शास्त्रों में फाल्गुन शुक्ल पक्ष का महत्व विशेष प्रकार की उपासना पूजा के लिए जाना जाता है। फाल्गुल शुक्ल की चतुर्थी को गणेश जी की प्रतिष्ठित प्रतिमा को विधिवत पूजन कर तिल पदार्थों को भोग लगाया जाता है। साथ ही तिलों से हवन करने के बाद व्रत का पारण किया जाता है।
कहा जाता है कि अश्वमेध यज्ञ के समय महाराज सगर ने त्रिपुरासुर युद्ध में भगवान शिव ने और समुद्र मंथन के समय स्वयं भगवान विष्णु ने विघ्नों को रोकने के लिए इस व्रत को किया था।
पयोव्रत प्रतिपदा, मधुकर तृतीया, अविघ्नकर व्रत जिसे मनोरथ चतुर्थी भी कहते हैं, अर्कपुट सप्तमी, कामदा सप्तमी एवं लक्ष्मी-सीताष्टमी सहित अनेक उपासनाएं इस पक्ष के प्रारंभ में की जाती हैं। इसी प्रकार अर्कपुट सप्तमी फाल्गुन शुक्ल पक्ष में सूर्य नारायण की उपासना के लिए विशेष महत्व रखती है।
इस व्रत के एक दिन पहले षष्टी तिथि को ही एक समय भोजन करना चाहिए। इस व्रत में तुलसी पत्र के समान आक के पत्तों का प्रयोग अनेक शारीरिक और मानसिक बीमारियों को दूर करने वाला होता है।
हेमाद्रि ग्रंथ के अनुसार इस तिथि को द्वादस सप्तमी भी कहा जाता है जिसमें भगवान सूर्य के बारह रूपों का पूजन किया जाता है। कहा जाता है कि इस व्रत को करने से जीवात्मा ओजोन परत का भेदन कर सूर्य लोक का निवासी हो जाता है। इसके दूसरे दिन फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को लक्ष्मी सीता अष्टमी रूप में पूजा जाता है।
एक चौकी पर लाल वस्त्र बिछाकर उस पर अक्षतों का अष्टदल कमल बनाना चाहिए जिसमें लक्ष्मी जी एवं जानकी जी की दिव्य मूर्ति स्थापित करके विधिवत पूजन करना चाहिए। सायंकाल उनके समक्ष यथाशक्ति दीपक जलाकर भजन-कीर्तन करके भोजन प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।
इसी तिथि को होलाष्टक भी पूजा जाता है और होली उत्सव की तैयारी प्रारंभ हो जाती है। अत: फाल ्गुन मास के महत्व को ध्यान में रखते हुए इस दौरान विशेष पूजन-अर्चन करना लाभदायी रहता है।
- आचार्य गोविन्द बल्लभ जोशी