निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 6 अगस्त के 96वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 96 ) में नारदमुनि जब सत्यभामा को ये बताते हैं कि प्रभु ने रुक्मिणी को पारिजात वृक्ष का एक पुष्प दिया है और वह भी अब चिरयौवना हो जाएगी तो सत्यभामा के मन में ईर्ष्या जागृत हो जाती है और वह समझती है कि श्रीकृष्ण ने मेरे साथ छल किया है। तब वह क्रोधित होकर श्रीकृष्ण से स्वर्ग से पारिजात वृक्ष को धरती पर लाने की मांग करती है।
सत्यभामा कहती हैं कि देवलोक में तो आपने वह पुष्प मुझे भेंट नहीं किया और चोरी-चोरी लाकर वही पुष्प देवी रुक्मिणी को भेंटकर दिया। इसका अर्थ तो यही हुआ ना कि आप देवी रुक्मिणी को ही सबसे अधिक चाहते हैं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये तुम्हारा भ्रम है सत्यभामा। यह सुनकर सत्यभामा कहती है कि ये भ्रम नहीं द्वारिकाधीश यह सच है। मैं ही पागल थी जो सदा यह सोचा करती थी कि मैं ही वासुदेव के सबसे निकट हूं। नारी जिसे सबसे अधिक प्रेम करती है वह उसके प्रेम का बंटवारा नहीं सह सकती है। श्रीकृष्ण कहते हैं- मैंने कभी असत्य नहीं बोला सत्यभामा। वास्तविकता क्या है यह जानना का प्रयास तुमने कभी नहीं किया। यह सुनकर सत्यभामा कहती है कि वास्तविकता यह है कि दीदी के कल्याण के लिए आपने पारिजात का पुष्प उन्हें दिया, मुझे नहीं।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि नहीं वास्तविकता तो ये है कि तुमने देवलोक में जब पारिजात का दर्शन किया था। उसके पुष्प भी देखे थे और उसकी सुगंध से भी परिचित थी। परंतु रुक्मिणी ने तो पारिजात के गुणों का अवलोकन नहीं किया था वह तो देवलोक के वातावरण से अपरिचित थी। इसलिए जब देवराज इंद्र ने मुझे जब वह फूल दिया तो मैंने सोचा कि उसे भी तुम्हारे जैसे सौभाग्य की अनुभूति मिले। इसमें तुम्हारे अकल्याण की बात कहां है? इसमें तुम्हें तुम्हारा अपमान लगता है तो मैं तुम्हें देवलोक से सारे पारिजात के पुष्प लाकर दे दूंगा।
इस पर सत्यभामा कहती है कि अब मुझे पारिजात के पुष्प नहीं चाहिए, मुझे तो पारिजात का वृक्ष ही चाहिए। वासुदेव यदि आप मुझसे प्रेम करते हैं तो मुझे पारिजात का वृक्ष ही लाकर दीजिये। मैंने उसकी छाया में पुण्यतव्रत करने का संकल्प किया है अन्यथा मुझे आज्ञा दीजिये मैं तपस्या करने जाना चाहती हूं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि तुमने पुण्यतव्रत करने का संकल्प कर ही लिया है तो नि:संदेह में पारिजात का वृक्ष लाकर तुम्हारे उद्यान में रोपित कर दूंगा। अब तो प्रसन्न हो जाओ सत्यभामा। यह सुनकर सत्यभामा प्रसन्न हो जाती हैं।
उधर, नारदमुनिजी कहते हैं- प्रभु आपकी लीला बड़ी न्यारी है। एक ओर आपने देवी सत्यभामा के अहंकार को चरम पर पहुंचा दिया और अब आप उन्हीं के लिए पारिजात लाने की योजना बना रहे हैं। वैसे ठीक ही है देवराज इंद्र के अहंकार को भी तो समाप्त करना है।
उन्होंने भी भगवान शंकर को पारिजात वृक्ष देने से इनकार कर दिया था।
उन्हें इस धृष्टता का दंड तो मिलना ही चाहिए। वाह प्रभु कैसी लीला रचाई है एक तीर और लक्ष्यभेद दो...नारायण नारायण।
फिर श्रीकृष्ण
नारदजी को बुलाकर कहते हैं कि देवी सत्यभामा पारिजात वृक्ष की छाव में पुण्यतव्रत का अनुष्ठान करना चाहती है इसलिए आप देवलोक जाकर मेरी और से देवराज इंद्र से विनती करनी होगी कि वो पारिजात वृक्ष को सत्यभामा के उद्यान में लगवा दें। यह सुनकर नारदमुनि कहते हैं कि प्रभु परंतु मुझे संदेह है। देवराज आपकी इस विनती को स्वीकार नहीं करेंगे। देवराज तो भगवान शंकर को भी उस वृक्ष को एक बार देने से मना कर चुके हैं। उन्होंने भी तो माता पार्वती के पुण्यतव्रत के लिए पारिजात मांगा था। यह सुनकर सत्यभामा चौंक जाती है। फिर नारदमुनि कहते हैं- भगवन क्या देवलोक की नीधी को पृथ्वीलोक पर लाना उचित होगा? क्या आप क्षीरसागर को पृथ्वीलोक पर लाने की सोच सकते हैं? क्या ये विधि के विधान के विरुद्ध ना होगा भगवन?
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- देवर्षि आपका कथन भी उचित है परंतु मैंने तो देवी सत्यभामा को पारिजात वृक्ष को लाने का वचन दे दिया है। अब यह भी तो संभव नहीं कि मेरा दिया हुआ वचन झूठा हो जाए। यह सुनकर सत्यभामा श्रीकृष्ण की ओर देखने लगती है तब श्रीकृष्ण कहते हैं यदि ऐसा हुआ तो संसार से सत्य का नाश हो जाएगा। इसलिए आप इंद्र को मेरा संदेश जाकर दें।...नारदमुनि कहते हैं जो आज्ञा प्रभु। ऐसा कहकर नारदमुनि वहां से चले जाते हैं।
तब नारदमुनि यह संदेश इंद्र को सुनाते हैं तो इंद्र कहते हैं- मृत्युलोक में पारिजात की कामना? तब नारदमुनि कहते हैं- हां श्रीकृष्ण का तो यही कहना है। तब देवेंद्र यह कहते हैं कि तो क्या वे ये नहीं जानते हैं कि इस समय वे मनुष्य योनी में हैं और पृथ्वी पर वास कर रहे हैं। देवलोक को अमरता देने वाले पारिजात को मैं पृथ्वी पर कैसे भेज सकता हूं? यदि पारिजात पृथ्वी पर चला गया तो भूलोक और स्वर्गलोक में अंतर ही क्या रह जाएगा? मृत्युलोक में फिर देवता बनने की कामना ही कौन करेगा?
कई तरह की बात करने के बाद इंद्र पारिजात वृक्ष देने से स्पष्ट इनकार कर देते हैं। नारदमुनि समझाते हैं कि जिन्हें तुम पारिजात देने से इनकार कर रहे हो वह साक्षात विष्णु हैं। उन्होंने ही अवतार लेकर पृथ्वीलोक की रक्षा की है। समुद्र मंथन के समय जो भी रत्न मिले थे वह स्वयं विष्णु ने ही तो देवलोक को दान किए थे।...लेकिन इंद्र किसी भी तरह नहीं मानते हैं और पारिजात देने से इनकार कर देते हैं और कहते हैं कि द्वारिकाधीश को यही संदेश दे दें।
फिर देवर्षि नारद श्रीकृष्ण और सत्यभामा के पास जाकर इंद्र द्वारा पारिजात वृक्ष देने से इनकार करने का संदेश देते हैं। यह सुनकर सत्यभामा चौंक कर कहती है- क्या स्पष्ट इनकार कर दिया? नारदमुनि कहते हैं- हां। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अच्छा तो क्या देवेंद्र ये भूल गए कि स्वर्गलोक के सम्मान की रक्षा के लिए मैंने अपना धर्म समझकर नरकासुर से देवलोक की रक्षा की थी। और, क्या ये भी भूल गए कि देवमाता के कुंडल मैंने ही लौटाए थे और अब वे पारिजात देने से इनकार कर रहे हैं। अब तो मैं पारिजात उनसे लेकर ही रहूंगा, चाहे मुझे इसके लिए देवराज इंद्र से युद्ध क्यों ना करना पड़े।
नारदजी ये संदेश इंद्र को सुनाते हैं तो इंद्र कहता है युद्ध! तो क्या दारिकाधीश हमें युद्ध का आमंत्रण दे रहे हैं? यदि ऐसा है तो हम पारिजात की रक्षा के लिए युद्ध के लिए तैयार हैं।...यही समाचार नारदजी श्रीकृष्ण को सुनाते हैं तो वे कहते हैं- ठीक है देवर्षि यदि देवेंद्र युद्ध के लिए तैयार है तो हम भी अवश्य युद्ध करेंगे।
फिर श्रीकृष्ण अपना गरूढ़ वाहन लेकर स्वर्ग के लिए निकल पड़ते हैं। उधर, देवलोक में पारिजात वृक्ष की सुरक्षा बढ़ा दी जाती है। देवलोक के द्वार पर पहुंचकर श्रीकृष्ण अपना पांचजन्य शंख बजाते हैं। उनके शंख की ध्वनि सुनकर इंद्र सहित सभी देवता उठ खड़े होते हैं। फिर वह अपने धनुष की टंकार से इंद्रलोक को गूंजायमान कर देते हैं। फिर वह जैसे ही अपना बाण निकालते हैं तो पारिजात की सुरक्षा कर रहे देव भाग जाते हैं।
फिर श्रीकृष्ण पारिजात के पास जाकर कहते हैं- हे पारिजात मुझे आपको लेकर पृथ्वीलोक पर जाना है। आप मेरे साथ चलने की कृपा कीजिये। तभी वहां पर ऐरावत पर सवार होकर इंद्र आ जाते हैं और कहते हैं- ठहरिये द्वारिकाधीश।...फिर दोनों में वाद-विवाद के बाद अंत में भयानक युद्ध होता है। फिर देवतालोग शंख बजाकर संध्यावंदन की सूचना देते हैं तो इंद्र कहते हैं- द्वारिकाधीश पृथ्वी पर इस समय संध्या हो चली है। युद्ध नीति के अनुसार अभी आपके विश्राम का समय है। कल प्रात: फिर युद्ध शुरू होगा। मेरा आग्रह है कि आप देवलोक में ही मेरे महल में विश्राम करें।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि नहीं देवराज इस समय हम दोनों युद्ध की दीक्षा में है और नीति के अनुसार हम आपका आश्रय नहीं ले सकते हैं और फिर आज तो शिवरात्रि है। भगवान शिव की आराधना का समय है इसलिए हम अभी पारियात पर्वत पर जाकर विधिपूर्वक शिवरात्रि की पूजा करेंगे। यह सुनकर इंद्र कहते हैं- जैसी आपकी इच्छा प्रभु।
फिर श्रीकृष्ण पारियात पर्वत पर जाकर शिव की आराधना करते हैं और कहते हैं- हे महादेव आपके दर्शन की बड़ी लालसा है कृपया आप मुझे अपने दर्शन दें। तब वहां पर भगवान शंकर शिवलिंग के रूप में प्रकाट होते हैं। फिर श्रीकृष्ण शिवलिंग का जलाभिषेक करने के लिए माता गंगा का आह्वान करते हैं। आसमान से गंगा की धारा शिवलिंग पर गिरने लगती है। फिर वहां सभी तरह की पूजन सामग्री एकत्रित हो जाती है और तब श्रीकृष्ण शिवलिंग की पूजा और स्तुति गान करते हैं। उनकी स्तुति गान से प्रसन्न होकर शिवजी शिवलिंग में ही प्रकट होकर कहते हैं- वासुदेव मैं प्रसन्न हूं। आपने मेरे प्रिय स्त्रोत से मेरी आराधना की है। जिस पर्वत पर आपने मेरी आराधना की है उस पर्वत पर मेरा रूप विल्वेश्वर के नाम से जाना जाएगा। बोलिये प्रभु मेरे योग्य क्या सेवा है? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- भगवन आप तो मेरे ईष्ट हैं आपसे सेवा नहीं आशीर्वाद चाहिए।
फिर शिव कहते हैं कि विजय तो आपकी होगी ही परंतु... तब श्रीकृष्ण कहते हैं- परंतु क्या आदिदेव? तब भगवान शंकर कहते हैं यही की मैं आपके और देवराज इंद्र के युद्ध को देख रहा हूं। आप इंद्र पर घातक वार नहीं कर रहे हैं। मुझे तो ऐसा लग रहा है कि आप उसकी रक्षा कर रहे हैं वासुदेव। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां देव। मेरा उद्देश्य इंद्र का पराभव करना नहीं है। मैं तो उनके अहंकार का नाश करना चाहता हूं। मैं पहले भी गोवर्धन पर्वत पर उसका ये अहंकार नष्ट कर चुका हूं। फिर भी उसने आपको भी पारिजात देने से इनकार कर दिया था। इस समय वो मुझे भी पारिजात देने से मना कर रहा है और स्वयं को एक सर्वोच्च सत्ता के रूप में प्रतिष्ठित कर रहा है। बस मैं उसके इसी अहंकर को तोड़कर पारिजात का वृक्ष पृथ्वीलोक पर ले जाना चाहता हूं। उसी के लिए आप मुझे आशीर्वाद दीजिये। भगवान शंकर कहते हैं- अवश्य कल आप पारिजात के साथ ही पृथ्वीलोक पर जाएंगे वासुदेव।
फिर प्रात: पुन: इंद्र और श्रीकृष्ण में भयानक युद्ध प्रारंभ होता है। अंत में इंद्र अपना वज्र ही श्रीकृष्ण पर छोड़ देता है तब श्रीकृष्ण तक्षण ही सुदर्शन चक्र को उसकी ओर भेजते हैं। सुदर्शन चक्र वज्र को निकल जाता है। यह देखकर इंद्र अचंभित हो जाता है। फिर वह चक्र इंद्र की ओर बढ़ने लगता है तो यह देखकर इंद्र भयभित हो जाता है वह चक्र जैसे ही इंद्र के नजदीक आता है तो वहां पर चक्र और इंद्र के बीच देवमाता प्रकट होकर कहती है पुत्र कृष्ण ये क्या कर रहे हो? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- रुक जाओ सुदर्शन। सुदर्शन वहीं स्थिर हो जाता है।
फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- प्रणाम देवमाता। तब देवमाता कहती है- अपने ही भाई को समाप्त कर डालोगे? क्या तुम्हें याद दिलाने की आवश्यकता है कि वामन अवतार के समय मैंने ही तुम्हें जन्म दिया था। अरे इंद्र के पराभव से तो इंद्र का सम्मान ही नष्ट हो जाएगा। कृष्ण ये युद्ध रोक दो। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- जो आज्ञा देवमाता। फिर श्रीकृष्ण अंगुली को उपर उठाते हैं तो सुदर्शन पुन: उनकी अंगुली पर लौटकर स्थिर हो जाता है।
फिर देवमाता कहती हैं कि मैं तुम्हें पारिजात का वृक्ष प्रदान करती हूं परंतु इसका विधान ये होगा कि जैसे ही सत्यभामा का पुण्यतव्रत पूरा होगा ये वापस देवलोक में आ जाएगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- आपकी आज्ञा शीरोधार्य है देवमाता। फिर इंद्र कहते हैं मुझे क्षमा करो द्वारिकाधीश। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- लो देवराज मैं आपका वज्र वापस लौटाता हूं।... फिर सुदर्शन चक्र में से वज्र निकलकर इंद्र के पास चला जाता है और फिर सुदर्शन चक्र अदृश्य हो जाता है। फिर श्रीकृष्ण पारिजात के वृक्ष को गरुढ़ पर विराजमान करके पृथ्वीलोक में ले जाते हैं। जय श्रीकृष्णा।