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महिला दिवस की सार्थकता का सवाल : कानूनों में सिमटे सम्मान और सुरक्षा

हमें फॉलो करें महिला दिवस की सार्थकता का सवाल : कानूनों में सिमटे सम्मान और सुरक्षा
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नवीन जैन

, बुधवार, 8 मार्च 2023 (11:04 IST)
हर साल की तरह 8 मार्च को महिला दिवस है। देश-विदेश में विभिन्न अवसरों पर इस तरह के दिवस मनाने की प्रथा है। वैसे, इसमें बुराई की क्या बात है, लेकिन जिस भारत देश में लगभग आधी आबादी महिलाओं की मानी जाती है और जहां स्त्रियों को विभिन्न विशेषणों से नवाजने का पुरातन  चलन है, वहां  महिलाओं की वर्तमान दशा पर लगातार चिंतन, मनन और विमर्श करने की जरूरत है।

तारीफ करने योग्य बात है कि हमारे देश की वर्तमान राष्ट्रपति न सिर्फ महिला (द्रौपदी मुर्मू) है बल्कि आदिवासी समुदाय से आती है, लेकिन यहां यह सवाल पैदा होता है कि एक आदिवासी महिला को महामहिम नियुक्त करने में आखिर हमें पूरे 75 साल क्यों लग गए? इस प्रश्न पर भी सार्थक वार्तालाप होना चाहिए कि इस तरह के निर्णयों में सरकार की एक समुदाय विशेष के वोट बैक को विश्वास में लेने की नीति तो काम नहीं करती है।

यह अच्छी सूचना है कि राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने हाल में कुछ मौकों पर सरकार के लिए फजीहत की हालत पैदा कर दी और आम नागरिक के दिल में उतरने वाले बयान दिए। इसके बावजूद अधिकृत आंकड़े कहते हैं कि भारत में हर 4 घंटे में औसतन चार स्त्रियां बलात्कार का शिकार होती हैं।

पिछले साल देश में महिलाओं के खिलाफ जो एफआई आर दर्ज हुई उसकी संख्या 4 लाख 28 हजार थी। इन प्राथमिकियों में से लगभग 32प्रतिशत तो घरेलू हिंसा तथा प्रताड़ना की थी। सबसे शर्मनाक यह आंकड़ा है कि एक तो आज भी देश के कुछ हिस्सों में सर पर मैला ढोने की नारकीय प्रथा जारी है और सरकारें हैं कि स्त्रीशक्ति करण और स्वच्छ भारत का बेसुरा ढोल पीटती हैं।
 
स्त्रियों के लिए कानून या तो संसद से बनते हैं या विधानसभाओं से। संसद के उच्च सदन राज्य सभा के कुल सदस्यों में महिलाओं का प्रतिशत दस और निम्न सदन लोकसभा में 14 फीसद है। देश में कुल विधायकों की संख्या चार हजार एक सौ बीस है उसमें से महिला विधायकों की संख्या सिर्फ नौ फीसद है। घर हो, ऑफिस हो, सामाजिक अवसर हों हर जगह आज भी महिलाएं शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना का शिकार होती  हैं।

सालों से जो स्त्री-पुरुष में गैर बराबरी की कुप्रथा चली आ रही है, उसमें बुनियादी फर्क इतना नहीं आया है, जो बहुत ज्यादा उत्साह जनक माना जा सके। इधर ,पिछले कुछ बरसों से सोशल मीडिया पर जो गंदगी परोसी जा रही है , उस पर अंकुश लगाने का कोई सफल प्रयास न तो सरकार करती है, न सामाजिक संगठन इस चलन को रोकने के लिए कोई आर पार की लड़ाई लड़ते हैं।

इस देश में एक कथित सेक्स गुरु को वाहवाही मिलने का आत्म घाती दौर फिर शुरू हो गया हैं, लेकिन लोग इस तथ्य से लोग जान-बूझकर परहेज करते हैं कि इसी देश में महावीर हुए, कबीर हुए, गुरु नानक हुए। कोरोना की अल्प प्रलय की बेला में तो किशोरियों का अल्पआयु में बाल विवाह कर देने का चलन इसलिए फिर पनपा कि चलो इस बहाने कम खर्च में ही काम निपट जाएगा।

यदि वास्तव में भारतीय समाज हर साल मनाए जाने वाले महिला दिवस को मात्र औपचारिक नहीं समझना चाहता है ,तो सबसे जरूरी यह बात है कि स्त्रियों की भी पुरुषों के समान ही भरपूर शिक्षा के अवसर प्रदान किए जाएं।

महिलाओं की शिक्षा के प्रबल समर्थक बारबरा वूटन  ने अपनी आत्मकथा इन ए वर्ल्ड आई नेवर मेड में लिखा था कि एक पीढ़ी का हास्यास्पद आदर्शवाद दूसरी पीढ़ी के स्वीकृत आदर्शवाद में विकसित हो जाता हैं। वूटन इसलिए उक्त विलक्षण बात कह गए क्योंकि खासकर स्त्री शिक्षा के मामले में अपने नब्बे साल के जीवन में उन्होंने ऐसा होते हुए लगातार देखा था।
 
जिस विषय पर आजादी के 75 वर्षों में देश को अत्यधिक उत्साह से काम करना था, उस देश के मंत्री और विधायक आज भी यह कहते मिल जाएंगे कि जिसे कोई और काम नहीं मिलता वह टीचर या मास्टर बन जाता है। ये मंत्री या विधायक इस कदर  अज्ञानी हैं कि इन्हें इतनी-सी सामान्य जानकारी नहीं है कि इसी देश के चार राष्ट्रपति मूलत:शिक्षक ही थे। और फ्रांस तथा सिंगापोर जैसे अतिविकसित देशों में तो सरकार में शिक्षा मंत्री का दर्जा दूसरे नंबर पर आता है।

आखिर क्यों नहीं माना जाए कि स्त्री शिक्षा के अभाव में उचित मार्ग दर्शन नहीं मिलता। इसी के कारण स्त्रियों के प्रति अपराध, हिंसा, जातिवाद और सांप्रदायिक उन्माद हिलोरे मारता है। आजादी की पौनी सदी के बाद भी लोक जीवन, जिसका लगभग आधा हिस्सा महिलाएं ही हैं अत्यधिक अपराधिक तत्वों की घुसपैठ का शिकार है।

नारी शिक्षा के बारे में किसी विद्वान ने क्या खूब कहा था कि नारी और पुरुष की समान शिक्षा ही वह चट्टान है ,जिस पर चढ़कर भारत को अपना राजनीतिक मोक्ष प्राप्त करना है। और 100 की उम्र के बाद तो कहा जाता हैं कि मोक्ष के द्वार खुल ही जाते हैं। भारत की स्वतंत्रता को 75  साल तो हो ही गए हैं। क्या हम विश्वास करें कि अगले 25 सालों के बाद हमारे देश के लिए भी राजनीति के मोक्ष के उक्त पट खुल जाएंगे?

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