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भारत की सुरक्षा व्यवस्था को छद्म धर्मनिरपेक्षता से खतरा

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शरद सिंगी

राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षतावाद की बहस अभी भारत में बड़ी जोर शोर से चल रही है। निःसंदेह किसी भी राष्ट्र में राष्ट्रवाद अपने चरम पर तब होता है जब वहाँ जंग जैसे हालात हों। वहीं धर्मनिरपेक्षता की बातें तब होती हैं जब किन्हीं दो या दो से अधिक समुदायों में या तो वर्चस्व की लड़ाई हो या किन्हीं धार्मिक मुद्दों पर गंभीर मतभेद हों। किन्तु इन दोनों वादों के बीच सामान्यतः आपस में कोई रिश्ता नहीं है।

सच तो यह है कि दुर्भाग्य से भारत में कुछ लोगों ने अपने निजी स्वार्थों की वजह से धर्म और राष्ट्रवाद को आपस में जोड़ दिया है। दूसरा दुर्भाग्य यह भी है कि भारत की कुछ अनपढ़ जनता भी इन स्वार्थी तत्वों की कुटिल चालों को समझने में असमर्थ हैं।  
 
सोचने की बात यह है कि धर्म का राष्ट्रवाद से क्या सम्बन्ध हो सकता है ? सदियों से भारत के राजाओं ने जब भी बाहरी आक्रमणकारियों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी, तब  धर्म कभी भी  बीच में नहीं आया। भारत की अनेक लड़ाइयों का इतिहास देख लें। सन् 1857 की लड़ाई के पहले भी अनेक लड़ाइयां लड़ी गईं। फिर सत्तावन की लड़ाई हो, या बाबू सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फ़ौज की अंग्रेज़ों के साथ लड़ाई हो, या गांधीजी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई हो, अथवा चीन के साथ युद्ध या पाकिस्तान के साथ हुए विभिन्न युद्ध हों, कभी धर्म को आड़े आते नहीं देखा गया। जब जब भी युद्ध हुए, तब तब राष्ट्रवाद उफान पर रहा और धर्म गौण हो गया।

राष्ट्रवाद के तूफान के सामने सभी मुद्दे तिनकों की भांति हवा में उड़ गए। जंग के हालातों में राष्ट्रवाद का उफान पर आना स्वाभाविक भी है और यह भी सच है कि जिन्दा कौमें भी उन्हें ही माना जाता है जिनका खून वतन के दुश्मनों के विरुद्ध खौलता है।  
 
दुर्भाग्य से भारत में आज कुछ नेता ऐसे हैं जिनका खून ही नहीं खौलता। उन्हें ही सेना से सबूत चाहिए? आपको इन्हें पहचानने के लिए दिमाग पर बहुत ज़ोर लगाने की आवश्यकता शायद  नहीं। जिन नेताओं के बयानों के कसीदे दुश्मन देश में पढ़े जा रहे हों और उन्ही बयानों की दुहाई देकर दुश्मन देश का मीडिया अपनी बेगुनाही साबित कर रहा हो तो निश्चित ही मानिये इन नेताओं की सोच गुमराह हो चुकी है। ऐसे में देश में राष्ट्रवाद का अतिरेक होना भी न्यायसंगत ही लगता है जब कि दुश्मन देश का मीडिया हमारे ही नेताओं के बयान सुनाकर हमारी ही सेना और सरकार का मखौल उड़ा रहा हो।  
 
अब उस देश के लोगों की बातें करें जो एक असफल राष्ट्र की श्रेणी में आने के बावजूद भी उस देश के नेता अपने देश की सेना के विरुद्ध यों  जहर नहीं उगलते। पाकिस्तानी सेना के अनुसार तो भारतीय लड़ाकू विमान पकिस्तान में घुसकर बस कुछ पेड़ गिराकर चले गए और उल्टा उसने ही भारत के दो लड़ाकू विमान गिरा दिए। जानते हुए भी कि  यह एक सफ़ेद झूठ है, पाकिस्तान में सेना से सबूत मांगने वाला कोई नहीं। न जनता, न नेता। तो फिर सोचिये भारत में ही ऐसा क्यों ?
 
विडम्बना यह है कि कुछ नेताओं को लगने लगा है कि धर्मनिरपेक्षी दिखने के लिए यह जरुरी है कि  राष्ट्रवादी नहीं दिखा जाये। इसलिए वे  सेना से सबूत मांगते हैं। अब समझ में ये नहीं आता कि सबूत मांगने से आप धर्मनिरपेक्षी कैसे हो जाएंगे? ऐसे ही लोगों को हम छद्मधर्मनिरपेक्षी कह सकते हैं। जैसा कि हमने देखा जब राष्ट्रवाद मुखर होता है तो बाकी सब मुद्दे गौण हो जाते हैं। लोकतंत्र, तानाशाही, समाजवाद, अर्थव्यवस्था, धर्म इत्यादि पर चर्चा सब फुर्सत के काम हैं।

सच तो यह कि धर्म, मृत्यु के पश्चात जीवन के सुधार का मार्ग है किन्तु मंरणोपरांत अपना जीवन सुधारने से पहले क्या वर्तमान जीवन को सुधारना आवश्यक नहीं है। यदि फियादीन बनकर अपने आप को बम से उड़ाकर स्वर्ग में चले जाने की गारंटी होती तो (किसी ने सही ही कहा है कि) अभी तक तो सारे धर्मगुरु सबसे पहले अपने प्राणों का उत्सर्ग कर स्वर्ग में निवास कर रहे होते। किन्तु आश्चर्य तब और बड़ा हो जाता है जब अनपढ़ों को दिग्भ्रमित करते ये धर्मगुरु हमारे पढ़े लिखों को भी मूर्ख बना देते हैं ?
 
कभी लगने लगता है कि ऊपर वाले ने सारे छद्मधर्मनिरपेक्षी भारत के खाते में ही डाल दिए हैं। जो बेशर्मी से अपने निहित हितों को साधने में लगे हैं। इन्हें न तो देश की कोई परवाह है और न ही धर्म की। अपेक्षा करें कि इन चुनावों में इनकी बराबर पहचान होगी और शिकस्त भी। ताकि भारत की सुरक्षा व्यवस्था इनकी कुटिल नज़रों से दूर रहे।

 (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है)
 

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