Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

महिला दिवस विशेष : स्वतंत्रता और खुलेपन का अंतर समझना जरूरी है

हमें फॉलो करें महिला दिवस विशेष : स्वतंत्रता और खुलेपन का अंतर समझना जरूरी है
webdunia

स्मृति आदित्य

'वह' संभ्रांत वर्ग की है, 'वह' गंदी बस्तियों में भी रहती है। 'वह' कामयाबी का परचम फहरा रही है, 'वह' कुछ न कर पाने की घुटन और छटपटाहट को भी समेटे हुए है। 'वह' यदि शीर्ष पर है तो शून्य में भी 'वही' है। 'वह' अपने अस्तित्व को पहचान चुकी है, किंतु कहीं-कहीं 'उसे' अपने वजूद का परिचय नहीं है। 'वह' खास है, पर कभी-कभी आम में भी शामिल नहीं की जाती। 'वह' कर्मठ है, साथ ही कामकाजी, कर्मचारी और कामगार भी है। कहीं 'वह' धूलों से आपूरित है, कहीं 'वह' फूलों से आप्लावित है। 'वह' महकती खुशबुओं से सराबोर है तो उबकाती बदबुओं से भी 'वही' म्लान है। उसके स्वरूप को अभिव्यक्त करने के लिए संबोधन के विविध रूप‍ बिखरे हुए हैं, किंतु उनके निहितार्थ सदियों से वही हैं और सदियों तक शायद वही रहेंगे।
 
औरत, महिला, स्त्री, नारी, खवातीन या वामा। पुकारने के लिए कई शब्द हैं, लेकिन महसूसने के लिए? कुछ भी नहीं, एक रिक्तता, जड़ता, खिन्नता, खिंचाव, खुश्की या फिर खीज। इस वक्त लेखनी की नोक पर आने को बेताब, आकुल और व्यग्र हैं। वे समस्त महिलाएं जो यूं तो कई वर्गों, उपवर्गों में विभाजित हैं, किंतु बात जब अस्तित्व और स्वतंत्रता की चलती है, तब इन सारे वर्गों, उपवर्गों के गुच्छे अनायास ही एक-दूसरे से जुड़कर एक ही विराट स्वरूप धारण कर लेते हैं जिन्हें हम राष्ट्र की आधी आबादी के नाम से जानते, समझते (?) और पुकारते हैं।
 
आधी आबादी जो आजादी के इतने वर्षों उपरांत भी आरक्षण की मोहताज है और उसे पाने के लिए संघर्षरत है।
 
विकास और विनाश की संवेदनहीन प्रतिस्पर्धा में जिसे आज भी दमित किया जा रहा है, शोषित और कुंठित किया जा रहा है। तरीके बदल गए हैं, सलीके बदल गए हैं, उपकरण बदल गए हैं, समीकरण भी बदलते जा रहे है, किंतु शोषण! वह आज भी जारी है। पहले मुक्त रूप से हुआ, स्वच्छंद हुआ, व्यवस्थागत हुआ, राजसी हुआ, छुपकर हुआ, दबकर हुआ और धीरे-धीरे सुनियोजित तरीके से होने लगा, सुंदर और संतुलित, सलीके से होने लगा। एक सम्मोहक षड्यंत्र के तहत होने लगा। शोषण के स्तर, स्वरूप और परिभाषा बदल दिए गए, किंतु शोषण विद्यमान रहा।
 
स्वतंत्रता के अर्थों को परिवर्तित (‍विकृत) कर औरत के अंतरतम में नवीनतम अत्याधुनिक अर्थों को निरूपित किया गया। स्वतंत्रता के इस विकृत और विद्रूप अर्थ को इस समझदारी और सजावट के साथ मस्तिष्क में डाला गया कि महिलाओं का एक बुद्धिहीन भोला और भावुक वर्ग स्वयं ही शोषण के लिए उपस्थित और तत्पर हो गया।
 
मजेदार (?) तथ्‍य तो यह है कि यह वर्ग जानता ही नहीं कि इसका शोषण हो रहा है। इस वर्ग की महिलाओं को लगता है कि यदि इन्होंने 'शॉर्ट्स मिनिज लो-कट...' आदि नहीं पहने तो वे पिछड़ी, परतंत्र और पराजित घोषित कर दी जाएंगी और जाने-अनजाने स्वत: ही स्वतंत्र (?) महिलाओं के वर्ग से बाहर कर दी जाएंगी।
 
स्वतंत्रता के आधुनिक अर्थों को ठोकते हुए महिलाओं के इस वर्ग को स्वच्छंदता की भी समस्त परिधि से बाहर खींच लाया गया है और इन्हें इसका अहसास तक नही है। स्वतंत्रता के इस प्रलोभित अर्थ को इतनी प्रवीणता से प्रचारित-प्रसारित किया गया कि वास्तविक, सभ्य व मर्यादित अर्थ विलुप्त होते गए और उनकी जगह काबिज होते गए उनके प्रचलित अर्थ। वे अर्थ जिनमें खुलापन था, निर्लज्जता थी, अमर्यादा थी, नीतियों, नियमों व परंपराओं का उल्लंघन था, आदर्शों से खिलवाड़ था और सबसे प्रमुख जिनमें स्वेच्छाचारिता और अवज्ञा निहित थी। इस बेईमान, बेतुके और बेढब अर्थ को पूरी कुशलता और निपुणता से चमचमाते रैपर में लपेटकर परोसा गया। फलस्वरूप करियर की अंधी दौड़ में शामिल, ग्लैमर की अमर्यादित क्षुधा से ग्रस्त महानगर बालाएं अपनी सभ्यता, संस्कृति, सिद्धांत, संयम, संस्कार, सच्चरित्रता, सादगी, सृजन, आदर्श, मूल्य, प्रकृति, प्रवृत्ति और प्रखरता को विस्मृत कर देने में ही गौरवान्वित महसूस करने लगीं।
 
आश्चर्य तो यह है कि शोषक और शोषित दोनों ही वर्ग इसे शोषण नहीं मानते, क्योंकि इसमें कहीं कोई दुख नहीं है, दर्द नहीं है, दमन नहीं है, सबसे मुख्य दहलीज की जंजीरें नहीं हैं और अभावग्रस्त दरिद्रता नहीं है। चहुंओर विलास है, ग्लैमर है, ऐश्वर्य है, शानो-शौकत है, असभ्यता और अमर्यादा है। इन सबकी पृष्ठभूमि में प्रचुर पैसा और पारि‍तोषिक है। पंछी अपने द्वारा चयनित और परिमित आकाश में कहीं भी, कैसे भी पंखों को फैला-फड़फड़ा सकता है। कहीं कोई पछतावा नहीं, पश्चाताप नहीं। पाबंदी और पराकाष्ठा नहीं। इस चकाचौंध में परंपराओं को पाखंड के नाम से पहचाना जाता है और नैतिकता, नियमों और नीतियों को निरर्थक समझा जाता है। आदर्श जहां अनुपयुक्त है, वहीं अनुशासन अनुपस्थित। अध:पतन के इस शर्मनाक खेल में पवित्रता जहां परिहार्य है, वहीं पाप परिपक्व अवस्था में।

webdunia
बेसुध, बेसब्र और बेसमझ महिलाओं का यह वर्ग उन्मुक्तता की बैसाखी पर मिली छद्म शोहरत से बौराया हुआ है। ये महिलाएं न सिर्फ अपनी सृजनात्मकता, रचनात्मकता और सात्विकता को बेखौफ छल रही हैं अपितु इस आत्मविश्वास को भी कुंठित कर रही हैं, जो प्रतिभा, लगन, मेहनत, कौशल व दक्षता से मिली सफलता और शोहरत से उत्पन्न होता है।
 
वस्तुत: स्वयं ही समझना, सोचना और विचारना होगा कि सच क्या है? शोषण और स्वतंत्रता का अंतर पहचानना होगा। सफलता पाने का सही रास्ता खोजना होगा। वह रास्ता जो न सिर्फ सुखद और सुंदर हो, बल्कि सुसभ्य और मर्यादित हो। अपने कार्यक्षेत्र में निष्ठा और समर्पण प्रशंसनीय है, किंतु आत्मसम्मान और शुचिता व गरिमा और संस्कृति को दांव पर लगा देना निश्चय ही अशोभनीय है। व्यभिचार सिर्फ चंद लम्हों का सुख देता है, लेकिन शिष्टाचार आजीवन संतोष प्रदान करता है।
 
दूसरों के मूल्यांकन और चिंता की तुलना में आत्ममूल्यांकन और आत्मचिंतन को वरीयता दीजिए। समाधान संशोधन और सुधार की दिशा में सार्थक कदम यही है कि 'स्वतंत्रता' शब्द में निहित सही अर्थों को गंभीरता व गहराई से समझना होगा और विकृत अर्थों को पहचानकर उनकी छंटनी करनी होगी, क्योंकि वैचारिक उच्चता, प्रगतिशील सोच, मर्यादित प्रखरता, संस्कारित भाव-प्रवणता, सुशिष्ट तर्कशक्ति, सामयिक विषयों में अभिरुचि, सुरुचिपूर्ण व गरिमामयी व्यक्तित्व, अधिकारों और अस्तित्व के लिए अनुशासित संघर्ष स्वाभिमान, स्वावलंबन, स्वविवेक और आत्मविश्वास ही असली और अर्थपूर्ण स्वतं‍त्रता है। इनसे परे सिर्फ स्वच्छंता है या फिर शोषण और कुछ नहीं।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

इस होली टोटके से घर में ठहर जाती है समृद्धि हमेशा के लिए...