अनुकूलता जीवन में हर कोई चाहता है क्योंकि प्रतिकूलताओं से विसंगतियां उपजती हैं और ये विसंगतियां दुःख का सबब बनती हैं। इसलिए अनुकूलता सर्वप्रिय है।लेकिन जीवन एक सरल रेखा की तरह नहीं होता। वहां उतार-चढ़ाव आते ही हैं- अमीरों की अट्टालिकाओं में भी और निर्धनों की झोपड़ियों में भी।
बहरहाल, निजी संबंधों में पति पत्नी का रिश्ता एक मात्र है जो सबसे लंबे समय तक अस्तित्व में रहता है और सर्वाधिक प्रतिकूलता इसी में पाई जाती है और यही कारण है कि सर्वाधिक अनुकूलता की दरकार भी इसमें ही होती है।
दो सर्वथा पृथक माहौल, संस्कार, सोच, शिक्षा और समझ को जीते आए प्राणियों का विवाह के रूप में मेल देखने वालों को भले ही सुखद लगे , लेकिन उसे जीने वालों के लिए वह काफी उलझा हुआ होता है।
यदि इस तथ्य को दोनों स्वीकार कर समझ लें, तो परस्पर भिन्नताओं का आदर कर जीवन जीना सहज हो जाता है। लेकिन विपरीत सोच रखने पर जीवन दुखमय हो उठता है और यह खेद का विषय है कि अधिकांशतः यही होता है।
यदि सिर्फ हमारे देश की बात करें तो यहां पति अपनी कल्पित आदर्श छवि को पत्नी में संपूर्ण होते देखने का परम अभिलाषी होता है और पत्नी को अपने सपनों का राजकुमार पति में उतर आने की चाह होती है।
अब इस अभिलाषा और चाह के बीच जो एक महीन- सा रास्ता यथार्थ का जाता है उसे जब ये दोनों देखकर भी अनदेखा किए रहते हैं, तब विवादों की नींव पड़ जाती है।
अधिकांश घरों में पत्नियां अपनी चाह से समझौता उन संस्कारोंवश कर लेती हैं , जो पति व ससुराल के विरोध को अनुचित मानने के हामी होते हैं। उनके जीवन की यह प्रतिकूलता उनकी आजीवन पीड़ा का कारण बन जाती है। दूसरी ओर पति शिक्षित हो या अशिक्षित,बेडरूम से लेकर किचन, घर से लेकर समाज और काम से लेकर व्यवहार आदि सभी बिंदुओं पर पत्नियों से अपना मनचाहा शत-प्रतिशत परिणाम चाहते हैं।
वे सोच ही नहीं पाते कि पत्नी भी तो एक इंसान है, उसकी कुछ सीमाएं हैं, कुछ भिन्न सोच व सपने हैं। वह 'वुमन' है, सुपरवुमन नहीं है। आप हर जगह उससे 100 परसेंट की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
उनकी तय गाइड लाइन से पत्नी का तनिक भी हटना उन्हें अपने जीवन की महान प्रतिकूलता लगता है और वे इसका ज़िक्र ना सिर्फ परिजनों बल्कि कई बार तो अपने मित्रों व सहकर्मियों से भी कर बैठते हैं।
सार्वजानिक रूप से किया गया यह अपमान पत्नी के मन को चीरकर रख देता है क्योंकि वह भी तो अपनी चाह से समझौता किए प्रायः मौन बैठी होती है।
बस, मतभेद धीरे-धीरे मनभेद में परिणित होने लगते हैं। अंतिम परिणाम या तो अलगाव अथवा साथ रहकर भी रिश्ते में पसरे बेगानेपन को आजीवन भोगने की त्रासदी के रूप में आता है।
इससे उन दोनों का जीवन तो कष्टपूर्ण होता ही है, बच्चे भी इस दंश को सदा भोगते हैं। उनके लिए तो दोनों महत्वपूर्ण हैं। किसे छोड़ें , किसे पा लें ?
सच तो यह है कि इतनी प्रतिकूलताओं के बावज़ूद अधिकांश लोग विवाह के इच्छुक होते हैं और विवाह करते भी हैं। ऐसे में यदि विवाह का आनंद सही अर्थों में लेना है,तो 'कुछ तेरा कुछ मेरा' मिलाकर 'हमारा' बना लेना चाहिए। यदि ऐसा कर लें ,तभी विवाह सफल और जीवन सुखमय होगा।
पत्नी दुखी होकर समझौता ना करे बल्कि यह सोचकर करे कि पति का सुख उसकी अपनी विचारधारा के अनुसार जीने में है और पति, पत्नी को स्वानुकूल बनाने की तानाशाही तजकर उसे निजानुकूल ही रहने दे क्योंकि उसका सुकून उसी में निहित है।
दोनों अपना स्वतंत्र मत रखते हुए परस्पर एक-दूसरे की सोच का आदर करें, अपने सपनों व इच्छाओं को सहकार में जीयें, निषेध के स्थान पर 'स्वीकार' की उदारता दिखाएं, लेने से अधिक देने का भाव रखें, तो घर को स्वर्ग बनते देर नहीं लगेगी क्योंकि यही तो सच्चे अर्थों में प्रेम है और प्रेम ही इस रिश्ते की नींव का पत्थर है।