यूरोपीय देशों में बढ़ रहे कोरोना संक्रमण के मामलों के बीच चीन ने कई तरह की तत्काल जरूरी मदद मुहैया कराई है। लेकिन जो कदम लंबे समय तक सबको सुरक्षित रखने में कारगर होगा, वह है जंगली जानवरों की खरीद-फरोख्त पर बैन।
कोविड-19 से परेशान चीन के हुबेई प्रांत के लिए जनवरी में यूरोपीय संघ से 50 टन सुरक्षा गियर और मेडिकल उपकरण भेजे गए थे। अब खुद यूरोप इस संक्रमण के केंद्र में है और हालात चिंताजनक हैं। ऐसे में चीन ने ऐसी तमाम जरूरी चीजों की सप्लाई इटली, स्पेन, ग्रीस और कई गैरयूरोपीय देशों को भी भेजी है।
ऐसी हर मदद का स्वागत करना चाहिए, क्योंकि हेल्थ केयर सिस्टम हर जगह दबाव में है। कोरोना की महामारी खत्म होने के बाद भी इससे उबरने में दुनिया को कई साल लगेंगे। लेकिन इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि जानवरों से इंसानों में फैलने वाली ऐसी संक्रामक 'जूनॉटिक' बीमारियों का खतरा आगे भी मंडराता दिख रहा है।
अमेरिका में इतने बड़ी तादाद में सामने आ रहे मामलों को देखिए। जैसे इसमें कोई संदेह नहीं कि सार्स वायरस अमेरिकी लैब में पैदा हुआ और वहां के जानवरों से इंसानों में पहुंचा। ऐसे ही एचआईवी/एड्स, इबोला, सार्स और मर्स की तरह ही नोवल कोरोना वायरस भी एक जूनॉटिक बीमारी है।
'वॉशिंगटन पोस्ट' के लिए लिखे अपने विशेष लेख में इवॉल्यूशनरी बायोलॉजिस्ट जेरेड डायमंड और वायरस विशेषज्ञ नेथन वुल्फ ने बताया है कि कैसे चीन या कहीं और लगने वाले जंगली जानवरों के बाजार का ऐसी जूनॉटिक बीमारियों के प्रसार में अहम रोल है। सार्स ऐसे ही फैला था और हो सकता है कि कोविड-19 के लिए भी यही सच हो। चीन में खाने और पारंपरिक दवाओं में इस्तेमाल के लिए कई जिंदा और मुर्दा जंगली जानवर खरीदे-बेचे जाते हैं।
माना जाता है कि सार्स का वायरस चिवेट से इंसानों में पहुंचा। चिवेट में यह चमगादड़ से आया था। 'साइंस जर्नल' नेचर में छपे एक शोध पत्र में बताया गया है कि पैंगोलीन नामक जानवर सार्स कोविड-2 के होस्ट हो सकते हैं जिनसे कोविड-19 वायरस फैला। 'वॉशिंगटन पोस्ट' वाले लेख में भी एक्सपर्ट्स ने बताया था कि पारंपरिक चीनी मेडिसिन में पैंगोलीन के शरीर पर मिलने वाले शल्कों की बड़ी मांग होती है।
घनी आाबादी वाले शहरों में एक बार कोई जूनॉटिक बीमारी प्रवेश कर जाए तो उसके फैलने और महामारी का रूप लेने में ज्यादा समय नहीं लगता। चीन के वुहान के उस बाजार को कोरोना के संक्रमण के बाद कुछ समय के लिए बंद कर दिया गया लेकिन चीन की शक्तिशाली सरकार भी देश में जंगली जानवरों के कारोबार को हमेशा के लिए बंद करने की हिम्मत नहीं दिखा पाई।
पारंपरिक चीनी चिकित्सा पद्धति का इतना महत्व है कि 'नेशनल जियोग्राफिक' पत्रिका ने हाल ही में चीन के नेशनल हेल्थ कमिश्नर के बयान को छापा जिसमें उन्होंने 'कोविड-19 के गंभीर मामलों में भालू के पित्त रस वाला इंजेक्शन लगाने' की सलाह दी थी। 8वीं सदी से ही फेफड़ों की तमाम बीमारियों के लिए इस पद्धति का इस्तेमाल होता आया है।
सवाल जिम्मेदारी का है, दोष का नहीं
ऐसा तो शायद न हो कि कोरोना महामारी के कारण चीन में जंगली जानवरों का कारोबार ही रुक जाए। पहले भी तो सार्स के कारण यह नहीं रुका था। आखिर आज भी पारपंरिक चीनी चिकित्सा का चीन और उसके अलावा भी कई जगहों पर काफी महत्व है।
इसके मानने वालों का कहना है कि इस प्राचीन पद्धति में ऐसी ऐसी बीमारियों का इलाज है जिनके लिए पश्चिमी चिकित्सा में समुचित इलाज नहीं मिलता। यही कारण है कि डायमंड और वुल्फ का तर्क है कि कोविड-19 के बाद भी कई ऐसी वायरल महामारियां आना तय है। इसलिए चाहे कितना भी कठिन हो, जंगली जीवों के व्यापार पर पूरे विश्व में बैन लगाने से ही जूनॉटिक बीमारियों का खतरा कम किया जा सकता है।