इंदौर के वाणिज्य-व्यापार व राज्य की व्यापारिक नीति निर्धारित करने में 'ग्यारह पंच' नामक संस्था का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। महाराजा हरिराव होलकर के शासनकाल (17 अप्रैल 1834 - 24 अक्टूबर 1843 ई.) में इस संस्था की स्थापना इंदौर नगर में की गई। यह इंदौर का 'वाणिज्य मंडल' कहा जा सकता है। यद्यपि यह एक अशासकीय संस्था थी लेकिन इसका सदस्य होना अत्यंत सम्मानजनक व गौरवपूर्ण माना जाता था। व्यापारी कई बार उलाहने में कह दिया करते थे, 'अमुक आदमी को तो देखो, अपने आपको ग्यारह पंचों में से एक समझता है।' यह वाक्य इस संस्था के महत्व को दर्शाता है।
महाराजा तुकोजीराव (द्वितीय) के शासनकाल में इस संस्था को नवजीवन प्रदान किया गया। इसमें नगर के 11 प्रमुख व्यापारियों को सम्मिलित किया जाता था। यह संस्था दीवानी न्यायालय का भी काम करती थी। इसमें किसी सदस्य की मृत्यु हो जाने, दीवाला निकल जाने या अक्षमता से जब कभी कोई स्थान रिक्त होता था तो उसकी पूर्ति करने के लिए बाकायदा दरबार से परामर्श लिया जाता था।
महाराजा तुकोजीराव को व्यापार-वाणिज्य में बहुत रुचि थी, वे प्राय: इस संस्था से सलाह-मशविरा किया करते थे। व्यापारिक विवादों, धन का लेन-देन तथा हुण्डियों व दीवाले से संबंधित झगड़ों का निर्णय इस संस्था के द्वारा किया जाता था। प्रभावशाली व्यापारी इसके सदस्य थे अत: उनका प्रभाव व्यापारियों पर दोहरा था। इन विवादों को दीवानी न्यायालयों से बचाया गया था ताकि शीघ्र निर्णय हो सकें।
'ग्यारह पंचों' को बहुत सामाजिक सम्मान प्राप्त था। दरबार में होने वाले उत्सवों व विशेष समारोहों के अवसरों पर इसके सदस्यों को सादर आमंत्रित किया जाता था। इसके कई सदस्यों को महाराजा ने अवैतनिक न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त किया था।
1855 ई. में इस संस्था के 11 पंचों के नाम इस प्रकार थे- पद्मसी नैनसी, प्रतापचंद हिम्मतराम, सवाईराम हिम्मतराम, विट्ठल महादेव, गणेशदास किसनाजी, मायाराम श्रीराम, घनरुपमल जव्हारमल, गोविंदराम, सूरतराम, सदाशिव बद्रीनाथ, घमंडसी जव्हारमल तथा रामसुख गंगाविसन।
इंदौर नगर के उक्त व्यापारिक संस्थान अग्रणी थे व्यापार-व्यवसाय व सामाजिक सम्मान दोनों में। व्यापारियों के बीच उत्पन्न लगभग सभी दीवानी प्रकरणों का समाधान इन्हीं पंचों के द्वारा किया जाता था, जो शासन को मान्य होता था। 1877 से इस संस्था को दीवाले के मामलों का निर्णय करने के न्यायालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया।
पंचों की बैठक प्राय: रविवार को होती थी। यदि एक बैठक में निर्णय नहीं हो पाता तो अगली बैठक में कार्रवाई जारी रखी जाती थी। बैठक के आयोजन व संबंधित पक्षों को सूचना भेजने के लिए राजकीय कर्मचारियों की सहायता प्राप्त थी।
महाराजा शिवाजीराव ने इस संस्था को और अधिक सम्मान देते हुए 1892 से इस संस्था के समक्ष संपन्न की जाने वाली कार्रवाई को 'न्यायालयीन कार्रवाई' का दर्जा प्रदान किया।
इस संस्था को 'नादारी न्यायालय' के नाम से भी संबोधित किया जाने लगा। पंचों में भी कई बार कुछ मामलों पर मतभेद उठ खड़े होते थे, ऐसी स्थिति में मामला 'सदर न्यायालय' को भेजा जाता था।
समय के साथ सदस्यों की मृत्यु या अन्य कारणों से समय-समय पर ग्यारह पंचों में परिवर्तन होते रहे। 1923 में महाराजा तुकोजीराव (तृतीय) के शासनकाल में इस संस्था के सदस्यों की सूची में प्रथम नाम पद्मसी नैनसी का ही था, जो 1855 में भी प्रथम स्थान पर थे। उनके पश्चात सरूपचंदजी हुकुमचंद, घमंडसी जुव्हारमल, बखतरामजी बछराजजी, बलदेवदासजी गोरखरामजी, बिनोदीरामजी बालचंदजी, रामप्रतापजी हरविलासजी, सोजीरामजी सालगरामजी, सरूपचंदजी भागीरथजी, तिलोकचंदजी कल्याणमलजी तथा ग्यारहवां स्थान गोपालदासजी जीवनदासजी के देहांत के कारण रिक्त था।
आज से डेढ़ सदी से भी अधिक समय पूर्व स्थापित इस संस्था ने नगर में अनेक जन-कल्याण के कार्य भी संपन्न करवाए हैं। महाराजा यशवंतराव चिकित्सालय के समीप निर्मित 'कैंसर चिकित्सालय' का भवन इस संस्था के गौरवमयी इतिहास को जीवित किए हुए है।
केनेडियन मिशन को दान में मिली भूमि
मंदसौर की संधि (1818 ई.) के बाद इंदौर में ब्रिटिश रेसीडेंसी स्थापित हुई जिसमें कार्य करने हेतु अनेक अंगरेज अधिकारी व उनके परिवार भी रेसीडेंसी में आकर रहने लगे। धीरे-धीरे धर्म प्रचारक आए जो केनेडियन मिशन से जुड़े थे। 1883 ई. तक उनका अपना कोई भवन या गिरजाघर इंदौर में न था, जहां से अपना धर्म प्रचार कर पाते। प्राय: वे सड़कों के किनारे समूह एकत्रित कर धर्म प्रचार करते थे। इस प्रकार के कार्यों पर होलकर दरबार ने प्रतिबंध लगा दिया था, जिसके विरुद्ध पादरी लोग इस मामले को भारत के गवर्नर जनरल तक ले गए किंतु वे भी कुछ न कर पाए।
हारकर केनेडियन मिशन के पादरीगण खासगी जागीर की अधिकारिणी भागीरथीबाई मां साहेबा के पास गए और याचना की कि वे नगर में विद्यालय व चिकित्सालय स्थापित करना चाहते हैं। उन्होंने गिरजाघर बनाने की इच्छा भी जाहिर की। खासगी के अंतर्गत देशभर में स्थापित होलकर धार्मिक संस्थानों की देखभाल व रख-रखाव किया जाता था। मां साहेबा ने उदारतापूर्वक इंदौर नगर में भूमि दान में दे देने की इच्छा से प्रस्ताव महाराजा शिवाजीराव होलकर के पास भिजवाया जिसे उन्होंने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी।
इस संदर्भ में होलकर दरबार ऑफिस केपत्र क्रमांक 594 दिनांक 23 नवंबर 1888 ई. में रेसीडेंसी अधिकारी कैप्टन एल.पी. न्यूयॉर्क को लिखा गया- '13 नवंबर 1888 के आपके अर्द्ध शासकीय पत्र के उत्तर में सहर्ष सूचित किया जाता है कि महारानी भागीरथीबाई द्वारा दान में दिया गया भूमि का रकबा महाराजा होलकर द्वारा अनुमोदित कर दिया गया है। जैसा कि आपके पूर्व पत्र में उल्लेखित है- 4 एकड़ तथा 6 बांस भूमि केनेडियन मिशन को चिकित्सालय तथा स्कूल भवन बनाने के लिए दान में दी गई है। इस दान पर वे सभी शर्तें लागू होंगी जो मेरे पूर्ववर्ती अधिकारी ने उसके अर्द्ध शासकीय पत्र दिनांक 1 दिसंबर 1887 में रेव्ह. जॉन विल्की को लिख भेजी थीं। भूमि मिशन को हस्तांतरित किए जाने के आदेश जारी कर दिए गए हैं।'
उल्लेखनीय है कि इसी दान की भूमि पर वर्तमान क्रिश्चियन कॉलेज परिसर, मिशन हॉस्पिटल, गिरजाघर व हॉस्टल अवस्थित हैं। इन संस्थाओं के माध्यम से शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्रों में मिशन ने उल्लेखनीय सेवाएं नगरवासियों व आसपास के ग्रामीणों को दी हैं। महाराजा यशवंतराव चिकित्सालय के निर्माण के पूर्व तक इंदौर नगर में मिशन हॉस्पिटल निर्धन लोगों की चिकित्सा का महत्वपूर्ण केंद्र था।
महिला एवं बाल कल्याणकारी स्वयंसेवी संस्थाएं
नगर में कल्याणकारी सामाजिक गतिविधियों को संचालित करने वाली अनेक पारमार्थिक स्वयंसेवी संस्थाएं स्थापित हुईं जिनमें से अधिकांश महिला एवं बाल विकास के क्षेत्र में सक्रिय रही हैं।
इस क्षेत्र में सर्वप्रथम 1918 में सरस्वती महिला सेवा संघ की स्थापना हुई, जो 1937 में विधिवत पंजीकृत हुई। इस संस्था ने महिलाओं और विशेषकर निराश्रित महिलाओं को सिलाई व कढ़ाई का प्रशिक्षण देकर उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया। महाराजा होलकर ने इस संस्था के भवन निर्माण हेतु भूमि दान में दी थी जिस पर संस्था ने धन-संग्रह कर 1948 में भवन का निर्माण करवाया। बाद में इस भवन का और विस्तार कर इसमें गांधी बाल वाचनालय, मांटेसरी स्कूल व महिलाओं के लिए सिलाई-कढ़ाई में डिप्लोमा कोर्स प्रारंभ कर दिया।
केंद्रीय व राज्य के समाज कल्याण विभाग से संस्था अनुदान पाती रही है। 1950 में 2 स्वयंसेवी संगठन बने। पहला राज कला निकेतन और दूसरा डॉ. चोइथराम गिडवानी नारी उद्योग शाला। दोनों संस्थाओं ने महिलाओं के लिए सिलाई-कढ़ाई में डिप्लोमा कोर्स प्रारंभ किए व बालवाड़ी स्थापित की। राज कला निकेतन ने अपनी गतिविधियों का विस्तार करते हुए प्रौढ़ शिक्षा कक्षाओं तथा हिन्दी परीक्षा कक्षाओं का संचालन प्रारंभ किया। बाल निकेतन व एक प्राथमिक शाला भी प्रारंभ की गई।
1955 व 1957 में भी 2 नई स्वयंसेवी संस्थाएं महिला कल्याण व बाल विकास के ध्येय से गठित हुईं- पहली महिला कला केंद्र व दूसरी थी गंगवाल महिला कला निकेतन।
महिला कला केंद्र का ध्येय नारी जागरण और विशेषकर मध्यमवर्गीय महिलाओं को सिलाई, बुनाई व कढ़ाई तथा हस्तशिल्प द्वारा अनेक उपयोगी वस्तुओं के निर्माण का प्रशिक्षण प्रदान कर उन्हें आर्थिक स्वावलंबन प्रदान करना था। संस्था ने हिन्दी परीक्षा व प्रौढ़ शिक्षा विस्तार के लिए भी कक्षाएं संचालित कीं। संस्था का अपना भवन है जिसमें उक्त गतिविधियां चलाई जाती हैं।
श्री गंगवाल महिला कला निकेतन की गतिविधियां भी लगभग वही थीं, जो महिला कला केंद्र द्वारा संचालित की जा रही थीं। राष्ट्रीय त्योहारों को संस्था में बड़े उत्साह से आयोजित किया जाता रहा। संस्था को श्री गंगवाल ट्रस्ट फंड, समाज कल्याण विभाग व शिक्षा विभाग से अनुदान प्राप्त होता रहा है।
बच्चों के कल्याण के लिए इंदौर में बालोदय समाज की स्थापना 1953 में हुई। यह संस्था सेंट्रल वेलफेयर बोर्ड से संबद्ध थी। 1954 में इसका पंजीयन हुआ और पंजीयन के बाद नगर में 3 बाल कल्याण केंद्र प्रारंभ किए गए जिसमें लगभग 600 बच्चों को लाभ पहुंचाया जाता था। बाल वाचनालय व ग्रंथालय स्थापित कर बाल मनोविज्ञान व बच्चों के लिए रोचक व प्रेरक पुस्तकें इस ग्रंथालय में संकलित की गईं।
इन सभी स्वयंसेवी संस्थाओं के सामूहिक प्रयासों से नगर में महिला शिक्षा, प्रशिक्षण व सामान्य चेतना का विकास प्रारंभ हुआ। महिलाएं घर में रहकर ही सिलाई द्वारा अर्थोपार्जन करने लगीं। धीरे-धीरे इंदौर रेडीमेड वस्त्रों के निर्माण में अग्रणी नगर बन गया।
वस्त्र दलाल संघ ने चलाया बाल विनय मंदिर
इंदौर वस्त्र उद्योग व वस्त्र व्यापार का मध्य हिन्दुस्तान में एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। नगर में कपड़ा मिलों की स्थापना ने इस व्यापार को और अधिक प्रोत्साहित किया। महाराजा तुकोजीराव क्लॉथ मार्केट (एम.टी. क्लॉथ मार्केट) थोक-वस्त्र व्यापार का आज भी सबसे बड़ा केंद्र है। प्रदेश के अनेक छोटे वस्त्र व्यापारी दलालों के माध्यम से वस्त्र क्रय करते आए हैं। इस प्रकार के सौदों पर दलालों को कमीशन प्राप्त होता रहा है। इस व्यापार में लगे दलालों ने 1914 में ही अपना संघ स्थापित कर लिया था।
इस संघ ने सामान्य हितों की रक्षा के साथ-साथ पारमार्थिक कार्य करने का भी संकल्प लिया, जो सामाजिक दायित्वों के प्रति उनकी जागरूकता का बोध कराता है। सभी दलालों ने मिलकर निर्णय लिया कि एक रु. में से एक आना वे पारमार्थिक कार्यों के लिए स्थापित निधि में दान देंगे। बाद में इस दान की राशि को प्रति रुपए की कमाई पर आधा आना कर दिया गया। यद्यपि देखने में यह राशि बहुत कम प्रतीत होती है किंतु प्रतिदिन की अनेक दलालों की कमाई से, जो सैकड़ों रुपयों में होती थी, काफी धन संचित होने लगा।
अपनी स्थापना के 22 वर्षों पश्चात इस संघ ने 1936 में 12,500 रु. की लागत से दलाल भवन का निर्माण करवाया। 1951-52 तक इस संस्था की औसतन वार्षिक आय लगभग 8,500 थी, जो काफी थी। संस्था के पास जब पर्याप्त निधि संचित हो गई तो इसके कुछ प्रगतिशील सदस्यों ने शिक्षा-विस्तार के क्षेत्र में कार्य करने का प्रस्ताव रखा। यह उल्लेखनीय है कि 1945 से एक विद्यालय इस संस्था द्वारा चलाया जा रहा था, जो पुरानी व्यवस्था के अनुसार संचालित हो रहा था। इन 7 वर्षों की अवधि में संस्था ने इस विद्यालय के संचालन पर 4,150 रु. व्यय किए थे। इसी राशि में से निर्धन विद्यार्थियों को पुस्तकों तथा स्कॉलरशिप पर भी व्यय किया गया था।
काफी विचार-विमर्श के पश्चात उक्त विद्यालय को ही बाल विनय मंदिर के रूप में परिवर्तित किए जाने का निर्णय लिया गया। 1952 में वर्तमान बाल विनय मंदिर स्थापित हुआ। इसके लिए काफी बड़ा भवन, खेल का मैदान और आवश्यक उपकरण उपलब्ध कराए गए।
3 वर्ष की आयु के बच्चों को मांटेसरी सिस्टम से इस संस्था में शिक्षा देनी प्रारंभ की गई व बाद में कक्षाओं को बढ़ाया गया। बच्चों को विद्यालय लाने-ले जाने के लिए बसें खरीदी गईं। संस्था के अभिलेख बताते हैं कि 1962 तक के 1 दशक में ही दलाल संघ ने इस विद्यालय पर 15,000 रु. व्यय किए थे। उसी वर्ष का वार्षिक व्यय लगभग 25,000 रु. था। संघ द्वारा निर्धन व मेधावी बच्चों को पुस्तकें व शिष्यवृत्तियां प्रदान की जाती रही हैं।
बाल विनय मंदिर नगर के प्रतिष्ठित विद्यालयों में गिना जाता रहा है, जहां के उच्च शैक्षणिक स्तर ने प्रदेश व नगर को अच्छे नागरिक, प्रशासक व बुद्धिजीवी दिए हैं।
कस्तूरबा आश्रम ने किए ग्रामीण जागृति के प्रयास
रालामंडल व उसके समीपवर्ती पर्वतीय व मैदानी इलाकों में घना जंगल हुआ करता था। इन जंगलों में सामान्य वन्य प्राणियों के साथ-साथ चीते व शेर भी थे, जिनका शिकार करने के लिए रालामंडल की पहाड़ी पर होलकर महाराजा ने शिकारगाह का निर्माण करवाया था।
देश की आजादी के पूर्व ही 1945 में महात्मा गांधी ने ग्रामीण महिलाओं व बच्चों की सेवा के लिए कस्तूरबा ट्रस्ट की स्थापना की थी। इसी ट्रस्ट का केंद्रीय कार्यालय इंदौर के उक्त शिकारगाह के समीप की भूमि पर 1951 ई. में स्थापित किया गया और उसका नाम कस्तूरबा ग्राम रखा गया। होलकरों के शिकार क्षेत्र को इस संस्था ने सामाजिक परिवर्तन के लिए एक महत्वपूर्ण प्रशिक्षण केंद्र के रूप में बदल दिया। इस संस्था ने अपनी स्थापना के बाद से ही ग्राम सेविका प्रशिक्षण प्रारंभ किया जिसमें अब तक सैकड़ों ऐसी महिलाओं को प्रशिक्षण दिया गया, जो ग्रामीण क्षेत्रों में महिला उत्थान व बालोदय की गतिविधियों में भाग लेना चाहती थीं।
1964 तक उस संस्था ने अखिल भारतीय ख्याति अर्जित कर ली थी। यह संस्था महिला प्रशिक्षण केंद्र के रूप में सारे देश में जानी जाने लगी थी। 1964 तक विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों एवं उनमें प्रशिक्षित महिलाओं की संख्या इस प्रकार थी- प्रि ग्राम सेविका ट्रेनिंग-34, बालवाड़ी ग्राम सेविका ट्रेनिंग-71, मिडवायफरी ट्रेनिंग-82, ग्राम सेविका ट्रेनिंग-355, मिडिल कन्डेन्स कोर्स-18, ग्राम सेविका (होम साइंस) 95, मुख्य सेविका ट्रेनिंग-231, प्रशिक्षक प्रशिक्षण-9, शांति सेना ट्रेनिंग-160 आदि।
1965 से इस संस्था ने अन्य प्रशिक्षण कार्यक्रम भी प्रारंभ किए जिनमें सभी योग्यताधारी इच्छुक महिलाओं का प्रवेश खुला रखा गया। संस्था ने समय-समय पर गांधी स्मारक निधि, सामुदायिक विकास विभाग, भारत सेवक समाज तथा अन्य समाज सेवी संगठनों को कस्तूरबा ग्राम में शिविरों का आयोजन करने में सहयोग प्रदान किया है। राष्ट्रीय सेवा योजना के कार्यक्रम अधिकारियों के प्रशिक्षण शिविर भी यहां आयोजित हुए हैं।
कस्तूरबा ग्राम के समीपवर्ती गांवों को प्रशिक्षुओं को व्यावहारिक ज्ञान देने के लिए चुना गया। इन ग्रामीणों से सतत संपर्क के कारण इस क्षेत्र में जागृति उत्पन्न करने में संस्था को उल्लेखनीय सफलताएं मिली हैं। विशेषकर गैर पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों का विकास, मवेशी नस्ल सुधार व डेरी उद्योग तथा कृषि में उन्नत बीजों के प्रयोग करने के लिए लोगों को प्रेरित किया जा सका है। लगभग 300 एकड़ क्षेत्र में यहां कृषि व गौ विकास के संयुक्त कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।
ट्रस्ट में प्रशिक्षणार्थियों के आवास व भोजन की उत्तम व्यवस्था है। प्रतिदिन होने वाली प्रार्थना से सारा वातावरण उद्वेलित हो उठता है। सादा जीवन उच्च विचार के आधार पर संचालित इस संस्था द्वारा अपनी त्रैमासिक पत्रिका 'कस्तूरबा दर्शन' का प्रकाशन यहां से होता रहा है। देश के अनेक नेताओं ने इस आश्रम की यात्रा की है और इसकी गतिविधियों को सराहा है।