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Shri Krishna 11 August Episode 101 : सुदामा की पत्नी गरीबी के दु:ख से हारकर भेजती है राजा के दरबार में उन्हें

हमें फॉलो करें Shri Krishna 11 August Episode 101 : सुदामा की पत्नी गरीबी के दु:ख से हारकर भेजती है राजा के दरबार में उन्हें

अनिरुद्ध जोशी

, मंगलवार, 11 अगस्त 2020 (22:05 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 11 अगस्त के 101वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 101 ) में जब सुदामा अपने हिस्से का भोजन गाय और भिखारी को देकर खुद भूख रह लेता है तब श्रीकृष्ण भी अपनी पत्नियों को भोजन करने से इनकार करके कहते हैं कि जब मेरा भक्त आज भूखा ही रह गया है तो मैं कैसे भोजन कर सकता हूं। अब आगे... 
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
  
तब श्रीकृष्ण सत्यभाभा से कहते हैं कि सुदामा एक गरीब ब्राह्मण है। उसे और उसके परिवार को हर दिन भोजन नहीं मिलता। फिर भी सुदामा धर्म के मार्ग से विचलित नहीं होता। गृहस्थ प्राणी का कर्तव्य है कि भोजन से पहले ही एक हिस्सा अपने पशु को और भोजन के समय कोई आतिथि आया हो तो उसे खिलाना चाहिए। आज सुदामा ने यही किया और अतिथि को देने के बाद स्वयं सुदामा के लिए कुछ भी बचा नहीं, ये होता है धर्म पालन।...भक्त कभी-कभी अपनी भक्ति से खुद को इतना ऊंचा कर देता है कि भक्त और भगवान में कोई अंतर ही नहीं रह जाता। इसी कारण सुदामा मुझे बहुत प्रिय है। उसे इस बात का दुख है कि वह अपने परिवार का पलन ठीक तरीके से करने में असफल हो रहा है। सत्यभामा कहती है कि फिर वो आपके पास क्यों नहीं आते? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- इसलिए कि उसके मन में ये शंका है कि कृष्ण जो उसका बाल सखा है अब द्वारिकाधीश हो जाने के बाद गरीब सुदामा को पहचानेगा की नहीं? 
 
यह सुनकर जामवंती कहती है प्रभु आप तो अंतरयामी है। सब कुछ जानते हुए भी आप केवल दूर से दर्शक की भूमिका निभा रहे हैं। क्या सुदामा की भक्ति में कुछ कमियां हैं? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं जामवंती, सुदामा पर संदेह करना अपने आप पर संदेह करना है। फिर श्रीकृष्ण सुदामा के बचपन की बात बताते हैं कि वह कहता था कि हे कृष्ण! तुम तो मेरी सहायता कर सकोगे परंतु यदि तुम पर संकट आ गया तो मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकूंगा। इसलिए मुझे अपना मित्र ना बनाओ। यह सुनकर सत्यभामा कहती है वाह सुदामा जैसे मित्र को देखने की उत्सुकता अब मेरे मन में भी जागृत हुई है।.....रुक्मिणी पूछती है- सुदामा मिलने कब आएगा तो इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- शीघ्र ही।
 
उधर, सुदामा के घर पर वही पालकी वाला उसका मित्र चक्रधर पहुंचता है तो सुदामा और उसकी पत्नी उसका स्वागत कर उसे बैठाते हैं। फिर सुदामा की पत्नी वसुंधरा कहती है- आपने तो मुझे चौंका ही दिया। आप पालकी से कैसे? तब चक्रधर कहता है कि राजा ने मेरा सम्मान किया है। भाभीजी दरबार में मेरा महत्वपूर्ण स्थान है और काम क्या, केवल राजा के सामने अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन करना। यह सुनकर सुदामा कहता है कि विद्वत्ता का नहीं बल्कि राजा की चापलूसी का प्रदर्शन करना। अपनी कविता में राजा के उन गुणों का गान करना जो राजा में है ही नहीं। 
 
यह सुनकर चक्रधर अपनी भाभी से कहता है सुन लिया! सुन लिया आपने भाभीजी सुदामा की इसी विचारधारा की वजह से इस घर की ऐसी हालत है। यह सुनकर सुदामा की पत्नी नजरें नीचे झुका लेती हैं। फिर चक्रधर कहता है- भाभीजी सुदामा मुझसे कई गुना विद्वान है। फिर भी आपके बच्चों को भरपेट खाना नहीं मिल सकता। आजकल पूजा-पाठ से कोई लाभ नहीं होता। इससे अच्छा है कि सुदामा राजा के दरबार में जाए और राजा के गुणों का गान करें। मैंने सुदामा को कहा था, परंतु मेरी तो मानता नहीं इसीलिए आपके पास आया हूं। अब आप ही इसे समझाइये।...
 
यह सुनकर वसुंधरा कुछ नहीं बोल पाती है। फिर वह कहता है‍ कि भाभीजी एक बार, केवल एक बार यदि राजा की कृपा हो गई तो आपके भाग्य के जो दरवाजे बंद हैं वह शीघ्र ही खुल जाएंगे और जिस गरीबी ने आपके घर का आश्रय लिया है वो गरीबी राजा के केवल एक इशारे से इस घर का त्याग कर देगी। और फिर मेरी तरह की सुदामा भी जब पालकी से जाएगा तो सबसे अधिक आनंद आपको ही होगा भाभी। इसे समझाइये, इसे समझाइये भाभीजी। यह सुनकर सुदामा वसुंधरा के चेहरे की ओर देखने लगता है। 
 
इस पर सुदामा की पत्नी कहती हैं कि अवश्य समझाऊंगी। आप निश्चिंत रहिये, मैं आपको वचन देती हूं। मेरे पति कल आपके साथ राजा के पास अवश्‍य जाएंगे। यह सुनकर चक्रधर खड़ा होकर कहता है- तो बस। समझ लो भाभी की सब ठीक हो जाएगा। ऐसा कहकर वह चला जाता है और सुदामा दोनों का चेहरा ही देखता रह जाता है। 
 
फिर सुदामा की पत्नी रात्रि को उससे कहती है कि अब ये श्रीकृष्ण का जाप दो दिन के लिए बंद करो तो इस पर सुदामा कहता है कि कोई दो दिन के लिए श्वांस लेना कैसे छोड़ सकता है? तब उसकी पत्नी कहती है कि चलिये जिस जिव्हा से जाप होता है उसी से आजीविका भी चल सकती हो तो कोई हर्ज है क्या? उसकी पत्नी कई तरह से समझाती है कि आप भी राजा की प्रशंसा में ‍कविता लिखें। तब सुदामा कई तरह के उपदेश देकर इनकार कर देता है। फिर उसकी पत्नी कहती है कि आपने ब्राह्मण धर्म का तो विवेचन कर दिया परंतु क्या आप एक पति और पिता के धर्म का भी विवेचन करेंगे? तब सुदामा कहता हैं- हां पति का धर्म है स्त्री की रक्षा करना, उसका दुख बांटना और उसको सुखी रखना और पिता का धर्म है बच्चों का लालन-पालन करना, उन्हें स्वस्थ रखना, शिक्षा दिलाना और उनको अच्छा मानव बनाना।
 
यह सुनकर उसकी पत्नी फिर पूछती है- क्या आप एक पति और पिता होने के नाते उनके धर्म का पालन करने में सफल रहे हैं? यह सुनकर सुदामा चौंक जाता है और असमंजस में पड़ जाता है तब उसकी पत्नी कहती है- मुझे क्षमा कीजिये स्वामी, मैं आपका अपमान करना नहीं चाहती हूं परंतु मैं अपने बच्चों के मुरझाए पुष्प के समान चेहरे नहीं देख सकती हूं। फिर वह कहती है- स्वामी ये दीप देखा आपने। इसे जलने के लिए तेल की आवश्यकता होती है। ठीक उसी प्रकार हमारे बच्चों को बड़े होने के लिए अन्न की आवश्यकता है। स्वामी तेल समाप्त होने पर दीप बुझ जाता है। स्वामी कहीं ऐसा ना हो की... तभी सुदामा कुछ कहने से रोक देता है और कहता है अधिक कहने की आवश्यकता नहीं मैं चक्रधर के साथ राजा के पास अवश्य जाऊंगा। यह सुनकर उसकी पत्नी प्रसन्न हो जाती है।
 
फिर सुदामा चक्रधर के साथ राजा के दरबार में जाता है। वहां वह वैभव ही देखता रहता है तो चक्रधर उसका हाथ पकड़कर आगे ले जाता है। फिर एक जगह वह रुककर सुंदर खंभे ही देखने लगता है तो श्रीधर को उसकी ये हरकत पसंद नहीं आती है और वह कहता है क्या देख रहे हो सुदामा जल्दी-जल्दी पांव उठाओ। यदि हमें देर हो गई तो राजा नाराज हो जाएगा और हमारा काम नहीं होगा। देखो सुदामा ये तुम्हारे लिए सुनहरा अवसर है तुम अपनी काव्य कला से राजा को खुश कर देना। यह सुनकर सुदामा कहता है कि मुझे तो लग रहा है कि तुम मेरी आत्मा की बली चढ़ाने मुझे ले जा रहे हो। इस पर चक्रधर कहता है कि जब सोने की मोहरों की थैली मिलेगी तब तुम ऐसा नहीं कहोगे। यह सुनकर सुदामा कहता है- लगता है तुमने अपनी आत्मा को राजा के यहां गिरवी रख दिया है। यह सुनकर चक्रधर कहता है- बंद करो अपना प्रवचन। भलाई का तो जमाना ही नहीं रहा, अब चलो जल्दी। फिर वह सुदामा का हाथ पकड़कर ले जाता है। सुदामा बीच-बीच में उसे ले जाने से रोकता है परंतु वह खींचकर ले जाता है। 
 
वहां पर राजा को एक महिला उसके बालों को सहलाते हुए मदिरापान करा रही थी। यह देखकर सुदामा श्रीकृष्ण का जाप करने लगता है और चक्रधर से कुछ कहने का प्रयास करता है तो चक्रधर उसे रोक देता है और कहता है चुप रहो। कुछ बोलने की आवश्यकता नहीं है जो कुछ हो रहा है वह हमारी भलाई के लिए ही हो रहा है। ऐसी बेहोशी में राजा कदाचित एक की जगह दो-दो थैलियां दे सकता है। तभी राजा का ध्यान उनकी ओर जाता है तो चक्रधर उन्हें प्रणाम करता है। यह सुनकर राजा कहता है कौन? तब चक्रधर कहता है- मैं चक्रधर राजेश्वर चक्रधर। यह सुनकर राजा कहता है- अच्‍छा। चक्रधर तुम मुझे दो-दो दिखाई दे रहे हो।
 
यह सुनकर चक्रधर कहता है- राजेश्वर जो दूसरा चक्रधर आपको दिखाई दे रहा है वह है सुदामा, मेरा मित्र। यह सुनकर राजा हंसता है तब चक्रधर कहता है कि सुदामा बहुत विद्वान ब्राह्मण है राजेश्वर। फिर राजा हंसते हुए कहता है- विद्वान ब्राह्मण। सुनकर मन प्रसन्न हुआ चक्रधर। क्या तुम्हारे मित्र ने भी हमारी प्रशंसा में कोई कविता लिखी है? यह सुनकर सुदामा नहीं बोलने वाला रहता है तब चक्रधर उसे रोककर कहता है- जी हां राजेश्वर लिखी है। बहुत अच्छी कविता लिखी है राजेश्वर। तब राजा कहता है और तुमने चक्रधर? चक्रधर कहता है जी हां मैंने भी लिखी है। तब राजा कहता है- सुनाओ चक्रधर। आज कोई ऐसी कविता सुनाओ जिसमें सुरा, सुंदरी और हमारी। तीनों की प्रशंसा का संगम हो। 
 
फिर चक्रधर और सुदामा उसके साथ आए बजाने वाले सहित सभी एक जगह बैठ जाते हैं और फिर चक्रधर गाने लगता है तो दो महिलाएं उसके गान पर नृत्य करती हैं। यह सब माजरा देखकर सुदामा अचंभित होकर बैठा रहता है। राजा की तुलना ईश्‍वर से करके उसकी प्रशंसा की जाती है। फिर राजा उस चक्रधर को स्वर्ण की दो थैली दान करके कहता है तुम्हारे मित्र से कहो कि क्या लिखा है, हमें सुनाएं। फिर चक्रधर सुदामा से गाने का कहता है तो वह मना करता है। चक्रधर कहता है- अरे मूर्ख हो गए हो क्या, राजा की आज्ञा नहीं मानी तो बंदीघर में डाल देंगे। 
 
यह देखकर राजा कहता है- इतनी जल्दी भूल गया। तब चक्रधर कहता है- भूल नहीं गया महाराज भूल नहीं गया। आप नहीं जानते महाराज आप जैसे प्रतापी राजा के समक्ष खड़े होकर बोलने के लिए कितनी हिम्मत चाहिए, कितनी हिम्मत चाहिए। बड़े-बड़े वीरों के होश उड़ जाते हैं महाराज आपको देखकर। यह सुनकर राजा कहता है- ये तो ठीक है। अच्‍छा इसे थोड़ी मदिरा पीला दो। इसे अभी होश आ जाएगा। यह सुनकर सुदामा और चक्रधर दोनों ही घबरा जाते हैं। तब चक्रधर कहता है- होश की बात नहीं महाराज आपके सुंदर रूप का तेज देखकर इसकी आंखें चौंधिया गई है महाराज। 
 
यह सुनकर राजा कहता है- यह तो ठीक है हमारा तेज देखकर कौन सहन कर सकता है। अच्छा चक्रधर इससे कहो कि यदि हमारे रूप का तेज सहन नहीं होता तो आंखें बंद करके हमें कविता सुनाएं। अब देर मत करो, हम आज्ञा देने के बाद प्रतीक्षा करने के आदि नहीं। अरे सुनाओ सुदामा सुनाओ। यह सुनकर चक्रधर धीरे से सुदामा से कहता है- अरे मूर्ख मरवाएगा हमें साथ में, जल्दी से सुना दे बाबा फांसी के फंदे पर लटकवाएगा क्या? तब सुदामा कहता है- मैंने कुछ नहीं लिखा चक्रधर। तब चक्रधर कहता है- अबे जो याद है वही सुना दे। तब सुदामा कहता है- मुझे कुछ दोहे याद है। तब चक्रधर कहता है- वही सुना दे इस अवस्था में उसे क्या समझ में आएगा। 
 
फिर राजा क्रोधित होकर कहता है- अरे सुनाओ सुदामा सुनाओ। तब सुदामा सुनाना प्रारंभ करता है। सुन राजा अब त्याग दे झूठा मान गुमान, दो दिन के सब ठाठ है, दो दिन की ये शान। के भजले हरि-हरि ओ के भजले हरि-हरि। सुन राजा के भजले हरि-हरि।...यह सुनकर चक्रधर वहां से जाने लगता है तो सुदामा उसका हाथ पकड़कर अपना भजन जारी रखता है। राजा भी यह सुनकर अचंभित होकर सुदामा को देखने लगता है।... सुदामा कहता है- कल राजा कोई और था और कल होगा कोई और। किसी एक के शीष पर सदा रहे ना मोर। के भजले हरि-हरि। सुन राजा के भजले हरि- हरि। ओ मूरख भजले हरि-हरि। 
 
यह सुनकर राजा क्रोधित हो जाता है। चक्रधर यह देखकर कर भयभित हो जाता है परंतु सुदामा गाता रहता है और उसके गीत में राजा के गुणगान की बजाए यह संदेश रहता है कि यह जीवन तो चार दिन की माया है इसलिए हरि का भजन कर ले। भोग-विलास तो सर्वशान के मूल है तू पछताएगा। 
 
राजा मदिरा पीता हुआ यह गीत सुनता रहता है और अंत में क्रोधित होकर कहता है- बंद करो ये बकवास। फिर वह कहता है कोई है? तभी वहां कुछ सैनिक आ जाते हैं। वह सैनिकों से कहता है- ये मूरख हमें मृत्यु का द्वार दिखाने आया है। इसे ही मृत्यु के द्वार तक ले जाओ और महल की छत से नीचे फेंक दो। यह सुनकर सुदामा और चक्रधर दोनों ही भयभित हो जाता है। 
 
फिर सैनिक सुदामा को पकड़कर उसे ले जाने वाले रहते हैं तब चक्रधार महाराज के चरणों में गिरकर कहता है- नहीं महाराज इसे क्षमा कर दीजिये। इस बैचारे को क्षमा कर दीजिये। ये तो महामूर्ख है। दरअसल, ये पागल हो गया है। गरीबी ने इसे पागल कर दिया है। ये अपने होश में नहीं है महाराज। यह सुनकर राजा कहता है तो एक पागल को हमारे सामने क्यों ले आए? तब चक्रधर कहता है कि महाराज इसकी गरीबी पर मुझे तरस आ गया था। पिछले तीन दिन से इसके बच्चे और इसकी पत्नी ने भोजन नहीं किया महाराज। मैंने सोचा आप तो गरीबनवाज हैं।... यह सुनकर राजा प्रसन्न हो जाता है।
 
तब आगे चक्रधर कहता है कि आपकी कृपा दृष्टि यदि इस पर पड़ गई तो ये निहाल हो जाएगा महाराज। लेकिन मैं ये क्या जानता था महाराज की आज फिर इस पर पागलपन का दौरा पड़ जाएगा। ये मर गया महाराज तो इसके साथ इसके बच्चे और इसकी पत्नी भी मर जाएगी और इससे आपका अपयश होगा महाराजा। प्रजा आपके बारे में कहती है कि आप भगवान से भी अधिक दयावान हैं। भगवान भी जिनको क्षमा नहीं करते आप तो उनको भी क्षमा कर देते हैं महाराज।... राजा अपनी ये प्रशंसा सुनकर प्रसन्न हो जाता है और कहता है कि क्षमा कर दो इसे छत से फेंको नहीं, केवल धक्के मारकर बाहर निकाल दो।
 
फिर सुदामा को मार-मार कर महल के बाहर फेंक दिया जाता है। फिर राजा चक्रधर से कहता है- चक्रधर हम बहुत प्रसन्न हैं। तुमने हमें भगवान से भी अधिक दयावान बना दिया है।... फिर राजा अपनी एक अंगुठी निकालकर चक्रधर को दे देता है। फिर चक्रधर महाराज की जय हो के नारे लगाता हुआ अपने साथियों के साथ वहां से चला जाता है। 
 
उधर सुदामा को महल के बाहर फेंक दिया जाता है। यह दृश्य देखकर रुक्मिणी की आंखों में आंसू आ जाते हैं। सुदामा जैसे-तैसे उठकर पुन: श्रीकृष्ण का जाप करते हुवे वहां से चला जाता है। तब रुक्मिणी श्रीकृष्ण की ओर देखकर हाथ जोड़े पूछती है- प्रभु इनके दु:ख की भी कोई सीमा है कि नहीं? कहीं अंत होगा या नहीं? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- अंत होगा नहीं देवी हो गया है। तब रुक्मिणी पूछती है- मैं समझी नहीं प्रभु? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये उसकी अंतिम परीक्षा थी। दु:ख की चरम सीमा पार करने के पश्चात ही प्राणी सुख की सीमा में पहला कदम रखता है। यह सुनकर प्रसन्न होकर रुक्मिणी कहती है- तो इसका अर्थ है कि सुदामा के दु:ख के दिन समाप्त हो गए और सुख के दिन आ गए? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- सुख के दिन आ नहीं गए, आने वाले हैं। उसके लिए बुद्धि और मति में अब बदलाव होने वाला है। अब देखो यही होने वाला है सुदामा के साथ।
 
फिर सुदामा को अपने घर में पलंग पर लेटे कराहते हुए दिखाया जाता है। उसकी पत्नी उसके घावों पर गरम पानी की पट्टी से सफाई करती है और कहती है- मुझे क्षमा कर दो ये सब मेरा ही दोष है। न मैं आपको वहां जाने पर विवश करती और ना आप घायल होते। तब सुदामा कहता है कि यह पूर्वजन्मों का फल है तुम्हारा दोष नहीं। जब तक कर्म का फल नहीं भोग लेते तब तक प्राणी को मोक्ष नहीं मिलता है।
 
यह सुनकर उसकी पत्नी कहती है कि मुझे मोक्ष की आवश्‍यकता नहीं मुझे तो मेरे बच्चों को लिए थोड़े से अधिक अन्न की आवश्यकता है। आपको एक ऐसी स्त्री की वेदना का ज्ञान नहीं हो सकता जिसकी आंखों के सामने उसके बच्चे भूखे पेट सिसक-सिसक कर सो गए हों। जिसका पति धन कमाने गया था परंतु एक निर्दयी राजा के हाथों घाव लेकर आ गया है। ऐसी मां और ऐसी पत्नी की पीड़ा का ज्ञान आपके किसी शास्त्र में नहीं लिखा होगा। ये समझने के लिए आपको वो शास्त्र छोड़कर जीवनशास्त्र पढ़ना होगा। जीवशास्त्र पढ़िये नाथ और जो मैं कहती हूं उस पर विश्‍वास कीजिये मुझसे अब और सहा नहीं जाता। यह सुनकर श्रीकृष्ण चौंक जाते हैं। जय श्रीकृष्णा। 
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 

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