आरएसएस की तुलना ब्रदरहुड से स्‍वीकार करने योग्‍य नहीं

अवधेश कुमार
विपक्ष के किसी नेता द्वारा सरकार की आलोचना सामान्य स्थिति होती है। किंतु राहुल गांधी ने ब्रिटेन मैं जो कुछ बोला है, उसे नरेंद्र मोदी सरकार की सामान्य आलोचना तक सीमित नहीं माना जा सकता। उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से लेकर लंदन के थिंक टैंक चाथम हाउस में उनके वक्तव्यों से भारत की ऐसी भयावह तस्वीर बनती है मानो यहां फासिस्टवादी सरकार हो, जिसने न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका से लेकर प्रेस और सारी थिंकटैंक संस्थाओं पर नियंत्रण कर लिया है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मुस्लिम ब्रदरहुड से तुलना करने का अर्थ यही है कि भारत में भी हिंसा के द्वारा मजहबी राज स्थापित करने वाला आतंकवादी संगठन है, जिसके लोगों के हाथों अभी सत्ता है। संघ संबंधी उनकी आलोचना की चर्चा इसलिए आवश्यक है, क्योंकि आम धारणा यही है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली या अन्य भाजपा सरकारों का वैचारिक स्रोत संघ ही है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संघ के प्रचारक रहे। भाजपा में बड़ी संख्या में संघ के स्वयंसेवक हैं। संगठन मंत्री के तौर पर ऊपर से नीचे संघ से भेजे गए प्रचारक काम कर रहे हैं। इस कारण राहुल गांधी की बात को सच मान लिया जाए तो स्वीकारना होगा कि भारत में ऐसा मजहबी फासिस्ट शासन है, जहां दूसरे मजहब और विचारधारा आदि के लिए कोई स्थान नहीं।

भारत में वे काफी समय से कह रहे हैं कि संघ ने सारी संस्थाओं पर कब्जा कर लिया है। इसे संघ के प्रति आम राजनीतिक विरोध की मानसिकता तक सीमित मान लिया जाता था। लेकिन में उन्होंने इसे उस रूप में चित्रित किया, जिस तरह हिटलर और मुसोलिनी के शासनकाल में जर्मनी और इटली के अंदर संस्थाओं पर कब्जा किया गया था।

वामपंथी सोच वालों के द्वारा संघ का विरोध और आलोचना नई बात नहीं है। बावजूद इसके पूर्व विदेश की धरती पर भारत के किसी नेता ने इस तरह का वक्तव्य नहीं दिया। उसे मुस्लिम ब्रदरहुड जैसा आतंकवादी संगठन कहने से बड़ा बौद्धिक अपराध और कुछ नहीं हो सकता। चूंकि आप विदेश की धरती से ऐसा बोल रहे हैं, जहां आमतौर पर लोगों को भारत के संगठनों के बारे में जानकारी नहीं वहां देश की कितनी विकृत तस्वीर बनेगी इसकी कल्पना करिए।

पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी ने भी संघ को लेकर  मतभेद प्रकट किए, पर इस रूप में विदेश तो छोड़िए भारत की धरती पर भी उसे चित्रित नहीं किया। भारत में संघ के घोर विरोधी भी अंतर्मन से राहुल की इस तुलना से सहमत नहीं हो सकते। मुस्लिम ब्रदरहुड ने 1928 में अपनी स्थापना के बाद से राजनेताओं की योजनाबद्ध हत्या से लेकर अनेक हिंसक आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया है। उसके सदस्य इन मामलों में सजा पाते रहे हैं। यह संगठन कुरान और हदीस पर आधारित इस्लामिक शासन के लक्ष्य से काम कर रहा है। इसने अपनी स्थापना के दो वर्ष बाद ही राजनीतिक गतिविधियां आरंभ कर दी और 30 के दशक में मिस्र की सत्तारूढ़ वफ्द पार्टी का विरोध शुरू कर दिया जिसमें हिंसक विरोध भी शामिल था। इसने अनेक राजनीतिक हत्याएं की और जब सरकार ने इसे प्रतिबंधित करने की योजना बनाई तो मिस्र के तत्कालीन प्रधानमंत्री महमूद फाहमी अल नुकराशी की 1948 में हत्या कर दी।

इस कारण हिंसा प्रतिहिंसा का ऐसा दौर चला कि मुस्लिम ब्रदरहुड के संस्थापक हसन अल्बाना की भी हत्या हो गई। मुस्लिम ब्रदरहुड ने उसके बाद 1954 में तत्कालीन मिस्र के राष्ट्रपति गमल अब्देल नसीर की हत्या करने की कोशिश की। इस षड्यंत्र में उसके नेता पकड़े गए और राजद्रोह के आरोप में उन्हें फांसी की सजा हुई। इनमें यहां विस्तार से जाने की आवश्यकता नहीं। कहने का तात्पर्य कि मुस्लिम ब्रदरहुड स्थापना के समय से आज तक इस तरह की गतिविधियों में बार-बार संलिप्त पाया गया है और अनेक देशों को उसे प्रतिबंधित करना पड़ा। क्या संघ के बारे में ऐसा कहा जा सकता है?

1925 में स्थापना से लेकर 98 वर्षों की यात्रा में संघ की सोच में भी कभी हिंसक गतिविधियां के संकेत तक नहीं मिले। भारत में संघ पर तीन बार प्रतिबंध लगे और कभी कोई आरोप प्रमाणित नहीं हुआ। फलतः उसे प्रतिबंधों से मुक्त किया गया। राहुल गांधी को संघ विरोधी ज्ञान देने वाले रणनीतिकार एक बार इन प्रतिबंधों के हटाने के पीछे के कारणों को समझ लेते तो इस तरह निराधार आपत्तिजनक आरोप लगाने से बचते। तब उनका विरोध सामान्य होता और इस पर लोकतांत्रिक समाज में स्वाभाविक बहस भी होती। आप संघ के विरोधी हो या समर्थक सच कहा जाए तो आरोप वैसा है जिसका उत्तर देने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।

चूंकि भारत के अंदर और बाहर की कुछ प्रभावी शक्तियां राहुल गांधी को एक बड़े नेता और विपक्ष के सबसे बड़े आवाज के रूप में पेश कर रही हैं, इसलिए भी उत्तर आवश्यक हो जाता है। आप देश के सबसे बड़े विपक्षी दल के प्रथम परिवार में सोनिया गांधी के बाद और भविष्य के शीर्ष नेता है। चार बार के सांसद हैं। आपके सांसद बनने के साथ 10 वर्ष तक पार्टी के नेतृत्व में यूपीए सरकार रही है। इसके पहले भी सरकारों ने संघ के बारे में अनेक अध्ययन व रिपोर्ट प्राप्त किए हैं।

आरोप लगाना एक बात है, कभी भी कहीं से इसके संकेत तक नहीं मिले कि संघ के लक्ष्य या क्रियाकलापों में भारत की सत्ता को उखाड़ फेंक कर निरंकुशवादी सरकार की स्थापना करना है। या एक सांस्कृतिक सामाजिक संगठन है जो समाज परिवर्तन की दृष्टि से काम कर रहा है। संघ पर निष्पक्ष अध्ययन करने वाले बताते हैं कि इसके संपूर्ण साहित्य, नेताओं के भाषणों, बौद्धिक वर्गों आदि में सत्ता संबंधी सोच मिलती ही नहीं। यह मूलतः सांस्कृतिक सामाजिक संगठन है जो भारत राष्ट्र की उन्नति के लिए काम करता है। भारत राष्ट्र की सोच भी आधुनिक नेशन स्टेट की तरह भूगोल और राजनीति तक सीमित नहीं। हिंदुत्व इसकी सोच का मूल आधार है। हिंदुत्व एक उपासना पद्धति, कर्मकांड या इस्लाम, ईसाइ आदि की तरह एक-दो पुस्तक के आधार पर संपूर्ण व्यवस्था की वकालत नहीं करता। हिंदुत्व व्यापक और विशाल जीवन दर्शन है, जिसके मूल में शुचिता, नैतिकता और सभी जीवो के अंदर एक ही तत्व देखने का भाव है ताकि कोई किसी का दुश्मन न बने। इसकी की व्यापकता और उदारता इतनी है कि उसमें हर प्रकार के धार्मिक विचारों के लिए स्थान है।

संकीर्ण मजहबी या उग्र राष्ट्रवादी या फासिस्टवादी सोच से पैदा हुआ कोई संगठन बिना टूट-फूट के लगभग 100 वर्ष तक लगातार विस्तारित होते और इतना बड़ा जनसमर्थन प्राप्त नहीं कर सकता। पीछे की बात जाने दीजिए पिछले एक दशक के अंदर ही संघ के किस पदाधिकारी का कोई एक बयान नहीं मिलेगा, जिसमें किसी मजहब और यहां तक कि राजनीतिक पार्टी का विरोध। संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत हिंदुत्व के उदार चरित्र की बात करते हुए लगातार स्वयंसेवक संघ समर्थकों सहित संपूर्ण हिंदू समाज को उग्रता और आक्रामकता के प्रति सजग कर रहे हैं। राहुल गांधी इसे एक बंद संगठन बता रहे थे जिसकी गतिविधियों को बाहर के लोग जान ही नहीं सकते। संघ की शाखाएं प्रतिदिन खुले में लगती हैं। बड़े -छोटे सार्वजनिक कार्यक्रम नियमित होते हैं और उनमें समाज के सभी वर्गों को निमंत्रित किया जाता है। यह सब छिपा तथ्य नहीं है। वैसे भी संघ के इतने संगठन हैं कि भारत में ऐसे कम परिवार होंगे जहां किसी न किसी का किसी संगठन से कभी संपर्क नहीं हुआ हो। एक परिवार में कोई संघ से जुड़ा है तो कोई कांग्रेस, कम्युनिस्ट, समाजवाद से। सबके बीच परिवार और समाज के रिश्ते हैं। जमीनी स्तर पर सभी संघ के स्वयंसेवकों का सम्मान भी करते देखे जाते है। संघ का ज्यादातर विरोध भारत में राजनीतिक रहा है और उसके पीछे भी मूल सोच मुस्लिम वोट पाना है।

राहुल गांधी इन सबसे आगे निकल गए। लगभग डेढ़ वर्ष पहले वर्ष पहले कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद ने अपनी पुस्तक सनराइज ओवर अयोध्या में संघ की तुलना आईएसआईएस और बोको हराम तक से कर दी। राहुल गांधी द्वारा इसे ब्रदरहुड के समान बताना साबित करता है कि कांग्रेस नेतृत्व और बाहर से इनको बौद्धिक खुराक देने वालों की यही सामूहिक सोच है। चूंकी यह सच नहीं है, इसलिए भारत का समाज मानता है कि राहुल गांधी ने अत्यंत गैर जिम्मेदार बयान दिया है। कल अगर राहुल गांधी और कांग्रेस को इस बयान के कारण राजनीतिक क्षति होती है तो वह इसी तरह राग अलापेंगे कि चुनाव आयोग से लेकर सारी संस्थाएं भाजपा और संघ के कब्जे में आ गई हैं। संवैधानिक संस्थाओं को छोड़कर आम संस्थाओं में सरकारें अपने अनुकूल लोगों को नियुक्त करती रही है। कांग्रेस के शासनकाल में संस्थाओं में किनकी नियुक्तियां हुई? भाजपा सरकार में भी ऐसे नियुक्तियां हुई है तो इसमें आश्चर्य की बात होनी ही नहीं चाहिए।

नोट :  आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का आलेख में व्‍यक्‍त विचारों से सरोकार नहीं है।

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