निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 22 जुलाई के 81वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 81 ) में श्रीकृष्ण रुक्मिणी का हरण कर के ले जा रहे होते हैं तो रुक्मी उन्हें रास्ते में ही रोककर उनसे युद्ध करने लगता है। श्रीकृष्ण उसे युद्ध में परास्त कर देते हैं। इसके बाद श्रीकृष्ण सुदर्शन से उसका वध करने ही वाले रहते हैं तभी रुक्मिणी उनका हाथ पकड़ लेती हैं।
फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- देवी मैं तुम्हें अपनी पत्नी से अधिक प्रेमिका मानता हूं और प्रेमिका के आदेश को कोई ठुकरा नहीं सकता। फिर वे रुक्मी की छाती से अपना पैर हटाकर कहते हैं- जाओ रुक्मी मैंने तुम्हें जीवन दान दिया। अगर तुम वीर हो तो अपनी बहन के इस अहसान को कभी मत भूलना और जाओ अपने पिता से कहना है कि आज सारे आर्यावर्त में यादवों से लोहा लेने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता। फिर वे रुक्मिणी से कहते हैं- चलो देवी। दोनों रथ पर सवार होकर चले जाते हैं। रुक्मी पराजित भाव से उन्हें पीछे से देखता ही रह जाता है।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
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रामानंद सागर बताते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण की अर्जुन से पहली मुलाकात द्रौपदी के स्वयंवर में हुई थी जबकि अर्जुन और उसके चारों भाई एक ब्राह्मण वेश में उस स्वयंवर में शामिल हुए। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पहचान लिया और अर्जुन भी उनकी ओर देखने लगा। द्रौपदी यज्ञकुंडी से जन्मी दिव्य कन्या थीं। श्रीकृष्ण और द्रौपदी ने आपस में आजीवन भाई-बहन का रिश्ता निभाया। इसलिए जब भी द्रौपदी पर कोई विपदा आई तो श्रीकृष्ण भी उसकी सहायता के लिए तत्काल द्रौपदी के पास पहुंच जाते थे। द्रौपदी की गिनती पंच कन्याओं में है। ये पंच कन्याएं हैं अहिल्या, द्रौपदी, तारा, कुंती तथा मंदोदरी।
पांचों महाबली पांडवों में से एक भी द्रौपदी के चीरहरण के समय उनमें से एक भी उनकी रक्षा नहीं कर सका था तब द्रौपदी द्वारा श्रीकृष्ण को पुकारने पर उन्होंने ही उनकी रक्षा की थी। फिर रामानंद सागर द्रौपदी के जन्म की कथा को बताते हैं कि द्रौपदी के पिता महाराज द्रुपद और गुरु द्रोणाचार्य बचपन में एक ही गुरु के आश्रम में पढ़ते थे। समय बितने पर द्रुपद पांचाल देश का राजा बन गया और द्रोणाचार्य एक गरीब ऋषि। तब एक दिन द्रोणाचार्य अपने मित्र द्रुपद से मिलने गए तो द्रुपद ने पहले तो उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया और जब द्रोणाचार्य ने अपना परिचय दिया तो द्रुपद ने उनका अपमान किया और कहा कि तुम अवश्य कुछ मांगने आये हो तो तुम जो चाहे मांग लो। द्रुपद कहता है कि हम किसी राजा से दान मांगने नहीं आए थे अब तो केवल अपने मित्र से मिलने आए थे। आपने सही कि मित्रता बराबरी वालों में की जाती है। सो जिस दिन हम आपके बराबर हो जाएंगे अब तभी आपसे भेंट करेंगे।
द्रोणाचार्य अपने अपमान को सहकर वहां से चले जाते हैं। तब उन्होंने खुद को शक्तिशाली और बलवान बनाया और वे पांडवों के शिक्षक बन गए। इसलिए जब पांडवों से दक्षिणा लेने का समय आया तो उन्होंने कहा कि मेरी गुरु दक्षिणा एक ही है कि पांचाल देश के घमंडी राजा द्रुपद को जीवित अवस्था में बांधकर मेरे सामने लाकर खड़ा कर दो। यह सुनकर अर्जुन कहता है कि मैं आपको वचन देता हूं कि यदि मैं ऐसा नहीं कर पाया तो अपना धनुष तोड़कर आपके चरणों में रख जाऊंगा और जीवनभर कभी धनुष नहीं उठाऊंगा।
अर्जुन और द्रुपद के बीच बहुत भीषण युद्ध हुआ और अंत में अर्जुन राजा द्रुपद को नागपाश में बांधकर अपने गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष खड़ा कर देता है। गुरु द्रोणाचार्य कहते हैं राजा द्रुपद तुम युद्ध में हार गए हो इसलिए तुम्हारे समस्त राज्य पर हमारा अधिकार हो गया है। ये मानते हो? राजा द्रुपद कहता है हां। तब द्रोणाचार्य कहते हैं कि परंतु हमें तुम्हारा समस्त राज्य नहीं चाहिए। हम तुम्हारा आधा राज्य चाहते हैं और बाकी आधा राज्य तुम्हें लौटा देंगे। तुम्हें स्वीकार है? तब राजा द्रुपद कहता है हां।
तब द्रोणाचार्या कहते हैं इसका अर्थ समझते हो, आधे पांचाल के राजा हम हैं और आधे पांचाल के राजा तुम हो। ठीक है? द्रुपद कहता है हां। इस पर द्रोणाचार्य कहते हैं कि इसका अर्थ ये है कि आज हम बराबर-बराबर के हो गए हैं। क्या अब मैं तुम्हें अपना मित्र कह सकता हूं? या अब भी तुम्हें मेरा मित्र कहलाने में संकोच हो रहा हैं? यह सुनकर द्रुपद कहते हैं कि अब और लज्जीत न करो मित्र। अर्जुन से हारने में मुझमें इतनी व्यथा नहीं हुई जितनी तुम्हारे इन तीखे वचनों से हो रही है। मेरी उस भूल को क्षमा कर दो द्रोण, मुझे क्षमा कर दो। तब द्रोणाचार्य कहते हैं नहीं द्रुपद नहीं। मित्र से क्षमा नहीं मांगा करते। तुम्हारी मित्रता मुझे इतनी प्यारी थी कि तुम्हारी मित्रता पाने के लिए मुझे ये सबकुछ करना पड़ा, इसके लिए मुझे क्षमा कर दो।
फिर द्रोणाचार्य कहते हैं अर्जुन अपने पाश अस्त्र से मेरे मित्र को मुक्त कर दो। तब अर्जुन उन्हें मुक्त कर देता है। फिर द्रोणाचार्य और द्रुपद गले मिलते हैं, लेकिन द्रुपद के मन में कसक रहती है। मुक्त होने के बाद उसके मन में इस घटना को लेकर बहुत दुख होता है।
द्रुपद अपने इस अपमान का बदला लेने की सोचता है। इसलिए वह महर्षि याज्य और महर्षि उपयाज्य के पास जाकर प्रार्थना कहते हैं कि मेरी आपसे प्रार्थना कि मुझे संतान यज्ञ के द्वारा दो संतानें हो, एक पुत्र और एक पुत्री। पुत्र वो जो द्रोणाचार्य का वध करके मेरे अपमान का बदला ले सके और पुत्री वो जिसका विवाह मैं अर्जुन जैसे पराक्रमी वीर धनुर्धर के साथ कर सकूं।
दोनों ऋषि ने द्रुपद के कहने पर ऐसा यज्ञ किया जिससे उसकी दो संतानें हुईं। पहली संतान रथ और शस्त्र लेकर पुत्र के रूप में यज्ञ से प्रकट हुई और दूसरी संतान पुत्री के रूप में प्रकट हुई तब आकाशवाणी से यह कहा गया कि तुम्हारा पुत्र द्रोण का संहार करेगा और तुम्हारी ये दिव्य कन्या देवलोक में पांच इंद्रों की इंद्राणी रह चुकी है। इसका जन्म अहंकारी और अभिमानी क्षत्रियों का संहार करने के लिए हुआ है।
परंपरा के अनुसार राजा द्रुपद ने द्रौपदी के स्वयंवर का आयोजन किया। इस स्वयंवर में अनेक राजा आए। राजा भगदंत, चैकितान, शिशुपाल, कर्ण, जरासंध, दुर्योधन, शल्य और शकुनि आदि राजा उपस्थित हुए और इस स्वयंवर में पांडव वीर भी ब्राह्मणों के वेश में वहां पथारे। महाराज द्रुपद ने भगवान श्रीकृष्ण और बलराम को भी इस स्वयंवर का विशेष निमंत्रण भेजा। श्रीकृष्ण और बलराम के पहुंचते ही द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण की जय के नारों से सभा गुंजने लगी। सभी खड़े हो जाते हैं परंतु शिशुपाल और जरासंध आदि उसके साथ बैठे रहते हैं। दोनों को विशेष सिंहासन पर बिठाया जाता है।
दोनों आसन ग्रहण करने के बाद चारों ओर देखते हैं। श्रीकृष्ण की नजर अर्जुन पर जाती है। अर्जुन भी उन्हें देखता है। अर्जुन धीरे से अपने बड़े भैया भीम से कहता है तो यही श्रीकृष्ण है? भीम तब युधिष्ठिर से पूछता है भैया क्या ये वही है जिन्हें माताश्री भगवान मानती है? तब युधिष्ठिर कहते हैं- अवश्य। यही वो परब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण हैं जो अब तक हमारी रक्षा करते आए हैं। नकुल पूछता है कि आपको कैसे विश्वास है कि यही सचमुच परब्रह्म भगवान है? तब युधिष्ठिर बोलता है कि क्योंकि हमारी माताश्री सत्यवचना है। उन्होंने आज तक कभी झूठ नहीं बोला। इसलिए उन्हें वाक् सिद्धि प्राप्त हो चुकी है। सो मानलो की श्रीकृष्ण भगवान हैं और मन ही मन इन्हें प्रणाम करो।
तब सहदेव कहते हैं यदि मन ही मन इन्हें प्रणाम करेंगे तो वे सुन लेंगे? तब युधिष्ठिर कहते हैं अवश्य। फिर सभी मन ही मन प्रणाम करके कहते हैं श्रीकृष्णाय नम:। मन की आवाज सुनकर श्रीकृष्ण उनकी ओर देखकर मुस्कुराते हैं और धीरे से हाथ उठाकर आशीर्वाद देते हैं। यह देखकर सभी उन्हें नमस्कार करते हैं।
फिर द्रौपदी के स्वयंवर प्रतियोगिता का प्रारंभ होता है। द्रौपदी हार लेकर सभा में उपस्थित होती है और अपने स्थान पर बैठ जाती है। फिर राजा द्रुपद खड़े होकर सभी का स्वागत करते हैं। फिर राजा द्रुपद कहते हैं कि युवराज धृष्टदुम्न इस सभा में आए हुए नरपतियों से हमारी स्वयंवर की शर्तों को बताएंगे। फिर धृष्टदुम्न बताता है कि राजकुमारी उसी वीर को अपना वर चुनेंगी जो इस लक्ष्यभेद की परीक्षा में सफल होगा। इसके लिए लक्ष्य के नीचे पांच बाण रखे हुए हैं जो वीर नरेश इन पांच बाणों से लक्ष्य के ऊपर घुम रहे चक्र के बीच से ऊपर लटकती हुए मछली की आंख में तीर मारेगा। हमारी बहन उसी के गले में वरमाला पहनाएंगी। और दूसरी शर्त ये है कि लक्ष्य का संधान नीचे रखे कढ़ाव के तेल में परछाई देखकर किया जा सकेगा।
सभी राजाओं के मन में इस कठिन लक्ष्य को लेकर कौतुहल और असमंजस की स्थिति निर्मित हो जाती है। सभी आपस में गुफ्तगू करने लगते हैं। फिर राजा द्रुपद कहते हैं प्रतियोगिता आरंभ की जाए।
राजा द्रुपद दुर्योधन का परिचय देते हैं फिर दुर्योधन सभा के बीच स्थित प्रतियोगिता के स्थल पर पहुंचकर एक स्थान पर रखे धनुष को उठाने का प्रयास करता है लेकिन वह बहुत भारी रहता है। जैसे-तैसे उसे वह उठाता है और फिर उस पर प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयास करता है। द्रौपदी सहित सभी देखते हैं। शकुनि उसका हौसला बढ़ाता है, लेकिन दुर्योधन धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के दौरान ही धनुष सहित भूमि पर गिर पड़ता है। बड़ी मुश्किल से वह खुद उठकर धनुष उठाकर पुन: उसके स्थान पर रखकर चुपचाप अपने स्थान पर आकर बैठ जाता है। फिर वह क्रोधित होकर द्रौपदी की ओर देखता है तो द्रौपदी मुस्कुरा देती हैं। श्रीकृष्ण और बलराम भी मुस्कुरा देते हैं।
तब शल्य जरासंध के कंधे पर हाथ रखकर कहता है सम्राट अब आप जाइये। जरासंध उठकर खड़ा होता है तो उसके समर्थक उसकी जय-जयकार करने लगते हैं।...तब यह देखकर श्रीकृष्ण बलराम से कहते हैं, दाऊ भैया देखो, जरासंध को अपनी अवस्था का भी ध्यान नहीं है। तब बलराम हंसते हुए कहते हैं- स्त्री लोलुप तो ठहरा।
जरासंध धनुष के पास पहुंचकर पहले द्रौपदी को देखकर मुस्कुराता है और फिर धनुष को उठाने का प्रयास करता है। वह भी दुर्योधन की तरह बड़ी मुश्किल से उठाकर खड़ा करता है और उस पर प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयास करता है। लेकिन वह बड़ी मुश्किल से खुद को गिरने से बचाता है। यह देखकर श्रीकृष्ण हंस देते हैं। वह हंफते हुए धनुष को उठाकर पुन: उसके स्थान पर रख देता है और क्रोधित होकर अपने स्थान पर जाकर बैठ जाता है।
फिर अंगदेश के राजा और दुर्योधन के परम मित्र महाराज कर्ण खड़े होते हैं। वह भी धनुष के पास जाकर पहले द्रौपदी को देखते हैं। फिर वह धनुष को प्रणाम करके उसे उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ा देता है। यह देखकर दुर्योधन, जरासंध, शकुनि सभी प्रसन्न हो जाते हैं। फिर वह धनुष को मुश्किल से उठाकर ले जाकर तेल से भरे कढ़ावा के पास रखता है और वहां रखे एक बाण को ले लेता है। फिर वह बाण से संधान करने ही वाला होता है तभी द्रौपदी खड़ी हो जाती है और कहती है ठहरो।
वह कर्ण को रोककर कहती है- समस्त सम्राट, राजा, क्षत्रिय और ब्राह्मणों की सभा में मैं एक सूतपुत्र से विवाह करने से इनकार करती हूं। यह सुनकर कर्ण चौंक जाता है और फिर वह बाण को एक ओर फेंककर, धनुष से प्रत्यंचा उतारकर धनुष को पुन: उसके स्थान पर रख देता है और अपने स्थान पर आकर बैठ जाता है।
यह देखकर श्रीकृष्ण कहते हैं वाह। तब बलराम कहते हैं किसकी प्रशंसा कर रहे हो कन्हैया? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं एक वीर की जो अपने प्रारब्ध का शिकार है।...फिर दुर्योधन चीखकर कहता है महाराज द्रुपद ये हमारे मित्र का अपमान है। कर्ण तो अंगदेश का राजा है। इसलिए वो इस स्वयंवर में भाग लेने का अधिकारी है। यह सुनकर कर्ण कहता है नहीं मित्र। विवाह का एक अर्थ आपसी सहमति भी है। जब द्रौपदी की अनुमति नहीं है तो मैं इस प्रतियोगिता में भाग कैसे ले सकता हूं। यह सुनकर श्रीकृष्ण खड़े होकर कहते हैं कि मैं वीर कर्ण की बात से सहमत हूं। शास्त्र भी विवाह से पहले नारी की सहमति को ही मानता है। श्रीकृष्ण का समर्थन देखकर द्रौपदी प्रसन्न हो जाती है।
यह सुनकर शिशुपाल खड़ा होकर कहता है अभी चेदि वंश का रक्त जीवित है। आप क्यों चिंता करते हैं युवराज दुर्योधन। शास्त्रों की अपने पक्ष में बाते करने वालों पर ध्यान ना दीजिये, ये लक्ष्य मैं भेदूंगा।...फिर शिशुपाल धनुष को बड़ी मुश्किल से उठकर नीचे रखता है और फिर उस पर प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयास करता है लेकिन वह ऐसा करने में असफल रहता है तब वह भी धनुष को पुन: उसके स्थान पर रख देता है। यह देखकर जरासंध झल्ला जाता है और द्रौपदी प्रसन्न हो जाती हैं। शिशुपाल मुंह लटकाए अपने स्थान पर जाकर बैठ जाता है।
यह देखकर बलराम कहते हैं- कन्हैया देख रहे हो बड़बोलेपन का परिणाम। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां.. द्रुपद ने शर्त तो किसी ओर के लिए रखी है दाऊ भैया। बलराम पूछते हैं किसके लिए? श्रीकृष्ण हंसते हुए कहते हैं- अभी पता चल जाएगा।
फिर राजकुमार दु:शासन खड़े होते हैं। उनका भी हाल दुर्योधन और शिशुपाल की तरह ही होता है। फिर राजा चैकितान, राजकुमार विकर्ण आदि सभी असफल हो जाते हैं तो राजा द्रुपद खड़े होकर कहते हैं कि मैं देख रहा हूं कि यहां बड़े-बड़े महावीरों की उपस्थिति है लेकिन अभी तक कोई भी ऐसा क्षत्रिय वीर नहीं मिला जो मेरी पुत्री के योग्य हो। काश आज मेरी कल्पना का धनुर्धर मेरे सामने होता तो मैं उससे कहता कि उठो वीर और मेरी चिंता का निवारण कर दो। तब राजा द्रुपद की पत्नी कहती है- अधीर ना हो महाराज देव की इच्छा पर भरोसा रखें सब कुशल होगा।
यह सुनकर श्रीकृष्ण संकेतों से अर्जुन को उठने का कहते हैं। अर्जुन उनका संकेत समझकर उठ खड़ा हो जाता है। द्रौपदी उसे देखती है और वह भी उसे देखता है। फिर वह चलकर धनुष के पास पहुंचता है।...तभी सभा में उपस्थित जनता में से एक व्यक्ति कहता है अरे! देखो तो इस ब्राह्मण कुमार को क्या सूझी है? तब दूसरा कहता है कुछ भी हो ब्राह्मण पुत्र लगता है बड़ा उत्साही। तब एक ऋषि कहता है कि ब्राह्मण है तो क्या, एक ब्राह्मण क्षत्रिय कन्या का वरण कर सकता है, शास्त्र इसकी आज्ञा देता है। जय श्रीकृष्णा।