सांसें वेंटिलेटर पर चल रही हैं। वेंटिलेटर की बीप की आवाज से ही मां को इस बात का भरोसा है कि उसका 15 साल का बेटा अभी जिंदा है। पिता दवाइयों का पर्चा लेकर सातवीं मंजिल से नीचे केमिस्ट की दुकान पर गए हैं, डॉक्टर हर 6 घंटों में दवाइयां लिखकर दे रहे हैं। करीब एक हफ्ते से अस्पताल में भर्ती रोहित को डॉक्टरों ने ब्रेन ट्यूमर बताया है। उसका ऑपरेशन हो चुका है, लेकिन कैंसर के कुछ टीशूज को पूरी तरह से नहीं निकाला जा सका, क्योंकि डॉक्टरों का कहना है कि सारे टीशूज निकालने पर रोहित की आंखों की रोशनी हमेशा के लिए चली जाएगी।
ये कहानी है एक सरकारी ऑफिस में फाइलें इधर से उधर करने वाली मां और घरों पर पेंट-पुताई का काम करने वाले पिता के बीमार बेटे रोहित की। बहुत मिन्नतों और कई देवालयों की चौखट पर माथा रगड़ने के बाद रोहित पैदा हुआ था। लेकिन उसका जन्म सातवें महीने में ही हो गया। हालांकि फिर भी जिंदगी कुछ ठीकठाक चल रही थी। मां-बाप ने अपनी इकलौती संतान को लेकर कई सपने देख डाले थे। उन्होंने ये सपना भी देखा कि रोहित बड़ा होगा और पढ़-लिखकर कुछ बनेगा तो उन्हें न सिर्फ किराये के झोपड़ीनुमा मकान से छुटकारा मिलेगा, बल्कि दमे और खांसी से पीड़ित पिता को मकान पोतने वाले बहुत ज्यादा थका देने वाले इस काम से भी निजात मिल सकेगी। मां को भी आराम मिलेगा। लेकिन जिंदगी रोहित की सांसों के साथ ही इस कदर थम जाएगी ये किसी ने सोचा नहीं था।
पेट भरना तो दूर अब तक रोहित के पिता पर कर्जे का बोझ हजारों से लाखों की तक पहुंच गया है। डॉक्टर अब भी कोई जवाब नहीं दे रहे हैं। रोहित बच सकेगा या नहीं। मां और पिता दोनों डॉक्टरों को उम्मीदभरी निगाहों से दिन-रात ताकने के साथ ही लगातार मंदिरों के चक्कर लगा रहे हैं। प्रार्थनाएं कर रहे। उन्होंने अपनी दुआओं में यह तक कह डाला कि ईश्वर हम मां-बाप में से किसी एक को उठा ले, लेकिन रोहित की जिंदगी बख्श दे। कोई चौखट, कोई दरबार ऐसा नहीं था, जहां दोनों ने अपनी नाक न रगड़ी हो।
अस्पताल का पूरा दृश्य रोहित के माता-पिता की जिंदगी, उसकी पीड़ा से बिल्कुल अनजान है। जिन डॉक्टरों को हम आम लोग भगवान मानते हैं, इंसान उनके लिए सिर्फ एक मरीज है। मरीज उनके लिए सिर्फ एक देह जिसके साथ काट-पीट कर वे प्रयोग करते रहते हैं। अगर मरीज बच जाए तो डॉक्टर हमारे लिए भगवान, अगर नहीं बच सके तो मासूम से मासूम मौत को भी हम ईश्वर की इच्छा मान लेते हैं। अस्पताल का स्टाफ अपनी जिंदगी में मस्त है, मरीज की देखरेख उनके लिए सिर्फ एक नौकरी है। जिंदगी और मौत को रोज अपनी नंगी आंखों से देखने वाला अस्पताल का यह स्टाफ इतना आदतन हो जाता है कि उसे खुशी और गम के बीच कोई खाई नजर नहीं आती। वो अस्पताल में आए लोगों के सारे दुख अपने ठहाकों में डूबो देता है। एक तरफ मौत से लड़ती हुई बेबस जिंदगी है तो दूसरी तरफ जिंदगी के इस स्याह पक्ष को नजरअंदाज करता हुआ अस्पताल का स्टाफ। शायद यही जिंदगी का डार्कसाइड है कि एक तरफ कोई हंस रहा है तो दूसरी तरफ दुख ही दुख है।
कई दिनों से बगैर ठीक से कुछ खाए- पिए माता-पिता दिन रात कई दिनों से रोहित के आइसीयू कमरे से बाहर फर्श पर बेटे के उठ खड़े होने का इंतजार कर रहे हैं। जब भी दरवाजा खुलता है उसकी हर आहट पर दोनों उम्मीद और डर के साये के बीच असहाय होकर फूटकर रोने लगते हैं।
रोहित को लेकर अच्छी और बुरी खबर के बीच की आहट से दोनों की सांसें अटक जाती हैं। आखिर होली के ठीक एक दिन पहले डॉक्टरों ने आईसीयू से बाहर आकर कहा—रोहित नहीं रहा। अपने 15 साल के मासूम जिसने अभी जिंदगी का एक प्रतिशत भी सुख नहीं भोगा था, वो हमेशा के लिए मौत की आगोश में सो चुका था।
मां और पिता की जिंदगी में अब सिवाए अंधेरे के कुछ नहीं था। मां की आंखों में बेटे की मौत की बेबसी थी और पिता के हाथ में उस अस्पताल का 4 लाख रुपए का भारी- भरकम बिल, जिसे चुकाने के लिए हो सकता है उन्हें अपने शरीर का कोई अंग अस्पताल को देना पड़े। बावजूद इसके कि ये 4 लाख रुपए उनकी जिंदगी के सबसे खूबसूरत और मासूम हिस्से को भी नहीं बचा पाए। एक तरफ बाहर होली के रंग बिरंगे रंगों की बौछार में शहर डूबा हुआ है तो वहीं दूसरी तरफ रोहित के मां और पिता इस दुनिया का सबसे स्याह रंग लेकर अपनी जिंदगी जीते रहेंगे। यही इस जिंदगी का सबसे भयावह पक्ष है।