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पाबंदियां लोकतंत्र के लिए अच्छी नहीं

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WD

, शनिवार, 11 जनवरी 2020 (11:35 IST)
कश्मीर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला भारत के लिए भी अहम फैसला है। इंटरनेट इस बीच किसी भी देश की मूल ढांचागत संरचना का हिस्सा बन गया है। यह बात सरकारों को भी समझनी होगी।
 
सुप्रीम कोर्ट ने कश्मीर पर अपने फैसले में वो बातें कही हैं, जो किसी भी लोकतांत्रिक देश में हर सरकार के रुल बुक का हिस्सा होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने इंटरनेट की सुविधा को मौलिक अधिकार बताया है और कहा है कि धारा 144 का इस्तेमाल आजादी पर रोक के लिए नहीं किया जाना चाहिए।
इंटरनेट आज सड़क और बिजली की तरह समाज की मौलिक संरचना का हिस्सा है जिसके बिना जिंदगी की कल्पना नहीं की जा सकती। सोचिए कि पुलिस अनिश्चित काल के लिए बिजली बंद कर दे या सड़कों को बंद कर दे। सुरक्षा के नाम पर ऐसा करना इलाके के आर्थिक और सामाजिक जीवन को पंगु बनाना होगा। ऐसा करने की सिर्फ निरंकुश सरकारें और उनका अमला सोच सकता है।
 
लोकतंत्र में सरकारें जनता द्वारा चुनी जाती हैं और उनका ही प्रतिनिधित्व करती हैं। सरकारी अधिकारियों का काम होता है उनकी सुविधा का ख्याल रखना, उनके विकास के लिए माहौल बनाना। भारतीय अधिकारियों को भी समझना होगा कि वे किसी विदेशी शासक के लिए काम करने वाले फरमाबदार नहीं हैं, बल्कि जनता की चुनी सरकार के साथ नागरिकों के लिए काम करने वाले सेवक हैं। उनकी तनख्वाह उन्हीं नागरिकों की गाढ़ी कमाई से मिलने वाले टैक्स से आती है इसलिए कश्मीर पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय न सिर्फ कश्मीर के लिए, बल्कि पूरे भारत के लिए अच्छा और मार्गदर्शक फैसला है।
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जिस बात को अधिकारियों को खुद समझना चाहिए, उसके लिए सुप्रीम कोर्ट को आदेश देना पड़ा है। यह राजनीतिज्ञों और अधिकारियों के लिए आत्ममंथन का मौका है। लोकतंत्र में फैसले ऐसे होने चाहिए जिन पर बहुत हद तक आम सहमति हो जिसे नागरिकों और सिविल सोसायटी के व्यापक तबके का समर्थन हो।
अगर न्यापालिका, कार्यपालिका और विधायिका एक-दूसरे के लिए मुश्किलें खड़ी करते रहें तो वे अपना बोझ बढ़ाएंगे और सही काम के लिए उनके पास वक्त नहीं होगा। लोकतांत्रिक सरकार के पायों को फैसला लेते समय इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि कहीं वे किसी और पाये का काम तो नहीं बढ़ा रहे हैं। अगर यह होता है तो सुप्रीम कोर्ट पर भी बोझ कम होगा।
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यह सही है कि सरकारों का मुख्य काम सुरक्षा देना है। सरकारें इसी उद्देश्य से बनती हैं कि लोगों को शांति में जीवन व्यतीत कर सकने की संभावना मिले। इसके लिए उन्हें कानून और व्यवस्था की सुरक्षात्मक छांव, एक- दूसरे से सुरक्षा और दुश्मनों से रक्षा की जरूरत थी। यह जिम्मेदारी सरकार को दी गई।
 
लेकिन साथ ही सरकारों की जिम्मेदारी में वे सेवाएं जुड़ गई हैं, जो लोग अकेले नहीं पा सकते जिसे सरकारें ही मुहैया करा सकती हैं। मसलन रोड और रेल जैसा आर्थिक गतिविधियों का ढांचा, लेकिन साथ ही ट्रेनिंग के लिए स्कूल-कॉलेज और स्वस्थ जीवन के लिए खेलकूद और अस्पताल जैसी सुविधाएं। लेकिन इन सबकी कल्पना आज इंटरनेट के बिना नहीं की जा सकती।
 
कश्मीर के मामले में भी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला दिया है और कहा है कि वहां लगाए गए प्रतिबंध के कदम अस्थायी हैं। लेकिन लोगों को प्रतिबंधों का पता तो होना चाहिए। यहां सरकारों की पारदर्शिता जरूरी है ताकि लोग समझ सकें कि सुरक्षा और सुविधा मुहैया कराने की सरकार की जिम्मेदारी में संतुलन है या नहीं।
सरकारों और राजनीतिक दलों को इस बात के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी कि लोगों का भरोसा उनमें कम न होने लगे। अगर ऐसा होता है तो यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए यह 'अच्छी बात नहीं' होगी।
 
रिपोर्ट महेश झा

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