निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 7 अगस्त के 97वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 97 ) में भगवान श्रीकृष्ण जब इंद्र को युद्ध में पराजित कर देते हैं तो देव माता इस शर्त पर पारिजात का वृक्ष श्रीकृष्ण को दे देती हैं कि सत्यभामा जब अपना पुण्यकव्रत पूरा कर लेंगी तब यह वृक्ष पुन: स्वर्गलोक लौट आएगा।
उधर, देवर्षि नारदमुनि सत्यभामा को यह सूचना देते हैं कि श्रीकृष्ण देवलोक से पारिजात का वृक्ष लेकर लौट रहे हैं। और देवर्षि सत्यभामा को श्रीकृष्ण और इंद्र के युद्ध का वर्णन सुनाते हैं और कहते हैं कि देवमाता ने ये वृक्ष प्रदान किया है ये कहकर की व्रत के बाद वृक्ष पुन: लौटना होगा। फिर देवर्षि कहते हैं कि देवी पार्वती के लिए भी जो हो न सका वह आपके कहने पर हुआ है। इससे यह सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण आपसे सर्वाधिक प्रेम करते हैं। सत्यभामा यह सुनकर प्रसन्न हो जाती है और अपनी दासियों को श्रीकृष्ण के स्वागत करने का कहती हैं और फिर सत्यभामा श्रीकृष्ण का स्वागत कर उनकी आरती उतारती हैं।
फिर सत्यभामा कहती हैं श्रीकृष्ण से कि देवर्षि ने हमें सबकुछ बता दिया है।...हां आप ठीक ही कहते हैं कि यह सचमुच मेरी ही जीत है। इस एक बात से आपने सिद्ध कर दिया कि द्वारिकाधीश की प्रिय पत्नी केवल मैं ही हूं। अब देखना सब रानियां मेरे आगे पानी भरेंगी। ये मेरी विजय है, पूर्ण विजय। अब मुझे और कुछ नहीं चाहिए। मुझे अब इस बात की भी चिंता नहीं कि पारिजात का वृक्ष कुछ समय ही मेरे पास रहेगा। मेरा उद्देश्य पूरा हो गया और अब आप चाहें तो पारिजात का वृक्ष कल ही वापस दे दें।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- देवी ऐसा अनर्थ ना करना, जग हंसाई होगी। ये पारिजात का वृक्ष तुम्हारे पुण्यतव्रत के लिए प्रदान किया गया है। व्रत किए बिना उसे लौटा दोगी तो लोग हम दोनों पर हंसेंगे। सब यह कहेंगे कि सत्याभामा कठपुतली की भांति कृष्ण को अपनी अंगुलियों पर नचा रही है और कठपुतली नहीं कहेंगे तो दास भी कह सकते हैं।... यह सुनकर सत्यभामा कहती है आपको कोई मेरा दास कहे ये सुनने से तो अच्छा होगा की मैं आपके श्रीचरणों में अपने प्राण त्याग दूं। जिन चरणों की मैं दासी हूं उन्हीं चरणों में मुक्ति पाऊं यही मेरी अंतिम इच्छा है। मेरा विश्वास कीजिये मुझसे अधिक प्रेम आपको कोई और नहीं कर सकती। मैं हठ करती हूं तो उसका अर्थ और कोई नहीं है केवल अपने प्रेम के बल पर अपने प्रेम का मौल मांगती हूं। प्यार की इसी जीत के साथ में गर्व और अहंकार से सबके सामने सिर ऊंचा करके सबके सामने खड़ी रहना चाहती हूं।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि सत्यभामा तुमने कितनी सुंदर बात कही। मेरा हृदय गदगद हो गया परंतु।... यह सुनकर सत्यभामा कहती है- परंतु क्या? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं कुछ नहीं। मैं ऐसे ही सोच रहा था कि लोग जो कहा करते हैं कि प्रेम में देना ही होता है लेना कुछ नहीं। समर्पण में अधिकार कैसा? और प्यार में गर्व कैसा, दर्प कैसा और अहंकार कैसा? ये सब धारणाएं तो गलत ही होंगी ना? यह सुनकर सत्यभामा कहती है- बिल्कुल गलत, जिन्होंने कभी प्यार ना किया हो वो प्यार के गर्व को क्या जानें? आपके बारे में तो यही सुनती हूं ना कि आपको किसी से मोह नहीं, किसी से प्यार नहीं, निर्लिप्त, निर्मोही योगेश्वर श्रीकृष्ण। इसीलिए आपको भी ये बात कैसे समझ में आएगी कि प्रेम के अहंकार में कितना आनंद होता है।
यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुरा देते हैं और कहते हैं- तुमने बिल्कुल सच कहा सत्यभामा अब मुझे पता चला कि प्रेम में अहंकार की बातें क्यों मुझे समझ में नहीं आती। वास्तव में ये जो संन्यासी, योगी और निर्मोही लोग होते हैं ना, इन्हें प्यार-व्यार का कोई ज्ञान नहीं होता ये बड़े अज्ञानी लोग होते हैं। यह कहकर श्रीकृष्ण हंस देते हैं तब सत्यभामा कहती है- तो हे! अज्ञानी महाराज प्यार करना सीखिये। देखिये मेरी ओर और विश्वास कीजिये कि मैं आपसे क्रोध कर सकती हूं, हठ कर सकती हूं परंतु एक पल का भी आपसे विरह सहन नहीं कर सकती हूं। यदि कोई आपको मुझसे ले जाए तो आपके चरणों की सौगंध मेरे प्राण भी आपके साथ जाएंगे। मैं उसी समय अपना जीवन त्याग दूंगी।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- ऐसी शुभ घड़ी में ऐसी अशुभ बातें क्यों कर रही हो देवी? अब तो तुम्हें अपने पुण्यतव्रत के अनुष्ठान का आयोजन तुरंत करना चाहिए। तुम्हारे प्रेम की इतनी बड़ी जीत हुई है तो उसका आयोजन भी उतना ही बड़ा होना चाहिए। यह सुनकर सत्यभामा कहती है कि वही तो मैं कर रही हूं। ऐसा आयोजन करवाऊंगी कि आज तक किसी ने न देखा होगा और न सुना होगा। उसके लिए मैंने स्वयं देवर्षि नारद से इसके लिए प्रार्थना की कि वे इसका अनुष्ठा विधि पूर्वक करवाएं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- बस तो हो गया तुम्हारा काम वो तो समस्त विधियों के ज्ञाता हैं। परंतु जैसा वो कहें वैसा ही करना अन्यथा वह ऋषि बड़ा मनमौजी है। बीच में ही छोड़कर चल देगा। यह सुनकर सत्यभामा कहती है कि ऐसा कैसे हो सकता है ये कृष्ण पत्नी सत्यभामा का व्रत है। कोई उसे छोड़कर नहीं जाएगा। बस आप देखिये की व्रत का शुभारंभ कैसा होता है।
फिर पुण्यकव्रत का भव्य आयोजन होता है देवर्षि नारद स्वयं इस व्रत को कराने के लिए इसके पुरोहित बनते हैं और वे विधिपूर्वक पहले गणेशजी का पूजन करवाते हैं और गणेशजी की स्तुति का गान करते हैं। रुक्मिणी, जामवंती आदि सभी वहां उपस्थित रहते हैं। गणेश स्तुति के बाद वे पारिजात वृक्ष का पूजन करवाते हैं और सत्यभामा से कहते हैं कि आप अपने व्रत की सफलता के लिए पारिजात वृक्ष से आशीर्वाद मांगिये। वृक्ष स्वत: ही लहराकर आशीर्वाद देता है और उसका एक पुष्प सत्यभामा के हाथ में गिर जाता है। सत्यभामा ये देखकर प्रसन्न हो जाती है। फिर नारदमुनि यज्ञ का संकल्प करवाते हैं।
फिर नारदमुनि कहते हैं कि इस यज्ञ के संकल्प के दौरान विधान के अनुसार कुछ दान भी करना पड़ता है। यह सुनकर सत्यभामा कहती है दान? तब नारदजी कहते हैं- हां दान। तब सत्यभामा अहंकार से कहती है- कहिये क्या दान चाहिए और कितना दान कर दूं? तब नारदजी कहते हैं- कितना दान करने की बात नहीं हैं देवी। दान का महत्व या दान का मोल मात्रा से नहीं तोला जाता, भावना से तोला जाता है देवी। तब सत्यभामा कहती है- अर्थात? तब नारदजी कहते हैं कि अर्थात ये कि ये मृत्युलोक वास्तव में कर्मलोक है। यहां कर्म करने से यज्ञ, व्रत आदि धार्मिक कर्म करने का फल अवश्य मिलता है, सिद्धियां भी मिलती हैं। परंतु हर फल की, हर सिद्धि की कीमत किसी न किसी दूसरे रूप में देनी ही पड़ती है। सो जब मानव अपने भाग्य से कुछ अधिक पाना चाहता है तो उसे किसी दूसरी शकल के रूप में उसके बराबर की कीमत अवश्य देनी पड़ती है, दान देने का यही भाव है।
यह सुनकर सत्यभामा कहती है- तो बोलिए अपनी कामना सिद्धि के लिए मुझे कितनी कीमती देनी होगी? कितना सोना, कितने रत्न, कितने आभूषण? जो चाहिए जितने चाहिए मैं उतना दान करने के लिए तैयार हूं। तब नारदजी कहते हैं कि पुण्यकव्रत की सिद्धि के लिए इसका ऐसा विधान है कि जो वस्तु आपको सबसे अधिक प्रिय हो उसी का दान करना पड़ता है।... यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराने लगते हैं तब नारदजी कहते हैं कि सो आप ये बताइये कि इस संसार में आपको सोना, मोती, हीरे, आभूषण यही सबसे अधिक प्यारे हैं?
यह सुनकर सत्याभमा सोच में पड़ जाती है। रुक्मिणी, जामवंती और श्रीकृष्ण सभी सत्यभामा के चेहरे की ओर देखते हैं तब सत्यभामा कहती है- नहीं। तब नारदजी कहते हैं तो फिर आपको इस संसार में सबसे अधिक प्यारा क्या है? यह सुनकर सत्यभामा कहती है- सबसे अधिक प्यारा? इस पर नारदजी मुस्कुराते हुए कहते हैं- हां हां सबसे अधिक प्यारा सोचिये, क्या है और कौन है जो आपको सबसे अधिकर प्यारा हो?
तब सत्यभामा सकुचाते हुए कहती है कि मेरे लिए संसार में सबसे अधिक प्यारा केवल एक ही है मेरे पति द्वारिकाधीश। यह सुनकर श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं और नारदजी खुश होकर कहते हैं- नारायण नारायण, तो बस तय हो गया देवी। यह सुनकर सत्यभामा चौंक जाती है तब नारदजी कहते हैं- आपको मुझे द्वारिकाधीश ही दान करना पड़ेंगे। यह सुनकर सत्यभामा अचंभित होकर कहती है- क्या? श्रीकृष्ण मुस्कुरा देते हैं। नारदजी अत्यंत प्रसन्न होकर देखते हैं। फिर सत्यभामा श्रीकृष्ण की ओर देखती हैं तभी नारदजी लोटे में से एक चम्मच में जल निकालकर सत्यभामा से कहते हैं- लीजिये दान का संकल्प कीजिये।
यह सुनकर सत्यभामा घबराकर कहती है- द्वारिकाधीश का दान! देवर्षि ये आप क्या कह रहे हैं? मैं इसलिए तो ये व्रत कर रही हूं कि मुझे मेरे पति का सबसे अधिक प्रेम मिले और मैं उन्हीं का दान कर दूंगी तो मैं उनका प्रेम कैसे पाऊंगी? ये आपके दान की कैसी रीति हैं? यह सुनकर नारदजी कहते हैं कि ये दान की रीति नहीं है देवी, ये मृत्युलोक की रीति है। जो मानव जितना अधिक मांगने की चेष्ठा करता है उसे उससे अधिक देना पड़ता है, यही कर्मलोक का विधान है।
यह सुनकर सत्यभामा कहती है- ये कैसा विधान है देवर्षि, जिसके लिए मैं ये यज्ञ कर रही हूं और उसीको मैं खो दूं। मुनिवार क्या उनके बदले में किसी और वस्तु का दान नहीं कर सकती हूं? क्या कोई और उपाय नहीं? तब नारदजी कहते हैं- हां एक उपाय है। देखिये दान तो आपको आपकी सर्वप्रिय वस्तु का ही करना पड़ेगा, किंतु हां ब्राह्मण से दान दी हुई वस्तु फिर से उसे खरीदी भी जा सकती है। यह सुनकर सत्यभामा कहती है- अर्थात? तब नारदजी कहते हैं कि अर्थात ये कि उस वस्तु की जो कीमत ब्राह्मण आपसे मांगें उसे उसकी वो कीमत देकर उससे वह वस्तु वापस ले लीजिये। यह सुनकर सत्यभामा प्रसन्न होकर कहती है- अच्छा ऐसा हो सकता है। तब नारदजी कहते हैं- ये तो व्यापार की बात है देवी। अगर ब्राह्मण मान जाए तो उसे उसकी कीमत दो और वस्तु ले लो।
यह सुनकर सत्यभामा श्रीकृष्ण की ओर देखकर कहती है- तब तो ठीक है। यह सुनकर नारदजी कहते हैं- यदि स्वीकार है तो जल्दी से दान का संकल्प कीजिये। अनुष्ठान की शुभ घड़ी निकली जा रही है। फिर सत्यभामा श्रीकृष्ण को दान करने का संकल्प ले लेती हैं और कहती है कि अपने व्रत के लिए मैं कृष्ण पत्नी सत्यभामा अपने पुरोहित ब्रह्मा पुत्र नारद को अपने पति का दान करती हूं। यह सुनकर रुक्मिणी, जामवंती और श्रीकृष्ण अचंभित हो जाते हैं।
फिर नारदमुनि कहते हैं- अब ये जल द्वारिकाधीश पर छिड़क दीजिये। जैसे ही सत्यभामा जल को द्वारिकाधीश पर छिड़कती है वैसे ही नारदमुनि उछलकर प्रसन्न होकर कहते हैं- नारायण नारायण। द्वारिकाधीश अब यहां खड़े-खड़े क्या कर रहे हो हमारे लिए कुछ काम करो। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- आज्ञा करें स्वामी।
यह सुनकर सत्यभामा आश्चर्य से कहती है- स्वामी? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां स्वामी। तब नारदजी कहते हैं- हमें भूख लगी है। अंदर जाकर हमारे कलेवे का कुछ प्रबंध कीजिये। देखिये चटनी हमें बहुत अच्छी लगती है इसलिए अपने हाथों से हमारे लिए स्वादिष्ट चटनी बनाईये। यह सुनकर हाथजोड़े खड़े श्रीकृष्ण कहते हैं- जो आज्ञा स्वामी। तब नारदजी कहते हैं- चलिये मैं आपको रसोईघर दिखा दूं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- चलिये स्वामी। ऐसा कहकर वे जाने लगते हैं तो सत्यभामा उन्हें रोक लेती हैं और कहती हैं- ये क्या देवर्षि मैंने दान किया है इसका अर्थ ये तो नहीं कि आप द्वारिकाधीश को ही लेकर चले जाएं।
यह सुनकर नारदमुनि हंसते हुए कहते हैं- द्वारिकाधीश! अब आप ही समझाइये देवी सत्यभामा को कि दान क्या होता है। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि दान का अर्थ तो वही होता है मुनिवार जैसा आप कहते हैं। वह यह कि अब आप हमारे स्वामी हैं और हम आपके दास। जैसा आप कहेंगे वैसा ही करना मेरा धर्म है। यह सुनकर सत्यभामा कहती है कि यदि दान का अर्थ यही है तो मुझे नहीं करना ये दान। तब नादरमुनि कहते हैं कि दान नहीं करोगी तो आपका पुण्यतव्रत कैसे सफल होगा। सभी रानियों में सबसे अधिक प्रेम आपको फिर कैसे मिलेगा देवी?
यह सुनकर सत्यभामा आंखों में आंसू भरकर कहती है- मुझे नहीं करना ऐसा पुण्यतव्रत का अनुष्ठान देवर्षि, जिससे मेरा पति ही छीन जाए। मुझे नहीं चाहिए सब रानियों से अधिक प्रेम। मुझे मेरा पति लौटा दो। यह कहते हुए सत्यभामा नारदमुनि के चरणों में बैठकर हाथ जोड़कर कहती हैं- मुझे मेरा पति लौटा दो मुझसे भूल हो गई देवर्षि। मुझे क्षमा कर दो देवर्षि।
यह सुनकर देवर्षि श्रीकृष्ण की ओर देखकर मन ही मन कहते हैं- अब क्या आज्ञा है प्रभु। अब तो इनका अहंकार टूट गया है। आप कहें तो छोड़ दूं? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं देवर्षि नहीं। अभी अहंकार नहीं टूटा। अभी तो केवल ईर्ष्या की दीवार टूटी है। ये केवल भावना का उबाल है, ये भावुकता के आंसू हैं जो मन के उपरी मेल को धो रहे हैं। परंतु मनके गहरे में जो अंतरम है अहंकार की जड़ें वहां तक फैली है। हमें तो अहंकार की जड़ों को उखाड़ना है। तब नारदजी कहते हैं- जैसी आपकी आज्ञा प्रभु।...रुक्मिणी दोनों के मानसिक वार्तालाप को सुन लेती है और कहती है- अच्छा तो ये दोनों मिलकर नाटक कर रहे हैं।
फिर सत्यभामा रोते हुए कहती है- मेरा दान वापस कर दीजिये देवर्षि। तब नारदजी कहते हैं- ये कैसे हो सकता है देवी। दिया हुआ दान कभी वापस लिया जाता है और फिर द्वारिकाधीश जैसी अलौकिक वस्तु का दान पाकर उसे वापिस कर दूं, मैं इतना मूर्ख नहीं हूं देवी। जाइये अपने यज्ञ की तैयारी कीजिये। मैं तनिक रसोई में जाकर जलपान करता हूं। चलो द्वारिकाधीश चलो। यह सुनकर श्रीकृष्ण हाथ जोड़कर कहते हैं- चलिये स्वामी।
लेकिन सत्यभामा श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर कहती है- मैंने कहा ना मुझे नहीं करना कोई यज्ञ-वज्ञ। यह सुनकर नारदमुनि भड़कर कहते हैं- अच्छी बात है मुझे भी ऐसे यजमान की पुरोहिताई करने का कोई चाव नहीं जो अपने वचन पर स्थित नहीं रहे। कभी दान करती है कभी दान वापस मांगती है। सो आपकी इच्छा हो तो यज्ञ की दीक्षा लीजिये नहीं तो इन ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर विदा कीजिये। चलिये भैया हम रसोई में जाकर जलपान करते हैं चलो। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- जी स्वामी। ऐसा कहकर श्रीकृष्ण आगे बड़ जाते हैं तो सत्यभामा पीछे से उनका हाथ पकड़कर खिंचती है तो श्रीकृष्ण कहते हैं- अरे यह क्या कर रही हो स्वामी गुस्सा करेंगे छोड़ो। यह सुनकर सत्यभामा रोते हुए कहती है- स्वामी।
यह देखकर नारदमुनि श्रीकृष्ण का दूसरा हाथ पकड़कर खिंचकर कहते हैं- अरे देवी छोड़िये इन्हें नारायण नारायण। अब ये आपके स्वामी नहीं है हमारे दास हैं। नारदमुनिजी श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर उन्हें खिंचते हुए रसोई घर की ओर ले जाते हैं और सत्यभामा यह देखते ही रह जाती है। फिर सत्यभामा रोते हुए रुक्मिणी के पास जाकर कहती हैं- दीदी अब आप ही कुछ करिये। न मुनिराज मेरी सुनते हैं और न द्वारिकाधीश। उन्हें रोकिये दीदी..उन्हें रोकिये।
यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- अब मैं क्या कर सकती हूं सत्यभामा? और तुमने भी बिना सोचे-विचारे द्वारिकाधीश को दान कर दिया? यह सुनकर सत्यभामा कहती है- मुझे क्षमा कर दीजिये मुझसे भूल हो गई। ईर्ष्या ने मुझे अंधा कर दिया था। मुझे क्षमा कर दीजिये। मैं जानती हूं आपकी बात ना मुनिराज टालेंगे और ना द्वारिकाधीश। इस समस्या का समाधान केवल आप की कर सकती हैं दीदी। मैं आपकी छोटी बहन हूं दीदी। मैंने स्वार्थवश आपसे स्पर्धा करनी चाही, मेरी भूल को क्षमा कर दीजिये दीदी।
यह सुनकर जामवंती कहती हैं- दीदी। बहन सत्यभामा से जो भूल हो गई है उसका फल हम सबको भोगना पड़ेगा। यदि देवर्षि नारद द्वारिकाधीश को साथ ले गए तो हम सब जीते जी ही मर जाएंगी। इस समय आप ही हमारी सहायता कर सकती हैं। यह सुनकर रुक्मिणी कहती हैं- चलो देखते हैं क्या हो सकता है। फिर दोनों रसोईघर की ओर जाने लगती है तो द्वार के पीछे छुपे श्रीकृष्ण और नारद वहां से भाग जाते हैं। जय श्रीकृष्णा।