रिपोर्ट चारु कार्तिकेय
गैरसरकारी संगठन सीएमआईई ने दावा किया है कि भारत में बेरोजगारी की दर गिर रही है और वो महामारी से पहले के स्तर पर आ चुकी है। लेकिन क्या वाकई ऐसा हुआ है?
गैरसरकारी संगठन सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी (सीएमआईई) ने दावा किया है कि भारत में बेरोजगारी की दर गिर रही है और वो महामारी से पहले के स्तर पर आ चुकी है। अगर यह रिपोर्ट सही है तो इसका मतलब है तालाबंदी में ढील दिए जाने के बाद आर्थिक गतिविधि फिर से शुरू हुई है और रोजगार का सृजन हुआ है। लेकिन क्या वाकई ऐसा हुआ है?
सीएमआईई ने पिछले कुछ महीनों में कहा था कि जो बेरोजगारी दर मार्च में 8.75 प्रतिशत थी, वह अप्रैल में बढ़कर 23.5 और मई में 27.1 प्रतिशत तक चली गई थी, लेकिन जून में इसमें गिरावट देखने को मिली। संस्था के अनुसार जून में बेरोजगारी दर गिरकर पहले 17.5 पर पहुंची, फिर 11.6 पर और फिर 8.5 पर पहुंच गई। सीएमआईई के अनुसार यह गिरावट मुख्य रूप से ग्रामीण बेरोजगारी के गिरने की वजह से आई है।
शहरी बेरोजगारी में भी गिरावट आई है लेकिन यह अब भी 11.2 प्रतिशत पर है, जबकि तालाबंदी से पहले यह औसत 9 प्रतिशत पर थी। इसके विपरीत ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार में बड़ा बदलाव आया है। ग्रामीण बेरोजगारी दर तालाबंदी से पहले मार्च में 8.3 प्रतिशत थी, तालाबंदी के दौरान यह औसत 20 प्रतिशत पर रही लेकिन जून में यह तालाबंदी से पहले के भी स्तर से नीचे गिरकर 7.26 पर आ गई।
ग्रामीण बेरोजगारी के गिरने का सच
सीएमआईई का कहना है कि वैसे तो तालाबंदी में ढील दिए जाने से बेरोजगारी का दबाव सामान्य रूप से कम ही हुआ है। ऐसा लगता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में फायदा मनरेगा के तहत गतिविधियों के बढ़ने से और खरीफ की फसल की बुवाई में हुई वृद्धि की वजह से हुआ है। मई में मनरेगा के तहत 56.5 करोड़ श्रम दिन दर्ज किए गए और 3.3 करोड़ परिवारों को इस योजना का लाभ मिला, जो कि सिर्फ तालाबंदी से पहले के मुकाबले ही नहीं, बल्कि 1 साल पहले की भी अवधि के मुकाबले भी बड़ी उछाल है।
सीएमआईई का यह भी कहना है कि दक्षिण-पश्चिमी मानसून समय से शुरू हुआ और मध्य और पश्चिम भारत में समय से पहले पहुंचा। पहले पखवाड़े में लंबी अवधि के औसत से 32 प्रतिशत ज्यादा बारिश हुई और इसकी वजह से खरीफ की बुवाई पिछले साल के मुकाबले 39.4 प्रतिशत ज्यादा हुई।
अर्थशास्त्री आमिर उल्ला खान कहते हैं कि सीएमआईई का डाटा काफी विश्वसनीय रहा है इसलिए कोई कारण नहीं है कि इस डाटा पर विश्वास नहीं किया जाए। लेकिन वे यह भी कहते हैं कि समस्या यह है कि रोजगार के आंकड़ों में उछाल के बावजूद खपत नहीं बढ़ी होगी और आर्थिक विकास से सीधा जुड़ाव खपत का है।
आंकड़ों का आधार पुराना
कुछ और विशेषज्ञ तो मनरेगा और मौसमी कृषि गतिविधि के दम पर दर्ज की गई रोजगार में इस वृद्धि को असली वृद्धि मानते ही नहीं हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं कि सबसे पहले तो सीएमआईई जिस आधार पर आंकड़ों का आकलन कर रहा है, वे पुराने हैं और अब प्रासंगिक नहीं हैं।
इसके अलावा उनका मानना है कि जो व्यक्ति शहर में किसी नियमित रोजगार या स्वरोजगार में था और वो सब बंद हो जाने से उसने गांव जाकर मनरेगा के तहत कुछ काम किया तो इसे रोजगार के आंकड़ों में नहीं जोड़ना चाहिए, क्योंकि वह व्यक्ति जिस तरह का काम कर रहा था और उससे उसकी जिस तरह की आय हो रही थी उसे न तो वैसा काम मिला और न ही वैसी आय।
अरुण कुमार यह भी कहते हैं कि इस वजह से यह संकेत देना कि अर्थव्यवस्था महामारी से पहले के स्तर की तरफ लौट रही है, भ्रामक है, क्योंकि सच्चाई इस से कहीं दूर है। वे कहते हैं कि अगर ग्रामीण अर्थव्यवस्था की ही बात की जाए तो कृषि का हाल भी बहुत बुरा है, क्योंकि कृषि उत्पादों के दाम पहले से भी बहुत ही नीचे स्तर पर हैं।
मनरेगा में स्थिति अच्छी नहीं
इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट में सेंटर फॉर एम्प्लॉयमेंट स्टडीज के डायरेक्टर प्रोफेसर रवि श्रीवास्तव भी सीएमआईई के आंकड़ों को सही नहीं मानते, क्योंकि उनका कहना है कि वो जिन दूसरे तथ्यों को देख रहे हैं, वे इन आंकड़ों की जरा भी पुष्टि नहीं करते।
उनका कहना है कि शहरों से तो अभी भी गांवों की तरफ पलायन ही चल रहा है, जो कि शहरों में नौकरियां न होने का सबूत है। जहां तक गांवों की बात है तो रवि श्रीवास्तव कहते हैं कि कहीं तो लोगों के अभी तक मनरेगा के जॉब कार्ड ही नहीं बने हैं और जहां बने हैं, वहां 5-7 दिनों में 1 दिन काम मिलने की खबर आ रही है।
रवि श्रीवास्तव यह भी कहते हैं कि सीएमआईई ने तालाबंदी के दौरान भी जब 27 प्रतिशत बेरोजगारी के आंकड़े दिए थे तब कई दूसरी संस्थाओं के आंकड़े 50 से 60 प्रतिशत बेरोजगारी दिखा रहे थे। इसके अलावा वे यह भी कहते हैं कि संस्था के अपने आंकड़ों में विषमता भी है, क्योंकि तालाबंदी के दौरान के आंकड़ों में भी इनके बेरोजगारी के आंकड़ों और आय और खपत के आंकड़ों में बहुत बड़ा अंतर था।
हालांकि सरकारी आंकड़ों के अभाव में इन आंकड़ों को पूरी तरह से मान लेना या नकार देना मुश्किल है। असलियत क्या है, यह जानने के लिए अभी कुछ और अध्ययनों का इंतजार करना पड़ेगा।