धारा 497 : अंतरात्मा की अदालत से कैसे बचेंगे?
वह सर्वोच्च अदालत है, आप उसके फैसले पर सवाल नहीं उठा सकते, आप उस पर बहस कर सकते हैं, चिंतन कर सकते हैं, चिंता व्यक्त कर सकते हैं, परेशान हो सकते हैं पर सवाल नहीं उठा सकते। मुझे याद है अपने विद्यार्थी जीवन की एक पंक्ति कि जब कार्यपालिका, विधायिका असफल हो जाए तो सामाजिक न्याय के लिए आप न्यायपालिका के द्वार खटखटा सकते हैं। एक अंतिम उम्मीद, अंतिम आसरा, अंतिम टिमटिमाती आशा की लौ... जहां न्याय की देवी आंखों पर पट्टी बांध कर बिना किसी का पक्ष लिए नीर-क्षीर विवेक से अपना फैसला सुनाएगी, एक और पंक्ति मुझे याद आती है कि भले ही 10 गुनाहगार छुट जाए पर कोई मासूम को सजा न हो....
धारा 497 के मद्देनजर आइए कुछ बातें साझा करें। बात उस रिश्ते से शुरु करें जो दिल से शुरू होकर दिल तक पंहुचता है। दो आत्माएं एक साथ सांस लेती हैं, सालों किसी एक की 'हां' का इंतजार किया जाता है, कभी मिल जाने के बाद एक दूजे की सांसों में धड़कते हुए जीवन गुजार दिया जाता है और कभी ना मिल पाने की कसक के साथ एक अधूरा जीवन जी लिया जाता है। यह प्रेम की पवित्रता सिर्फ भारत में ही हो ऐसा नहीं है हर जगह है क्योंकि प्रेम की कोई देश-काल की सीमा नहीं होती, भाषा, बोली, धर्म, प्रांत, संप्रदाय नहीं होता वह बस प्रेम होता है।
आइए अब इससे आगे चलें... जहां दो के साथ एक तीसरा कोण निर्मित होता है। पति, पत्नी और वह...यह 'वह' शब्द इस त्रिकोण में फंसे तीनों के लिए अलग-अलग अनुभूति देता है।
*जिसका संबंध है वह इसे छुपाना चाहता है क्योंकि वह अपनी पत्नी को भी खोना नहीं चाहता क्योंकि वह उसके बच्चों की मां है। घर की इज्जत (?) है। यहां एक किस्म की चालाकी छुपी है। घर पर जो बिना पैसे की सुविधा मिल रही है। तमाम जिम्मेदारियों से लेकर बच्चों के पालन-पोषण और रिश्तेदारी व सामाजिकता निभाने की वह उस घर में बसी प्राणी के साथ ही संभव है... लेकिन 'वह' दूसरा रिश्ता भी जरूरी है क्योंकि वह अच्छा लगता है। उसके साथ ऐसी कोई बाध्यता नहीं है, कोई झंझट नहीं है, बस कुछ पलों का सुकून है। वहां पैसों को लेकर चिकचिक नहीं है। अधिकारों का हंगामा नहीं है। पर उसे छुपाना जरूरी था क्योंकि वह सामाजिक मर्यादा के खिलाफ था, कहीं न कहीं हल्का सा ही सही पर कानून का भी भय व्याप्त था। जो अब नहीं होगा।
*'वह' जिससे संबंध है वह मासूम भी हो सकती है, शातिर भी हो सकती है और मजबूर भी ...उसे एक कानून के डंडे से नहीं हांका जा सकता। लेकिन चाहे मजबूरियां कुछ भी हो यह संबंध उसके लिए अवसाद का ही सबब होता है क्योंकि इस तरह का रिश्ता सामाजिक सुरक्षा, सम्मान और स्थायित्व नहीं देता बल्कि तीखी नजरों के तीर देता है। यहां कसमसाहट है कि दिल है कि इस रिश्ते से बाहर नहीं आने देता और दिमाग है कि सवाल करता है...पर यहां भी उसे उसका 'वह' शब्द गाली लगता है और सामाजिक स्वीकार्यता के लिए संघर्ष यहां भी जन्म लेता है।
*तीसरा वह व्यक्ति जो 'पत्नी' नामधारी है जिसके साथ छल, धोखा, फरेब और लंपटता की जा रही है। हो सकता है वह बेचारी हो, हो सकता है वह क्रूर हो, हो सकता है वह मासूम हो, हो सकता है अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाली हो...पर कानून की नजर में उसका अपना कोई वजूद तब तक नहीं ...जब तक कि वह बाध्य होकर आत्महत्या न कर लें... उसका कोई हक नहीं बनता...
उसके लिए 'वह' यानी उसके जीवन का सुख-चैन छीन लेने वाली। वह यानी उसके पति की प्रेमिका, वह यानी उसके बच्चों की दुश्मन... अब उसे इस 'वह' को या तो जीवन भर बर्दाश्त करना है या अपने रिश्ते से बाहर आ जाना है या अपमान, उपेक्षा और हीनता बोध के चलते आत्महत्या का रास्ता चुन लेना है क्योंकि कानून उसका सहारा नहीं बनेगा अब...
यह फैसला एक महिला के हित में है तो दूसरी महिला के लिए घातक है...
यही बात उस पुरुष के लिए भी लागू होती है जिसकी पत्नी उसके साथ छल कर रही है।
छल, फरेब, धोखा जैसे शब्द आज भी उतनी ही नकारात्मक ध्वनि देते हैं जितनी कल देते थे। आप धोखा चाहे पत्नी से करें या किसी अन्य रिश्ते से वह धोखा ही कहलाएगा... अवैध शब्द चाहे अब आपके साथ न लगा हो पर अनैतिक तो है। माना कि विवाहेतर संबंध अपराध नहीं पर 80 प्रतिशत मामलों में अपराध की वजह तो होते हैं।
सीधी सी बात तो यह है कि जहां ऐसे रिश्ते पनप रहे हैं वहां कानून का डर पहले ही नहीं था और अब तो बिलकुल भी नहीं। विवाहेतर संबंध सदियों से रहे हैं, देवताओं के काल से लेकर राजा-महाराजाओं के जमाने तक और मुगल काल से लेकर वर्तमान दौर के उद्योगपति, फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोग, कलाकार, संगीतकार तक के रहे हैं, चलते आए हैं...
लेकिन एक ऐसा वर्ग समाज में हमेशा रहा है जो वैवाहिक शुचिता, नैतिकता, समर्पण और ईमानदारी को लेकर प्रतिबद्ध है, धर्मपरायण है, यहां उनका अपना कानून है, दिल का कानून, भारतीय मूल्यों की यहां प्रतिष्ठा है और पूरी आत्मा से उस कानून का पालन भी किया जा रहा है। हमारी संस्कृति की जड़ों में अगर पकड़ बनी हुई है तो वह इसी सामान्य मध्यम वर्ग की वजह से बनी हुई है।
फैसले का सबसे अधिक नकारात्मक असर समाज के उस वर्ग पर होगा जो समाज में अपनी छवि को लेकर सतर्क है पर ऐसे संबंधों के लिए उनका जी ललचाता जरूर है। ऐसे लोग इधर-उधर जाने के गलियारे तलाशते रहते हैं। ऐसे लंपट और धूर्त लोगों के लिए यह फैसला हौसला बढ़ाने वाला है। फिर वही बात कि इन पर कहीं न कहीं कानून का एक जो हल्का सा ही सही पर भय व्याप्त था वह अब न होने से स्थितियां बिगड़ेंगी।
इन संबंधों को सामाजिक अस्वीकार्यता की वजह से खुलकर सामने लाने में एक शर्म बची थी जो अब नहीं रहेगी। कहीं इस तरह के फैसले संस्कृति को विकृति के मुहाने पर ले जाने वाले आत्मघाती कदम सिद्ध न हो...
बड़ी बात यह है कि विवाहेतर संबंध को आप किसी एक तुला पर तौल ही नहीं सकते। इस तरह के संबंध कई तरह के होते हैं कई स्तर पर कई पेचीदगियां लिए होते हैं। मानवीय स्वभाव को आप स्त्री-पुरुष के दायरे में नहीं बांट सकते। धोखा फिर भी धोखा है चाहे वह स्त्री करे या पुरुष, फरेब, फिर भी फरेब है चाहे वह पति करे या पत्नी...
ना जाने कितने हजारों जोड़े हर दिन बनते-बिगड़ते हैं उन सब पर क्या यह बात लागू की जा सकती है? संभव ही नहीं है...इसमें स्त्री क्या और पुरुष क्या... रिश्तों की बहुत बारीक तहें हैं आप हर किसी को एक लाठी से नहीं हांक सकते।
हमारे देश में विवाह जैसा बंधन, बंधन न होकर एक सहज स्वीकार्यता है एक दूसरे के प्रति... भारतीय संस्कृति के प्रतिकूल संबंधों की परिणति ही 'क्राइम पेट्रोल' का कंटेंट बनती है।
धोखा हर लिहाज से धोखा है। आप अगर संबंधों में ईमानदार नहीं हैं तो फिर कहीं नहीं है। आपको किसी एक से रिश्ता नहीं रखना है तो आप उस संबंध से बाहर आ जाएं और फिर किसी और के साथ रिश्ता कायम करें। लेकिन शादी को बनाए रखते हुए अगर आप कोई संबंध रखते हैं तो वह सामाजिक दृष्टि से अनुचित ही कहा जाएगा कानून चाहे कुछ भी कहे...
जी हां, कानून कुछ भी कहे, इन सबसे ऊपर एक अदालत होती है वह है अंतरात्मा की अदालत.. आप चाहे कितने ही चालाक, चतुर, लंपट और होशियार हो अगर अपने साथी के साथ किसी भी स्तर पर बेईमानी करते हैं तो आपका अपना मन आपको निरंतर दंडित करता है। और अगर आप इस तरह के संबंधों में उलझे हैं और यह फैसला आपके होंठों पर क्रूर-कुटील मुस्कान का सबब बनता है तो ध्यान रखिए कहीं यह मुस्कान आपके साथी के लबों पर भी तो नहीं सज रही?
क्योंकि एक बात महिलाओं की यौन स्वायत्तता की भी कही जा रही है...पर उस पर बात अलग से....फिलहाल आप अंतरात्मा की अदालत से पूछिए कि चाहे कितनी ही मजबूरियां हो लेकिन किसी भी रिश्ते में 'धोखा' होना ही क्यों चाहिए? रिश्तों में परस्पर आत्मीयता, समर्पण, प्रतिबद्धता, एकनिष्ठता जैसे शब्द क्या किसी दूसरे ग्रह के हो जाएंगे....
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