गृहस्थ जीवन में कई बार ऐसा समय आता है, जब नीरसता अनुभूत होती है। सब कुछ बेमानी लगने लगता है। अकेलापन भले घर में ना हो, लेकिन मन के स्तर पर घटने लगता है। विशेष रूप से ऐसा तब होता है, जब जीवनसाथी आपका मन नहीं समझ पाए।
21वीं सदी के भारतीय घरों में पर्याप्त आधुनिकता के बावजूद पुराने युग के रूढ़िवादी संस्कार जड़ जमाए बैठे हैं, जिनके प्रभावस्वरूप पत्नी या बहू का मुखर होना उसका अवगुण माना जाता है। वो मौन रहे, मुस्कराती रहे, कर्मरत हो, खुश दिखे,' ना' से सर्वथा दूर, 'हां' की अनुगामिनी बनकर रहे। तर्क, वितर्क, इच्छा, राय, परामर्श, निज दृष्टि उसके शब्दकोश में न हों। वो बोले, तो पति की वाणी में चलें, पति की गति से सोचे और काम करें, तो पति की मति से। कुल जमा सार यह कि एक इंसान होकर भी छायावत् रहे। व्यक्ति के तौर पर अस्तित्व है भी, लेकिन व्यक्तित्व की दृष्टि से शून्य। अब भला बताइए, जब आपकी सोच, दृष्टि, वाणी, व्यवहार आदि सभी अन्य से संचालित हों, तो अपना तो कुछ रहा ही नहीं, फिर मन अकेलापन क्यों न महसूस करेगा?
यह अकेलापन कोमल ह्रदया नारी को भीतर तक तोड़ देता है। जिस स्नेहिल रिश्ते को उसने अपना सर्वांग समर्पित कर दिया, उसी से प्रतिफल में ऐसी हार्दिक पीड़ा मिले, तो अंतर्बाह्य में सब कुछ टूट जाता है, बिखर जाता है। जीवन भारस्वरूप हो जाता है।
यदि दूसरे पक्ष को देखें, तो वहां अधिकांश में तो पत्नी से संतुष्टि ही नज़र आती है। कुछ मामलों में (लेकिन अत्यल्प) पत्नी अपने हमसफ़र की व्यावहारिक समस्याओं को समझने में चूक जाती है और उसकी भावनाएं आहत कर जाती है। तब एकाकीपन पति के हिस्से आ जाता है। दोनों ही स्थितियों में 'घर' प्रभावित होता है क्योंकि दोनों की गृह संचालन में समान भूमिका है, दोनों समान रूप से गृहस्थी के आधाररूप हैं।
पत्नी का अकेलापन या तो निरंतर गिरते स्वास्थ्य के साथ मानसिक अवसाद का कारण बन जाता है अथवा किसी अन्य पुरुष में सहारा पाने की ओर प्रवृत्त हो जाता है, जो कई बार चारित्रिक धूमिलता का सबब बन जाता है।
इसी प्रकार पति का एकाकीपन भी अन्य महिला में आसक्ति अथवा व्यसनों की नकारात्मकता में अवलंब खोजता है। दोनों ही पक्ष एकाकी होने की दशा में कष्ट भोगते हैं और गलत मार्ग पर चल पड़ते हैं। घर, 'घर' न होकर यातनागृह बन जाता है।
कितना अच्छा हो कि पति-पत्नी सिर्फ एक बात सदैव याद रखें कि वे परस्पर जीवन साथी बने हैं अर्थात् जीवन भर के साथी और जिसके साथ आजीवन चलना है, उससे कैसा विवाद!
पति इस बात को शिद्दत से महसूस करे कि कैसे पत्नी दिन-रात स्वयं को उसके और परिवार के लिए खर्चती है। कैसे अपने शौक, आनंद और आराम को परे रख घर को सहेजती है। अपनी आंखों के सपने की हत्या कर उसके सपने अपनी आंखों में सजा लेती है।
उसकी प्रगति में अपनी उन्नति मानकर, उसके सुख को अपना सुख जानकर उल्लास के हिमालय पर जा बैठती है। स्नेह और त्याग की ऐसी महान हस्ती से कैसा अहंकार? वो तो पहले ही आपके, बच्चों के और अन्य सभी परिजनों के दायित्वों से बोझिल है। उसे अपने खोखले गुरूर तले और मत दबाइए।
याद रखिए, उसकी खुशी में पूरे परिवार ही नहीं बल्कि संपूर्ण खानदान की खुशी है क्योंकि वह धुरी है सभी की अपेक्षाओं की, आशाओं की, सपनों की और सहारों की। उसके साथ स्नेह व सम्मान से पेश आइए। इससे आपका ही मान बढ़ेगा और इस स्नेहिल रिश्ते की मधुरता न केवल बढ़ेगी बल्कि स्थायी भी हो जाएगी।
इसी प्रकार पत्नी भी पति को अपनी स्त्रीसुलभ सूक्ष्म समझ का उपयोग करते हुए समझे और गृहस्थ जीवन के उतार-चढ़ाव के बीच स्थिरमति हो पति को भावात्मक अवलंब दें।
यही परस्पर स्नेहपूर्ण आदान-प्रदान रिश्ते को मजबूती और घर को सही मायनों में दोनों के सपनों का आशियाना बनाएगा। तब न एकाकीपन होगा, न पीड़ा के झंझावात होंगे, न शिकायतों के सूर होंगे, न उलाहनों के दौर होंगे, न अहंकार, न आंसू क्योंकि तब दिलों के आसमान पर सिर्फ और सिर्फ प्रेम के इंद्रधनुष छाए होंगे।