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Shri Krishna 24 July Episode 83 : श्रीकृष्ण मांगते हैं धृतराष्ट्र से पांडवों का हक, मिलता है 'खाण्डव वन'

हमें फॉलो करें Shri Krishna 24 July Episode 83 : श्रीकृष्ण मांगते हैं धृतराष्ट्र से पांडवों का हक, मिलता है 'खाण्डव वन'

अनिरुद्ध जोशी

, शुक्रवार, 24 जुलाई 2020 (22:13 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 24 जुलाई के 83वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 83 ) में द्रौपदी के स्वयंवर के बाद श्रीकृष्ण कुंती सहित पांडवों के साथ हस्तिनापुर पहुंच जाते हैं। वहां उनके स्वागत के बाद धृतष्ट्र से मंत्रणा करने के लिए श्रीकृष्ण और धृष्टदुम्न उनसे महल पहुंचते हैं जहां भीष्म और विदुर भी रहते हैं।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
धृतराष्ट्र कहते हैं इस बात का क्या अर्थ है क्या मैंने अभी तक न्याय नहीं किया। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि आपने तो सदैव पांडवों के हित का ध्यान रखा है महाराज। इसके बाद धृष्टदुम्न कहता है कि तो फिर हस्तिनापुर राज्य को दो बराबर राज्य में बांटने में कौनसी असुविधा है। नगर को भी तो बांटा जा सकता है। यह सुनककर धृतराष्ट्र अपने क्रोध को रोककर हंसते हुए कहते हैं तो पांचाल के युवराज हमारे राज्य का बंटवारा कराने आए हैं। यह सुनकर सभी चौंक जाते है तब श्रीकृष्ण बात को संभालकर कहते हैं नहीं महाराज। युवराज धृष्टदुम्न तो पांडवों को एक स्वतंत्र राजा देखना चाहते हैं और अपनी बहन को पटरानी। 
 
धृतराष्ट्र यह सुनकर हंसते हुए कहते हैं कि मुझे इसमें क्या आपत्ति हो सकती है। परंतु मैं हस्तिनापुर का बंटवारा नहीं कर सकता। हस्तिनापुर हम कुरुवंशियों का प्राण है। मैं हस्तिनापुर का बंटवारा नहीं सह सकता। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि तो फिर पांडवों को आप जो भी भू-भाग सौंपेगे वो उन्हें स्वीकार होगा। तब बीच में ही शकुनि कहता है- यदुनंदन इस बात का क्या भरोसा है कि पांडवों को जो भू-भाग सौंपेंगे वह उन्हें स्वीकार होगा। तब श्रीकृष्ण तेश में आकर कहते हैं- गांधार कुमार कृष्ण का आश्‍वासन ही इस बात का प्रमाण है।
 
यह सुनकर धृतराष्ट्र कहते हैं अच्‍छा तो मैं...तभी शकुनि बीच में ही बोलता है- ठहरिये महाराज ठहरिये। तब धृतराष्ट्र कहते हैं क्या कहना चाहते हो शकुनि। तब शकुनि कहता है कि पांडव तो धीर है, गंभीर भी और दिव्यास्त्रों के जानकार भी। वे तो राज्य के अनुपयोगी भाग को भी संपन्न बना सकते हैं। खंडहरों में भी सोने की नदियां बहा सकते हैं। अगर राज्य को ही समृद्ध किया जाना है तो उसमें उन्हें ऐसे भू-भाग को सौंपा जाना चाहिए जिसमें वे अपनी पूरी शक्ति का प्रदर्शन कर सकें। 
 
यह सुनकर धृतराष्ट्र कहते हैं- तुम ठीक कहते हो शकुनि मुझे भी पांडवों पर पूरा भरोसा है। इसलिए मैं अपने पूर्वजों के पुरातन नगर खंडव वन को उन्हें सौंपता हूं और उसके साथ लगे भू-भाग को भी। इस पर शकुनि कहता है वाह! जीजाजी क्या सोचा है। मेरे प्रिय भांजे पांडव निश्चय ही वहां हस्तिनापुर से भी श्रेष्ठ नगर बसा लेंगे।
 
यह सुनकर भीष्म, धृष्टदुम्न और विदुर चौंक जाते हैं लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं कि महाराज मुझे और धृष्टदुम्न दोनों को आपका निर्णय स्वीकार है। इतिहास साक्षी है कि शौर्यवान राजाओं ने अपनी भुजाओं के बल पर ही नई-नई राजधानियों का निर्माण किया है। निश्चय ही गांधार कुमार की ये बात इस बार सत्य होकर ही रहेगी। 
 
बाद में कुंती और पांडवों के साथ चर्चा में कुंती पूछती हैं- आखिर निर्णय क्या हुआ देवकीनंदन? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- वही जो मेरा पूर्वानुमान था। महाराज धृतराष्ट्र ने आप लोगों को खांडव वन का क्षेत्र सौंपा है। यह सुनकर कुंती कहती है खांडववन! परंतु खांडववन में अब क्या है? वहां कहां राजधानी बनेगी? वहां तो पुराने खंडहर ही खंडहर है देवकीपुत्र। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- अरे बुआ वहां बहुत कुछ है। सबसे पहले तो वहां हमारी प्रिय यमुनाजी है, चारों ओर वनों की हरियाली छटा है, पर्वतमालाएं हैं और इससे अधिक आपको क्या चाहिये बुआ?
 
यह सुनकर कुंती कहती हैं परिहास न करो कन्हैया। क्या मेरे पुत्रों के भाग्य में यही संपत्ति आनी थी। क्या इसीलिए तुम और धृष्टदुम्न महाराज से वार्ता करने गए थे? यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- आप चिंता न करें बुआ। आपके साथ मैं हूं और आपके पांच वीर पुत्र हैं। तब कुंती कहती है- लेकिन ये न्याय नहीं है। तब यह सुनकर युधिष्ठिर कहता है कि न्याय और अन्याय का प्रश्न वहां उठता है माताश्री जहां अधिकार पहले से ही प्रमाणित हो। इस समय तो महाराज ने हमें जो भी भू-भाग दिया है उसी पर हमें संतुष्टी करना होगी।
 
तब कुंती कहती है तुम लोग जैसा समझो वैसा करो। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां बुआ। आप लोग खंडव वन चलने की तैयारी कीजिये इससे पहले हम और अर्जुन आज ही प्रस्थान करते हैं और जाकर देखते हैं कि वहां क्या किया जा सकता हैं।
 
फिर श्रीकृष्ण और अर्जुन एक रथ पर सवार होकर खंडववन पहुंच जाते हैं। वहां वे खंडहरों को देखते हैं। खंडहरों को देखकर श्रीकृष्ण कहते हैं- लो ये है तुम्हारा खंडवप्रस्थ। तब अर्जुन कहता है मधुसुदन यहां तो केवल जंगल और खंडहर ही है। इन जंगलों और खंडहरों में राजधानी का निर्माण कैसे हो सकता है?
 
यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं संभव है, सबकुछ संभव है। मनुष्ट के दृढ़ निश्चय के आगे कुछ भी असंभव नहीं रहता पार्थ। हमें इन्हीं खंडहरों में राजधानी की संभावनाओं का पता करना है और हस्तिनापुर से हम आए भी इसीलिए हैं अर्जुन। 
 
फिर दोनों खंडहरों के नजदीक जाकर एक खंडहर के अंदर पहुंचते हैं और उसे चारों ओर से देखते हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं पार्थ इन्हीं खंडहरों में तुम्हारे पूर्वजों ने एक नगर बसाया था। कल्पना करो इस कार्य में उन्हें किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा? तब अर्जुन कहता है- मधुसुदन इस कार्य में अवश्य दैवीय शक्तियों ने सहायता की होगी। यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- सो तो आज भी संभव है। अर्जुन कहता है अर्थात। 
 
इसके बाद श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं देवशिल्पी विश्वकर्मा का आह्वाहन करता हूं। ऐसा कहकर श्रीकृष्‍ण आह्वाहन कहते हैं। विश्‍वकर्मा वहां प्रकट हो जाते हैं। अर्जुन उन्हें प्रणाम करते हैं। देवशिल्पी विश्वकर्मा कहते हैं- आज्ञा करें देव विश्वकर्मा को किस निमित्त स्मरण किया गया है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं हे देवशिल्पी। पहले आपने मेरे कहने से द्वारिकापुरी का निर्माण किया था। अब आपको इसी वन प्रांत में पांडवों को लिए एक भव्य राजधानी का निर्माण करना है। 
 
यह सुनकर विश्वकर्मा कहते हैं- भगवन उसके लिए मेरी क्या आवश्यकता है। दानवों का राजा मयदानव मेरा मित्र है। वो दैत्य शिल्पी भी है। पूर्वकाल में ये खांडवप्रस्थ नगर उन्हीं के द्वारा बनाया गया था। वे इस भूमि के चप्पे-चप्पे से परिचित है प्रभु, और इन दिनों इसी वन में विहार भी कर रहे हैं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- तो आप श्रीघ्र उनका आह्‍वाहन करें। हमें अतिशीघ्री एक वैभवशली राजधानी चाहिये। यह सुनकर विश्वकर्माजी कहते हैं- जैसी प्रभु की आज्ञा। 
 
फिर विश्वकर्मा मयदानव का आह्‍वाहन करते हैं तो वह प्रकट हो जाता है और कहता है- मुझे क्यों स्मरण किया मित्र। तब विश्वकर्माजी कहते हैं कि मुझे भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों के लिए इसी स्थान पर एक राजधानी बनाने का आदेश दिया है। यह सुनकर मयदान कहता है आह! मैं कितना भाग्यशाली हूं। यह सुनकर मयदानव अतिप्रसन्न होता है और वह श्रीकृष्ण, अर्जुन एवं विश्वकर्मा से कहता है कि यहां एक खजाना छुपा हुआ है, लेकिन उसकी रक्षा तक्षक नाग करता है। श्रीकृष्ण कहते हैं तुम आगे चलो हम देखते हैं।
 
तब श्रीकृष्ण को मयदानव खंडहर के भीतर ले जाता है। वह खंडहर का तिलिस्मि दरवाजा खोलता है और उसके भीतर जाकर कहता है कि यहां वह जो सीढ़ी है उसके नीचे खजाना है। इन सीढ़ियों पर पांव रखते ही नागराज प्रकट हो जाएंगे। तब अर्जुन कहता है कि मैं उनकी सीढ़ियों पर पांव रखता हूं। पांव रखते ही नागराज प्रकट हो जाते हैं तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं- तुम उनसे मार्ग छोड़ने की प्रार्थना करो अर्जुन। अर्जुन ऐसा ही करता है लेकिन नागराज नहीं हटते हैं क्योंकि वे इंद्र के अलावा किसी की भी आज्ञा नहीं मानते हैं। तब इंद्रदेव का आह्‍वान किया जाता है और इंद्रदेव प्रकट होकर नागराज को हटने का आदेश देते हैं। नागराज हट जाते हैं तब इंद्र कहते हैं- लीजिये प्रभु ये सारा खजाना आपका है। फिर इंद्र कई तरह की बातें करने के बाद चले जाते हैं।

फिर मयदानव सभी को सीढ़ियों से नीचे ले जाता है। नीचे खंडहर में ढेर सारे हीरे जवाहरात के साथ ही एक रथ रखा होता। मयासुर कहता है कि हे श्रीकृष्ण, यह सोने का रथ पूर्वकाल के महाराजा सोम का रथ है। यह आपको आपकी मनचाही जगह पर ले जाने के लिए समर्थ है...। उस रथ में एक गदा रखी होती है जिसे दिखाते हुए मयासुर कहता है कि ये कौमुद की गदा है जिसे पांडव पुत्र भीम के अलावा और कोई उठा नहीं सकता है। इसके प्रहार की शक्ति अद्भुत है। गदा दिखाने के बाद मयासुर कहता है कि यह गांडीव धनुष है। यह अद्भुत और दिव्य धनुष है। इसे दैत्यराज वृषपर्वा ने भगवान शंकर की आराधना से प्राप्त किया था।
 
भगवान श्रीकृष्ण उस धनुष को उठाकर अर्जुन को देते हुए कहते हैं कि इस दिव्य धनुष पर तुम दिव्य बाणों का संधान कर सकोगे। इसके बाद मयासुर अर्जुन को अक्षय तर्कश देते हुए कहता है कि इसके बाण कभी समाप्त नहीं होते हैं। इसे स्वयं अग्निदेव ने दैत्यराज को दिया था। इस बीच विश्‍वकर्मा कहते हैं कि आज से इस समस्त संपत्ति के आप अधिकारी हो गए हैं पांडुपुत्र। अंत में श्रीकृष्ण कहते हैं कि मयासुर, तुम्हारी इस कृपा का हम प्रतिदान तो नहीं दे सकते लेकिन हम वचन देते हैं कि जब भी तुम हमें संकट काल में स्मरण करोगे, तो मैं और अर्जुन तुरंत ही वहां पहुंच जाएंगे। मयासुर यह सुनकर प्रसन्न हो जाता है। बाद में विश्‍वकर्मा और मयासुर मिलकर इंद्रप्रस्थ नगर को बनाने का कार्य करते हैं।
 
इंद्रप्रस्थ का नाम भगवान इंद्र पर रखा गया, क्योंकि इस नगर को इंद्र के स्वर्ग की तरह बसाया गया था। भगवान कृष्ण ने विश्वकर्मा से भगवान इंद्र के स्वर्ग के समान एक महान शहर का निर्माण करने के लिए कहा था। विश्वकर्मा ने इस नगर में दिव्य और सुन्दर उद्यान और मार्गों का निर्माण किया था, तो मयासुर ने इस राज्य में मयसभा नामक भ्रमित करने वाला एक भव्य महल बनाया था।
 
अंत में कुंती सहित सभी पांडव, द्रौपदी, धृष्टदुम्न, श्रीकृष्ण, बलराम और राजा द्रुपद इंद्रप्रस्थ नगर और उसके महल को देखकर अचंभित हो जाते हैं। सभी महल का निरिक्षण करते हैं। जय श्रीकृष्ण। जय श्रीकृष्‍णा।

रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा

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