेरी दृष्टी में ये कार्य केवल भीम ही कर सकते हैं। यह सुनकर युधिष्ठिर कहते हैं- तो भीम को जाने की अनुमति है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं महाराज यह कार्य हम मिलकर करेंगे। इसलिए भीम और अर्जुन दोनों को मेरे साथ जाने की अनुमति दीजिये।
फिर श्रीकृष्ण के साथ भीम और अर्जुन तीनों ब्राह्मण वेश में जरासंध की राजधानी पहुंच जाते हैं। वहां एक मंदिर के सामने खड़े होकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि पार्थ जरासंध शिवजी का मस्ताभिषेक प्रतिदिन करता है। इस समय भी वो यहीं पर है। यह सुनकर भीम कहता है कि मुझे संदेह है कि वह हमारे द्वंद युद्ध के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेगा। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- तुम जरासंध को नहीं जानते भीम। मैं उससे भलिभांति परिचित हूं। उसने आज तक किसी भी योद्धा के ललकारने पर उसे निराश नहीं किया। भीम कहता हैं कि यदि ऐसा है तो निश्चित ही वह एक वीर है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह वीर ही नहीं महादानी भी है। देखते नहीं मंदिर के बाहर याचकों की भीड़। तब अर्जुन पूछता है कि तो क्या वह इन सबको संतुष्ट करेगा? तब श्रीकृष्ण कहते हैं निश्चय ही पार्थ। हमें भी इन याचकों की भीड़ में खड़े हो जाना पड़ेगा, तो चलें।
फिर तीनों लाइन में खड़े हो जाते हैं। जरासंध शिवजी की पूजा करने के बाद मंदिर से बाहर आता है तो सभी लोग उसकी जय-जयकार करते हैं। जरासंध सभी की याचना सुनता है। एक ब्राह्मण कहता है कि मैं आपके नगर में एक गुरुकुल की स्थापना करना चाहता हूं तो मुझे भूमि की आवश्यकता है। तब जरासंध अपने महामंत्री को आदेश देकर उसे आचार्य ब्राह्मण की इच्छा पूर्ण करने का कहते हैं। फिर इसी तरह लोगों की याचना सुनने और उनकी याचना पूर्ण करने का सिलसिला चलता है और अंत में वे श्रीकृष्ण के पास पहुंचते हैं और श्रीकृष्ण के प्रणाम करने पर कहते हैं- प्राणाम स्नातक ब्राह्मणों। ये द्रव्य स्वीकार करें आप।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं राजन! दान का अर्थ केवल द्रव्य दान नहीं होता। यह सुनकर जरासंध कहता है तो फिर आप अपनी कामना कहें ब्राह्मण। तब श्रीकृष्ण कहते हैं महाराज हम ये जानते हैं कि आप महादानी हैं। हर याचक की इच्छा पूरी करने वाले नरेश हैं। एक धर्मशील सम्राट हैं। इस पर जरासंध कहता है इसमें कोई संदेह है ब्राह्मण? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं राजन! जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश में, जल की तरलता में और वायु के सर्वव्यापी होने में कोई संदेह नहीं किया जा सकता उस प्रकार आपकी वाणी भी संदेहरहित है महाराज। यह सुनकर जरासंध कहता है- मनोबल बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है ब्राह्मण, अपनी आवश्यकता बताओ। तुम्हें क्या चाहिए। स्त्री, वस्तु, द्रव्य अथवा कुछ और?
तब श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं राजन नहीं। ये सब भौतिक सुख तो संसार में पीड़ा के कारण मात्र है। हम ये सब आकांक्षा लेकर यहां नहीं आएं हैं। यह सुनकर जरासंध कहता है तो फिर ऐसी कौनसी आकांक्षा है जिसे जरासंध पूरा नहीं कर सकता ब्राह्मण? बताओ तुम्हारे मन में ऐसी कौनसी लालसा है जो तुम्हें यहां खींचकर लेकर आई है?
तब श्रीकृष्ण कहते हैं लालसा! लालसा तो केवल एक ही महाराज। इस पर जरासंध पूछता है वो क्या है? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- युद्ध, केवल युद्ध। यह सुनकर जरासंध क्रोधित होकर भीम की ओर देखकर कहता है युद्ध। फिर वह जोर से हंसते हुए कहता है सुनो! युद्ध...सुनो! युद्ध...युद्ध सुनो। सभी यह सुनते हैं कि ये कैसी याचना। फिर वह कहता है युद्ध और वो भी जरासंध से। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- निश्चय ही महाराज हम लोग आपसे द्वंद युद्ध की इच्छा लेकर आए हैं, बोलो स्वीकार है?
यह सुनकर जरासंध कहता है कि तुम लोग ब्राह्मण हो या ब्राह्मणों के वेश में कोई और, पहले ये निश्चित हो जाए। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस समय द्वंद युद्ध की आकांक्षा करने वाला मैं केवल एक योद्धा हूं। यह सुनकर जरासंध कहता है कि परंतु द्वंद युद्ध समान योद्धाओं के बीच संभव है। जरासंध के विपक्ष में लड़ने वाले योद्धा का कुल, गोत्र और वंश का तो ज्ञान होना चाहिए।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं- राजन! ये कैसा धर्मपालन है, ये कौनसी मर्यादा है कि एक दानवीर के सामने याचक को अपना परिचय भी देना होगा। महाराज जरासंध के मुख पर युद्ध के नाम पर ये भयमुद्रा कैसी? यह बोलकर श्रीकृष्ण पांडवों सहित हंसने लगते हैं।
इसके बाद जरासंध और श्रीकृष्ण दोनों में वाद-विवाद होता है तो श्रीकृष्ण उसे उकसा देते हैं तब जरासंध कहता है सावधान, सावधान ब्राह्मण तुम क्या मुझे युद्ध के लिए ललकारते हो? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- युद्ध के लिए नहीं महाराज, द्वंद युद्ध के लिए। आप हम तीनों में से किसी एक को चुन सकते हैं महाराज जरासंध।
तब जरासंध कहता है कि महेश्वर साक्षी है कि मैंने आज तक किसी योद्धा को द्वंद युद्ध के लिए ललकारने पर विमुख नहीं किया है। फिर भी मैं तुमसे पूछ लेना चाहता हूं कि क्या तुम्हें मृत्यु का भय नहीं है? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं मृत्यु का भय, मृत्यु की बातें तो कायर लोग करते हैं महाराज, मुझे ऐसा लग रहा है कि मृत्यु भय आपको आहत कर रहा है। यह सुनकर जरासंध और भी ज्यादा भड़क जाता है और कहता है ऐसा कटुभाषी स्नातक? सत्य कहो तुम कौन हो? तुम कोई भी हो पर निश्चित रूप से ब्राह्मण नहीं हो।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं वहीं यदुवंशी कृष्ण हूं और ये है पांडु पुत्र भीम एवं अर्जुन है। तब जरासंध कहता हैं कि भेष बदलकर आने से तुम्हारे मन में छुपी किसी कुटिलता का आभास होता है कृष्ण। यह सुनकर कृष्ण कहते हैं कि कुटिलता रही होती तो तुम्हें द्वंद युद्ध के लिए नहीं ललकारता जरासंध। यह सुनकर जरासंध कहता है- तुम क्या मुझे द्वंद युद्ध के लिए ललकारोगे, गुर्जरात्र के युद्ध में भाग चुके हो तुम। मैं एक भगोड़े को मारकर कलंकित नहीं होना चाहता हूं कृष्ण।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- तो फिर इन दोनों में से किसी का चुनाव कर लो। तब जरासंध पहले अर्जुन और फिर भीम को देखता है। भीम को देखकर कहता है- ये ठीक है। परंतु ये दुर्बल शरीर वाला अर्जुन ये क्या सामना करेगा मेरा। ये तो मेरी एक मुष्ठी का प्रहार ही नहीं सहन कर पाएगा। हां हो सकता है कि भीम युद्ध में कुछ क्षण जी ले। यह सुनकर भीम कहता है- ये तो समय ही बताएगा कि कौन कुछ क्षण जी सकता है जरासंध। द्वंद युद्ध के लिए तुम वचनबद्ध हो चुके हो। जाओ पहले अपने कुल से अंतिम भेंट कर आओ और एक बार अपने राजर्षि के दर्शन भी कर आओ ताकि मरते समय तुम्हारी कोई कामना शेष न रह जाए। यह सुनकर जरासंध चीखता है- भीम।
तब भीम कहता है उत्तेजित ना हो राजन और मैं तुमसे द्वंद युद्ध के लिए तैयार हूं और तुम्हारे राजमहल के सामने वाले चतु:ष्पद पर मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करुंगा ताकि तुम्हारे मरण का महोत्सव तुम्हारे नगरवासी भी देख सकें। यह सुनकर जरासंध क्रोधित होकर कहता है भीम मैं भी तुम्हें वहीं यम का द्वार दिखाऊंगा।
फिर अखाड़े में भारी भीड़ के बीच दोनों का गदा युद्ध प्रारंभ होता है। गदा युद्ध में जरासंध की गदा को भीम अपनी गदा से दूसरी ओर फेंक देता है। जरासंध को निहत्था जानकर एक मंत्री जरासंध के पुत्र से कहता है आप चिंता ना करें राजकुमार। आपके पिता को मल्ल युद्ध में कोई नहीं हरा सकता।... इसके बाद भीम अपनी गदा को अखाड़े से बाहर फेंककर जरासंध के हाथों से ही युद्ध करने लगता है। फिर युद्ध में कभी भीम तो कभी जरासंध का पलड़ा भारी नजर आता है।
अंत में भीम जरासंध को उठाकर अखाड़े में पटकना प्रारंभ कर देता है तो सभा में राजकुमार और जरासंध के मंत्री चिंतित हो जाते हैं। भीम जरासंध को उठाकर भूमि पर पटक देता है तो श्रीकृष्ण एक पत्त के दो टुकड़े करके बताते हैं कि इसके भी दो टुकड़े कर दो। फिर भीम जरासंध की एक टांग पर पैर रखकर दूसरी को पकड़कर कर जरासंध के दो टुकड़े कर देता है। वह दोनों टुकड़े फिर से जुड़कर एक हो जाते हैं और जरासंध हंसते हुए उठ खड़ा होता है तो उसके समर्थक सभी हंसने लगते हैं।
वह फिर से युद्ध करने लगता है तो भीम कुछ देर बाद फिर से उसके दो टुकड़े कर देता है। यह टुकड़े फिर से जुड़ जाते हैं। भीम फिर से उसे मारने लगता है और भूमि पर पटककर श्रीकृष्ण की ओर निराश भाव से देखता है कि अब क्या करूं? ये तो मर ही नहीं रहा। तब श्रीकृष्ण अपने हाथ के पत्ते के दोनों टुकड़े को विपरित दिशा में फेंक देते हैं। भीम समझ जाता है।
तब वह जरासंध के फिर से दो टुकड़े करके दोनों टुकड़े को एक दूसरे की विपरित दिशा में फेंक देता है। जरासंध के वे दोनों टुकड़े कुछ देर तक तड़पते हैं और फिर शांत हो जाते हैं। तब भीम प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण की ओर देखता है।
फिर जरासंध का पुत्र चीखता है पिताश्री। इस पर उसका मंत्री कहता है- राजकुमारजी आप स्वयं को श्रीकृष्ण के अधीन कर दीजिये। तभी उसका पुत्र श्रीकृष्ण के चरणों में गिरकर कहता है- मुझे क्षमा कर दो मधुसुदन। मैं मरना नहीं चाहता। तब श्रीकृष्ण उसे अपने चरणों में से उठाकर कहते हैं- डरो मत पुत्र सहदेव...डरो मत। मैं तो केवल दुष्टों को ही दंड देता हूं। तुम तो निरपराध हो। लो आज से तुम मगध के सम्राट हुए और जाओ जाकर अपने पिता की अंत्येष्टि का प्रबंध करो। महाराज युधिष्ठिर बहुत शीघ्र राजसूय यज्ञ करने वाले हैं उसमें तुम मगध के प्रतिनिधि होकर आओ। सहदेव कहता है- जो आज्ञा प्रभु। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- जाओ जरासंध मेरे सम्मुख मृत्यु होने के कारण तुम भी स्वर्ग के अधिकारी हुए। जय श्रीकृष्णा।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा