संस्कृत की पृथक वेदशाला राजोपाध्याय निवास में 1875 में प्रारंभ हुई थी। विद्यार्थियों संख्या निरंतर बढ़ती गई और बाद में उसका स्वरूप महाविद्यालय ने ग्रहण कर लिया। 1886-87 में यहां अध्ययन करने वाले छात्रों की संख्या 202 तथा प्राध्यापकों की संख्या 11 थी। संस्कृत महाविद्यालय का वर्तमान भवन जब बनकर तैयार हो गया, तो 1892 ई. में वेदशाला को भी इसी भवन में स्थानांतरित कर दिया गया। इस महाविद्यालय के वार्षिक व्यय हेतु राज्य द्वारा जो खर्च किया जाता था, उसके अतिरिक्त 2000 रु. राज्य के चेरिटेबल विभाग से भी प्रतिवर्ष इस संस्था को दिए जाने लगे।
1891 में होलकर महाविद्यालय की स्थापना के समय वहां भी संस्कृत विभाग खोला गया। विभागाध्यक्ष प्रो. पाटनकर को बनाया गया, जिन्होंने संस्कृत शिक्षा के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। 1898 में उनकी सेवानिवृत्ति पर प्रो. दिनकर सीताराम घाटे की नियुक्ति की गई।
प्रो. पाटनकर की सेवानिवृत्ति के अवसर पर तत्कालीन शिक्षा अधिकारी प्रो. कालमन डेली ने कहा- 'प्रो. पाटनकर की साधना के फलस्वरूप ही होलकर महाविद्यालय के कई विद्यार्थियों ने 'संस्कृत ऑनर्स' की उपाधियां प्राप्त कर संस्था को गौरवान्वित किया है।'
महाराजा तुकोजीराव (तृतीय) की शिक्षा-दीक्षा के लिए संस्कृत विद्वान श्री रामानुज आचार्य को 1901 में नियुक्त किया गया था। उन्हें समस्त होलकर राज्य के लिए संस्कृत शिक्षा अधिकारी भी बनाया गया। उनके बाद इस पद का दायित्व पंडित शादीराम शर्मा द्वारा संभाला गया।
इंदौर नगर में संस्कृत का अध्ययन निरंतर लोकप्रिय होता जा रहा था। 1911 तक नगर में संस्कृत पाठशालाओं की संख्या बढ़कर 13 हो गई थी। उधर 1916 तक वेदशाला में अध्ययन करने वाले छात्रों की संख्या भी बढ़कर 269 तक जा पहुंची थी। उल्लेखनीय है कि उसी वर्ष इस संस्था का नाम बदलकर 'संस्कृत महाविद्यालय' कर दिया गया और वार्षिक व्यय के रूप में 16,900 रु. का प्रावधान भी किया गया। प्रो. जगन्नाथ शास्त्री टुल्लू को इस महाविद्यालय का प्रथम प्राचार्य होने का गौरव प्राप्त हुआ तभी इस संस्था से 'त्रैमामिकम्' नामक पत्रिका का प्रकाशन भी आरंभ हुआ।
1925 ई. में श्री टुल्लू की मानसिक दशा खराब हो जाने से उनके स्थान पर पंडितरत्न श्रीपाद शास्त्री वेदांत तीर्थ सांख्य सागर को संस्कृत महाविद्यालय का प्राचार्य बनाया गया।
छात्राओं का प्रवेश इस संस्था में वर्जित था जिसे राज्य ने 1924 में समाप्त कर दिया। 1925 में एक छात्रा ने और 1926 में 6 छात्राओं ने इस संस्था में प्रवेश लेकर स्त्री शिक्षा की दिशा में नया घोष किया। छात्राओं के साथ-साथ ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य जातियों के विद्यार्थियों को भी इस महाविद्यालय में प्रवेश नहीं दिया जाता था किंतु 1925 में ही राज्य ने एक आदेश जारी कर सभी जातियों के लिए इस महाविद्यालय में शिक्षा सुलभ करवा दी। होलकर राज्य द्वारा उठाया गया यह कदम सराहनीय था।
बिजलपुर का नार्मल स्कूल
इंदौर नगर व होलकर राज्य में शिक्षा प्रसार के साथ-साथ प्रशिक्षित शिक्षकों की आवश्यकता भी महसूस की जाने लगी थी। शिक्षक पद सम्मान व प्रतिष्ठा का प्रतीक था। अत: उनमें कर्तव्यनिष्ठा और व्यवस्थित अध्यापन शैली का विकास करने के उद्देश्य से एक नार्मल स्कूल (वर्तमान राजेन्द्रनगर नाके के पास) की स्थापना की गई। 6 जून 1882 को इस संस्था का उद्घाटन इंदौर स्थित भारत सरकार के गवर्नर जनरल के एजेंट ने किया था।
इस विद्यालय में ऐसे लोगों को प्रशिक्षित किया जाता था, जो होलकर राज्य के शिक्षा विभाग में या तो शिक्षक थे या जो प्रशिक्षित होकर शिक्षक बनना चाहते थे। इस स्कूल की स्थापना के प्रथम वर्ष में ही 10 छात्रों ने इसमें प्रवेश लिया। प्रत्येक छात्र को उसी वर्ष से 30 रु. प्रतिमाह की राशि छात्र कल्याण के रूप में उपलब्ध कराई गई थी।
इस विद्यालय के प्रथम प्राचार्य श्री वासुवेद बल्लाल मुल्ये थे, जो उत्तरी क्षेत्र के प्रमुख स्कूल निरीक्षक के रूप में कार्यरत थे। नगर के बाहर से आकर अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के लिए 1904 में नार्मल स्कूल में एक छात्रावास भवन निर्मित किया गया।
1917 तक इस विद्यालय में एकवर्षीय प्रशिक्षण कार्यक्रम चलता था, जिसे बढ़ाकर 1917 में द्विवर्षीय कर दिया गया। विद्यार्थियों की प्रवेश क्षमता भी 30 से बढ़ाकर 50 कर दी गई। 31 दिसंबर 1926 में इस विद्यालय में 46 विद्यार्थी शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे। उसी वर्ष से इस विद्यालय में प्रवेश चाहने वाले विद्यार्थियों का शैक्षणिक स्तर बढ़ाकर वर्नाकुलर फायनल कक्षा तक कर दिया गया। इस परिवर्तन के कारण अधिक शिक्षित व्यक्ति शिक्षक के रूप में प्राप्त होने लगे। इन विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य की ओर से 15 रु. प्रतिमाह शिष्यवृत्ति भी दी जाती थी। उल्लेखनीय है कि इस राशि से उस समय एक तोला सोना खरीदा जा सकता था। इस प्रतिमान से यह शिष्यवृत्ति पर्याप्त कही जा सकती है।