आदित्य पांडे
मौत का एक दिन मुअय्यन है...अचानक सारी व्यस्तताओं, जिम्मेदारियों, सारे काम, सारी दुनियादारी को पछाड़ते हुए एक खौफ़ सा तारी होने लगा। अचानक वह राह रोककर क्यों खड़ी हो गई जिससे कम से कम अभी तो आंख नहीं मिलानी थी।
पता है कि एक बार उसकी आंखों में देखना है और वह आखिरी आंखें होंगी जो खुद में समा लेंगी लेकिन यूं अचानक? इटली, स्पेन अमेरिका और इनसे पहले चीन से जो आंकड़े आ रहे हैं वे महज आंकड़े नहीं हैं बल्कि ठीक हमारी तरह जीते जागते लोगों की जिंदगी में लग गया पूर्णविराम हैं।
ये आंकड़े अब डरावने इसलिए ज्यादा हैं क्योंकि इनमें अपने आसपास एक घेरा सा महसूस होने लगता है। पिछले दिनों डॉ. विजय सोनी की एक पेंटिंग देख रहा था। जेल की कोठरी में एक कैदी और बाहर रखी एक बाल्टी या कहें बकेट।
कलाकार डॉ. विजय से पूछा कि यह क्या है तो उन्होंने बताया कि आजादी के दीवानों को जब फांसी दे दी जाती तो बिना नहलाए उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाता, कैदियों ने मांग रखी कि यदि मौत के बाद नहीं नहलाया जाना है तो फांसी से पहले नहाने की इजाजत दी जाए। अंग्रेजों ने इसे भी हथियार बना लिया। जिन्हें कल फांसी नहीं भी होनी है उनके बैरक के सामने भी बाल्टी रख दी जाती जो अगले दिन मौत का पैगाम देती, बस यह पता नहीं होता कि यह झूठा है या सच्चा।
बस, वही कोठरी और उसी कैदी की तरह एक छोटे से वायरस ने एक कारा, एक घेरा बना दिया है। इन हालात में मुश्किल नहीं है उन कैदियों की हालत समझना लेकिन यहीं से एक राह भी निकलती है। यहीं से उम्मीद की वह रोशनी भी निकलती है जो बताती है कि कैसे अब इस डर से जीत जाना है। मौत का तो एक दिन मुअय्यन है ही लेकिन उसकी चिंता में आज की नींद नहीं गंवाई जा सकती।
सोचिए कल तक आप जो कुछ भी मांगते थे क्या आज भी आप वही मांग रहे हैं? कल तक जो आपकी प्राथमिकताएं थीं वो आने वाले कल में भी, इस तूफान के बीत जाने पर भी वैसी ही रहेंगी? कल तक आप एक एक पल की फुरसत के लिए जद्दोजहद कर रहे थे आज इतना समय है कि आप समय गुजारने में मुश्किल अनुभव कर रहे हैं।
जिसने कभी पलट कर सोचा नहीं कि यूं अचानक जिंदगी के अंत की बात सामने आ जाएगी तो वह क्या करेगा, वह आज दिन की शुरुआत ही इस बात से कर रहा है कि यह छोटा सा राक्षस किसी दिशा से आ तो नहीं रहा है क्योंकि एक बार आ गया तो इसे 'विकट' रुप धर लेने में कितनी देर लगती है? यकीनन, जब यह दौर थमेगा तब दुनिया वैसी नहीं रहेगी जैसी इससे पहले थी। प्राथमिकताएं बदलेंगी, जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदलेगा, यह पता चलेगा कि हम इस पूरी सृष्टि को अपने कंधे पर लादे नहीं फिर रहे बल्कि इसमें हमारे अंश दशमलव के न जाने कितने पीछे है।