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भीड़ की हिंसा रोकने के लिए समग्रता में विचार जरूरी

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अवधेश कुमार

केंद्र सरकार देशभर में हर कुछ अंतराल पर हो रही भीड़ द्वारा हिंसा और हत्या से निपटने के लिए अपने स्तर पर जो कदम उठा रही है उसे स्वाभाविक माना जाना चाहिए। केंद्रीय गृह सचिव के नेतृत्व में एक उच्चस्तरीय समिति का गठन हुआ है। समिति को 4 हफ्तों में अपनी रिपोर्ट सौंपनी होगी। इसके अलावा गृहमंत्री राजनाथ सिंह के नेतृत्व में एक मंत्रिमंडलीय समूह (जीओएम) भी बनाने का फैसला किया गया है, जो उच्चस्तरीय समिति की अनुशंसाओं पर विचार करेगी। जीओएम में गृहमंत्री के साथ विदेश मंत्री, कानून मंत्री, सड़क एवं परिवहन मंत्री, जल संसाधन मंत्री और सामाजिक न्याय मंत्री शामिल होंगे। जीओएम अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सौंपेगा। उसके बाद कदमों का समग्र तंत्र तैयार किया जाएगा।
 
केंद्र सरकार ने यह भी संकेत दे दिया है कि भीड़ की हिंसा को दंडनीय अपराध के तौर पर परिभाषित करने के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में संशोधन किया जाएगा यानी एक नया कानून बनेगा जिसके आधार पर राज्य सरकारें ऐसी घटनाओं पर कार्रवाई कर सकेंगी। 17 जुलाई को उच्चतम न्यायालय ने भीड़ द्वारा की जा रही हत्याओं को रोकने संबंधी जो दिशा-निर्देश जारी किया था उसमें केंद्र द्वारा अलग कानून बनाने की बात भी शामिल थी। केंद्र की सक्रियता से यह माना जा सकता है कि हमें अगले कुछ दिनों में भीड़ द्वारा हो रही हिंसा को रोकने के लिए ज्यादा सशक्त तंत्र और आचरण देखने को मिलेगा।
 
वास्तव में देश का हर विवेकशील व्यक्ति उन्मादित भीड़ के हिंसक आचरण से चिंतित है। उच्चतम न्यायालय द्वारा हिंसा की तीखी आलोचना, केंद्र एवं राज्यों को स्पष्ट निर्देश तथा पुलिस अधिकारियों के दायित्व निर्धारण के बावजूद घटनाएं रुकीं नहीं। जिस दिन केंद्र सरकार ने ये 3 निर्णय लिए, उस दिन 3 घटनाएं हमारे सामने आईं। एक घटना राजस्थान के अलवर की हैं, जहां 20 जुलाई को गौ-तस्करी के संदेह पर भीड़ द्वारा रकबर नामक एक व्यक्ति की हत्या की खबर आई। हालांकि अभी उसकी मौत को लेकर कई प्रश्न उठ गए हैं। रकबर के साथी ने बताया कि वह रात का फायदा उठाकर छिप गया और रकबर को भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला। किंतु एक सूचना यह भी है कि रात 12.40 बजे पुलिस को सूचना मिली और पुलिस 1.20 तक पहुंच भी गई थी। जिस समय पुलिस पहुंची उस समय तक वह जिंदा था। उसे समय पर अस्पताल पहुंचाया जाता तो शायद उसकी जान बच सकती थी।
 
अभी तक जितनी जानकारी आई है उसके अनुसार पुलिस ने पहले गायों को गौशाला भेजने की व्यवस्था की, उसके बाद वे उसे अस्पताल पहुंचाने गए। इसकी जांच हो रही है और राजस्थान सरकार का कहना है कि रिपोर्ट आने के बाद संबंधित पुलिस वालों पर कार्रवाई होगी। 3 आरोपियों को गिरफ्तार किया जा चुका है। एक असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर को निलंबित करने तथा 3 कॉन्स्टेबलों को लाइन हाजिर करने की सूचना दी गई है। निस्संदेह, इस मामले में पुलिस की भूमिका भी एक महत्वपूर्ण पहलू है किंतु भीड़ ने रकबर की पिटाई की, यह सच है।
 
दूसरी घटना भी राजस्थान के बाड़मेर की है, जहां एक दलित युवक की गांव वालों ने इसलिए पीट-पीटकर हत्या कर दी, क्योंकि वह एक दूसरे समुदाय की लड़की से प्यार करता था। हालांकि यह घटना राजस्थान के मीडिया तक ही सीमित रह गई। तीसरी घटना मध्यप्रदेश की है, जहां सिंगरौली जिले के एक गांव में एक 30 वर्षीय विक्षिप्त महिला को बच्चा चोर करार देकर लोगों ने मार डाला।
 
ये 3 घटनाएं बताती हैं कि भीड़ हिंसा तो कर रही हैं लेकिन सबके कारण एक नहीं हैं यानी राजनीतिक रंग देने के लिए भीड़ की हिंसा का जो विशेष प्रकार का चित्रण किया जा रहा है, वह एकपक्षीय सच है। इसे उजागर करना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि हिंसा को रोकना है तो सभी घटनाओं और उनके कारणों का अलग-अलग विश्लेषण करके निष्कर्ष तक पहुंचना होगा। उच्चतम न्यायालय ने भी अपने फैसले में गोरक्षा एवं बच्चा चोरी के नाम पर हो रही हिंसा व हत्या की घटनाओं का जिक्र किया था। न्यायालय ने बताया था कि पिछले 10 वर्षों में गोरक्षा के नाम पर 86 घटनाएं दर्ज की गईं जिनमें 33 लोगों की हत्याएं हुईं। इस आंकड़े से ही स्पष्ट होता है कि गोरक्षा के नाम पर भीड़ की हिंसा पूर्व सरकारों के कार्यकाल में भी होती रही है। उसी तरह बच्चा चोरी के नाम पर 20 मई 2018 से 15 लोगों की भीड़ द्वारा हत्या की बात उच्चतम न्यायालय के फैसले में दर्ज है।
 
हिंसा किस सरकार के कार्यकाल में हुई, यह हमारा मुख्य फोकस नहीं हो सकता। हमारा मुख्य उद्देश्य किसी तरह भीड़ के हिंसक चरित्र को खत्म करना होना चाहिए। दुर्भाग्य से इस पर हो रही राजनीति से मामला और बिगड़ रहा है। हमारी राजनीति का पूरा आचरण ऐसा हो गया है कि संयत होकर समस्या को दूर करने पर विचार करने की संभावनाएं मानो नि:शेष हो गई हैं। एक-दूसरे को आरोपित करना यहीं तक राजनीति की भूमिका सीमित हो रही है। राजनीति के ऐसे व्यवहार से समस्या सुलझने की जगह और बिगड़ती है। ऐसा तो है नहीं कि जहां हिंसा हुईं वहां कार्रवाई नहीं हुई। अभी तक एक भी ऐसी घटना नहीं जिनमें आरोपी नहीं पकड़े गए, उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं हुई।
 
पिछले दिनों ही झारखंड में पिछले साल हुई भीड़ की हिंसा की एक घटना में 12 लोगों को सजा हुई है। राज्यों ने भी इसे रोकने के लिए अपनी ओर से कई कदम उठाए हैं। अफवाह से दूर रहने के प्रचार भी हो रहे हैं। कानून हाथ में न लेने की अपील हो रही है। केंद्र सरकार ने कहा है कि उसने राज्यों को दो एडवायजरी जारी किया हुआ है। कानून और व्यवस्था राज्यों का विषय है इसलिए इसमें मुख्य भूमिका तो उन्हीं की है। बावजूद इसके यदि भीड़ द्वारा हिंसा हो रही है तो फिर मामला उससे ज्यादा गंभीर है जितना समझा जा रहा है। 
 
आप सोचिए न 1 जुलाई को महाराष्ट्र के धुले में बच्चा चोर की अफवाह पर लोगों ने जब 5 निर्दोष लोगों की पीट-पीटकर हत्या कर दी, उसके बाद कितनी चर्चा हुई। मीडिया के माध्यम से बताया गया कि यह कोरी अफवाह है। कोई बच्चा चोर गिरोह नहीं है। बावजूद इसके आपको किसी पर संदेह होता है तो उसे पुलिस को सौंप दीजिए। किंतु बच्चा चोरी के नाम पर हिंसा हो गई।
 
सिंगरौली की घटना अभी सबसे अंतिम है। इसके पहले 15 जुलाई को कर्नाटक में बीदर जिले के एक गांव में भीड़ ने 4 लोगों की पिटाई की जिसमें 1 मारा गया एवं 3 बुरी तरह घायल हुए। पुलिस नहीं पहुंचती तो चारों मार दिए गए होते। इस घटना में भी 30 लोगों को गिरफ्तार किया गया। यह समझने की जरूरत है कि ये कार्रवाइयां पर्याप्त साबित नहीं हो रही हैं। केंद्र द्वारा नए कानून बनाने के बाद सभी राज्यों की कानूनी कार्रवाई में एकरूपता आ जाएगी।
 
अभी तक अलग-अलग मामलों में अलग-अलग धाराओं में मामला दर्ज हो रहा है, जो इसकी आवश्यकता है। अफवाहों को रोकने के लिए भी कदम उठाए जा रहे हैं। बावजूद इन सबके, इससे आगे सोचने और काम करने की जरूरत है। इसमें सबसे प्रमुख है, सामाजिक जागरूकता। भीड़ को नियंत्रित करना आसान नहीं होता, किंतु भीड़ बनने के पहले की मनोस्थिति में किसी अफवाह की अवस्था में कैसा व्यवहार करें, यह समझा पाना संभव है।
 
हालांकि यह आसान नहीं है, लेकिन करना होगा। इसमें सरकार से ज्यादा सामाजिक-धार्मिक संगठनों और मीडिया की भूमिका होगी। दूसरे, देश के अनेक क्षेत्रों से गो-तस्करी और गौ चोरी की वारदातों की पुष्ट खबरें भी आ रही हैं। जगह-जगह गोरक्षकों के ऐसे समूह खड़े हो गए हैं, जो अपने निजी भविष्य की परवाह किए बगैर स्वयं ही फैसला करने पर उतारू हैं। कानून के राज में यह बिलकुल अस्वीकार्य है। किंतु इतना कह देने भर से तो काम नहीं चलेगा।
 
आप सोशल मीडिया पर होने वाली प्रतिक्रिया देख लीजिए। लोग कह रहे हैं कि अगर पुलिस गोरक्षा की भूमिका नहीं निभाएगी, तो ऐसा होगा। गोरक्षा के नाम पर हत्या या हिंसा करने के आरोप में जितने लोग पकड़े गए हैं उनका कोई आपराधिक रिकॉर्ड भी नहीं है। गो-तस्करी या चोरी रोकने की भूमिका तो सरकारों को ही निभानी होगी। इसमें कमी रहेगी, तो जो लोग गाय के नाम पर प्राण देना या सजा भुगतना धर्मरक्षा मानते हैं उनको पूरी तरह रोक पाना कठिन होगा। ऐसे और भी कई पहलू हैं जिन पर तटस्थता और ईमानदारी से विचार करने की आवश्यकता है।
 

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