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यशवंतराव (प्रथम) का प्रतिशोध

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अपना इंदौर

मराठा संघ के राजवंशों में होलकर राजवंश का स्थान विशिष्ट रहा है। जहां एक ओर देवी अहिल्या के गौरवपूर्ण कार्यों से इस वंश की कीर्ति सदा गुंजायमान रही, वहीं इस वंश के सर्वश्रेष्ठ योद्धा मालव केसरी महाराजा यशवंतराव (प्रथम) ने अपने अदम्य साहस, वीरता, पटुता और रण-निपुणता के बल पर पतनोन्मुख होलकर राज्य में नवजीवन का संचार किया। अंधकार में उनका उदय प्रकाश की एक किरण के रूप में हुआ जिसका उजियारा निरंतर फैलता ही गया। व्यक्तिगत वीरता एवं शौर्यपूर्ण कार्यों से उन्होंने सत्ता हस्तगत की। वे महाराजा तुकोजीराव (प्रथम) के पराक्रमी पुत्र थे। अपने राजनीतिक जीवन के आरंभिक वर्षों में उन्होंने भतीजे खंडेराव के नाम से शासन संचालित किया और वर्ष 1805 में वह स्वयं होलकर राज्य के सम्प्रभु के रूप में प्रकट हो गए। (सरदेसाई मराठों का नवीन इतिहास- जिल्द-3-पृ.-470)।
 
यशवंतराव जीवनपर्यंत फिरंगियों से जूझता रहे और अपनी सैनिक प्रतिभा के बल पर ही उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध सक्रिय सैनिक अभियान चलाए। उस काल में कोई भी देशी नरेश संकीर्ण राष्ट्रीयता की भावना से उठकर राष्ट्रीयता हेतु प्रयास करे, यह केवल कल्पना की बात थी, किंतु यशवंतराव होलकर के रक्त में नि:संदेह ब्रिटिश शक्तिको धराशायी कर देने की विद्रोही भावना व्याप्त थी। सेंट्रल इंडिया में बढ़ती हुई शक्ति के रूप में वे फिरंगियों के लिए एक चुनौती थे। वे मालव प्रदेश का प्रथम नरेश थे जिन्होंने अंगरेजों के विरुद्ध युद्ध का शंखनाद किया तथा अपने जीवनकाल में अंगरेजों को होलकर राज्य पर प्रभुत्व जमाने से रोके रखा।
 
ईस्ट इंडिया कंपनी ने सर जॉन शोर के पश्चात मार्क्विस वेलेजली (वर्ष 1798-1805) को ब्रिटिश भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त किया। उसके शासनकाल में भारत में महत्वपूर्ण उलटफेर हुए। मार्क्विस वेलेजली ने 2 अक्टूबर 1800 को कलकत्ते से अपने एक मित्र के नाम इंग्लैंड पत्र लिखा, जिसके निम्न वाक्यों से तथा स्वयं के भारतीय शासन के उद्देश्यों का स्पष्ट पता चलता है। वह लिखता है- 'मैं भारत में राजमुकुटों के ढेर के ढेर लगा दूंगा और फतह पर फतह तथा मालगुजारी पर मालगुजारी लाद दूंगा। मैं इतनी शान, विपुल धनराशि और इतनी सत्ता इकट्ठी कर लूंगा कि एक बार मेरे महत्वाकांक्षी और धन-लोलुप मालिक भी 'त्राहि-त्राहि' चिल्लाने लगेंगे।' (सुंदरलाल : भारत में अंगरेजी राज, जि. 1-पृ. 320) वेलेजली, देशी नरेशों के विनाश के लिए अति व्यग्र था। उसके इस कार्य में उसे दो अंगरेजअधिकारियों- डेविड बेयर्ड व मेजर कर्क पैट्रिक से अत्यधिक सहयोग प्राप्त हुआ।
 
भारत में उस समय ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभुत्व बड़ी तेजी से भारतीय नरेशों को क्रमश: ग्रसता ही जा रहा था। जिस छल-कपट अथवा कूटनीति द्वारा वेलेजली ने भारत में अपनी 'सबसीडियरी एलायंस' (सहायक संधि) का जाल बिछाया, उसी सशक्त माध्यम से उसने भारत के मुस्लिमों और मराठों को वश में किया। निजाम तथा पेशवा को फांसकर उन्हें कंपनी के अधीन बनाया। कर्नाटक के नवाब व वजीरों को ध्वस्त किया। सूरत व फर्रुखाबाद के नवाबों के इलाकों पर अतिक्रमण किया तथा हैदरअली व टीपू को अपने अधीनस्थ करने के पश्चात मराठा शक्तियां (सिंधिया व भोंसले भी) उसी सुनहरे कूटनीतिक जाल का शिकार होती चली गईं। फिरंगियों की दृष्टि में मालवा में केवल यशवंतराव होलकर ही शक्तिशाली, अपराजेय मराठा योद्धा शेष बच रहे थे। अंगरेजों को यशवंतराव की प्रगतियों का भान था। इसके अतिरिक्त वे यह भी जानते थे कि मालवा का वह स्वतंत्र सिंह बिना संघर्ष के ब्रिटिश प्रभुता स्वीकारने वाला नहीं है। यशवंतराव स्वयं भी, सिंधिया के पतन के पश्चात फिरंगियों के विरुद्ध सतर्क होकर शक्ति संचय में जुटे थे।
 
यशवंतराव की शक्ति से चिंतित हो जनरल वेलेजली ने लॉर्ड लेक को लिखा- 'यशवंतराव होलकर की अतुलनीय पराक्रमशीलता, अपराजेय युद्ध कौशल और उसकी महत्वाकांक्षाओं को देखते हुए भारतवर्ष में पूर्ण शांति कायम रखने के लिए यह आवश्यक प्रतीत होता है कि उसकी शक्ति को अत्यधिक कमजोर कर दिया जाए।' अंगरेजों को उस समय अपने भारतीय साम्राज्य का सुसंगठन करना था इसलिए वे भारत के अंदर विशेषकर मराठा शक्ति के स्रोतों को समाप्त कर देना चाहते थे। इसी बीच यशवंतराव होलकर को पता चला कि जनरल लेक उसकी सेना के तीन योरपीय अधिकारियों के साथ, जिनके नाम कैप्टन विर्कस, कैप्टन टाड और कैप्टन रॉयन थे, गुप्त षडयंत्र कर रहा था। ग्रांट डफ ने अपनी पुस्तक 'न्यू हिस्ट्री ऑफ दि मराठाज' के पृष्ठ 568 पर स्पष्ट लिखा है कि ये तीनों अपने स्वामी को त्यागकर अंगरेजों की ओर सम्मिलित हो जाना चाहते थे। यशवंतराव आंग्ल-सिंधिया संघर्ष के बाद अंगरेजों के गुप्त षड्‌यंत्रों से अत्यधिक सतर्क हो चुका था। अत: यशवंतराव ने उन तीनों विश्वासघातियों को मौत के घाट उतार दिया। (सुंदरलाल : जिल्द-1, पृष्ठ-467)। नि:संदेह यहां पर होलकर नरेश कीदूरदर्शिता का पता चलता है। लॉर्ड लेक को स्पष्ट भान हो चुका था कि यशवंतराव के सम्मुख उनकी साजिशों का सफल होना इतना सुगम न था, जितना सिंधिया के साथ।
 
जनवरी 1804 ई. में यशवंतराव ने तत्कालीन प्रमुख ब्रिटिश सैन्याधिकारी लॉर्ड लेक को अपनी मांगों से अवगत कराते हुए परंपरागत चौथ वसूलने का अधिकार तथा गंगा-जमुना के प्रदेश में स्थित बारह जिले व साथ में ही बुंदेलखंड जिले की मांग की। वह अंगरेजों से केवल उनके वादों की पूर्ति चाहता था। 1804 ई. को लॉर्ड लेक ने यशवंतराव की मांगों को अस्वीकार करते हुए लिखा- 'आपकी मांगें बेबुनियाद हैं और इस तरह की मांगें सुनना भी अंगरेज सरकार की शक्ति व शान के खिलाफ है।' यशवंतराव ने पत्र की प्रतिक्रिया-स्वरूप भयंकर आक्रोश में फरवरी 1804 ई. को जनरल वेलेजली को चुनौती भरे पत्र में लिखा- 'युद्ध की दशा में यद्यपि मैं समर भूमि में ब्रिटिश तोपखाने का सामना नहीं कर सकता तथापि सैकड़ों कोस का प्रदेश पददलित कर दूंगा। मैं उसे भस्मीभूत कर दूंगा तथा मैं फिरंगियों को एक क्षण भी सांस लेने तक की फुरसत नहीं दूंगा। मैं अपनी सेना के आक्रमणों द्वारा लाखों मनुष्यों को खून के आंसू रुलादूंगा। मेरी सेना के आक्रमण समुद्री तूफानी लहरों की भांति प्रलयंकारी होते हैं।' (दि डिसपेचेस मिनिट्‌स एंड कारस्पांडन्स ऑफ दि डन्स ऑफ मार्क्विस वेलेजली-जि.-3, पृ. 107)। यशवंतराव का पत्र फिरंगियों के लिए विस्फोटक सिद्ध हुआ। गवर्नर जनरल उसके पत्र को पाकर आगबबूला हो उठा। मार्क्विस वेलेजली ने 26 अप्रैल को एक गोपनीय पत्र द्वारा लॉर्ड लेक को सूचना दी कि 'मैं निश्चय कर चुका हूं कि जितनी जल्दी हो सके यशवंतराव होलकर के साथ युद्ध शुरू कर दिया जाए।' (सुंदरलाल : जिल्द-1, पृष्ठ 469)।
 
लॉर्ड लेक अपनी पुरानी आदतों के अनुसार यशवंतराव के विरुद्ध गुप्त साजिशों में लगा हुआ था। उसने यशवंतराव के विश्वस्त सहायक अमीर खां को भी अपने पक्ष में करने का भरपूर प्रयास किया। इस अवसर पर जनरल वेलेजली ने 2 मार्च, ई. 1804 को पूना से सर जॉन मालकम को लिखा- 'मर्सर अमीर खां के साथ समझौते के प्रयास कर रहा है और यदि उसने अमीर खां को यशवंतराव से फोड़ लिया तो यशवंतराव का खात्मा हो जाएगा।' (वही-पृष्ट-474)।
 
उस समय तक यशवंतराव के साथ गंभीर रूप से युद्ध आरंभ हो चुका था। फिरंगियों ने तीनों ओर से तीन सुदृढ़ सेनाएं यशवंतराव पर हमला करने के लिए तैयार कीं। सबसे प्रबल एवं विशाल सेना लॉर्ड लेक के अधीन, दूसरी सेना दक्षिण में कर्नल वेलेस के अधीन तथा तीसरी सेना गुजरात में कर्नल मरे के अधीन नियुक्त की गई। यशवंतराव पूर्व से ही मालवा में धन प्राप्ति हेतु विध्वंसकारी सैनिक अभियानों में संलग्न था। उसने धन संचय हेतु सिंधिया के अधिकार क्षेत्र में स्थित समृद्ध मंदसौर को लूटा। जब वह चंबल पार कर रहा था, तब कर्नल मानसन ने अनुकूल अवसर पाकर उस पर आक्रमण कर दिया।
 
24 अगस्त को बनास नदी पर भयानक युद्ध हुआ जिसमें ब्रिटिश सैनिक बड़ी संख्या में मारे गए। यशवंतराव के शौर्य के सम्मुख मानसन टिक न सका और उसे विवश होकर पलायन का सहारा लेना पड़ा। मानसन की पराजय ने समस्त ब्रिटिश शासन तंत्र को चौंका दिया था। मानसन का पलायन कंपनी के संचालकों के लिए लंबे समय तक कटु आलोचना का विषय बना रहा। प्रमुख सेनाध्यक्ष के आचरण की आलोचना करते हुए, एक अन्य स्थान पर आर्थर वेलेजली ने व्यक्त किया है- 'मानसन की तबाहियां सचमुच ही आज तक के हमारे किसी भी सैनिक आचरण में, सबसे बड़ी और सर्वाधिक शर्मनाक है।' (ओवेन : वेलेजली डिस्पेचेस-पृष्ठ-788)।
 
मानसन की तीखी पराजय से यशवंतराव के उत्साह में अत्यधिक वृद्धि हुई तथा उसने समस्त सैन्य दल के साथ उत्तर भारत की ओर रुख किया। उसने मथुरा पर अधिकार कर लिया तथा 8 अक्टूबर को दिल्ली पर टूट पड़ा। वेलेजली के सभी प्रयास उस मालव सिंह के भीषण आक्रमण को रोकने में असफल रहे। यशवंतराव के नाम से अंगरेज वैसे ही चौंकने लगे जैसे कुछ समय पूर्व हैदरअली व टीपू के नाम से चौंका करते थे। जनरल लेक ने यशवंतराव के आतंक से आतंकित हो एक स्थान पर लिखा है कि 'मैं उतना आतंकित कभी नहीं हुआ था, जितना इस शैतान के साथ। उसका व्यवहार विधि-संगत होता है जिसके कारण हमें भारी व्यय पर मैदान में सेना रखना पड़ रही है।' (मार्टिन : वेलेजलीज डिस्पेचेज भाग-4, पृष्ठ-46-47)
 
यशवंतराव के दिल्ली पर आक्रमण करते ही फिरंगियों में खलबली मच गई। लॉर्ड लेक, कर्नल बर्न तथा मेजर जनरल फ्रेजर उसका निरंतर पीछा कर रहे थे। ऐसी विकट परिस्थितियों में यशवंतराव को भरतपुर की ओर रुख करना पड़ा। 17 नवंबर को यशवंतराव फर्रुखाबाद पहुंच चुके थे। लॉर्ड लेक यहां पर भी उस पर आक्रमण करने का साहस न जुटा पाया और यशवंतराव निर्विघ्न अपनी सेना सहित डीग के किले में दाखिल हो गए।लेक की असफलता लॉर्ड वेलेजली के लिए एक घातक प्रहार था। लेक की इस असफलता पर गवर्नर जनरल ने उसे धैर्य बंधाते हुए लिखा- 'दुर्भाग्य की बात है कि होलकर आपसे बच निकला। जब तक उसे समूल नष्ट न कर दिया जाए अथवा उसे कैद न कर लिया जाए तब तक हमें संतोष नहीं मिल सकता।' (सुंदरलाल : जिल्द-1, पृष्ठ 490) अंतत: 13 दिसं. को डीग में अंगरेजों ने यशवंतराव को बुरी तरह परास्त कर दिया।
 
ब्रिटेन में भारत में लंबी लड़ी जाने वाली लड़ाइयां एवं उनमें किए गए भारी व्यय की कटुतम आलोचनाएं हो रही थीं। होलकर और भरतपुर के विरुद्ध संग्रामों में जनरल वेलेजली को अपमान के कड़वे घूंट पीने पड़े। मानसन के विपत्तिपूर्ण समाचारों से ब्रिटेन में लगभग भय की भावना उत्पन्न हो गई थी। इन सब बातों ने मिलकर वेलेजली को उसके देश में बदनाम करना शुरू किया। उसकी योग्यता के संबंध में लोगों के मन बदल चुके थे। अतंत: लॉर्ड वेलेजली को ब्रिटेन वापस बुला लिया गया तथा उसके स्थान पर 30 जुलाई 1805 ई. को लॉर्ड कॉर्नवॉलिस (1805-1806 ई.) भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त हुआ। कॉर्नवॉलिस भी वेलेजली के समान ही साम्राज्य पिपासु था। ब्रिटिश प्रधानमंत्री पिट कोउसकी प्रतिभा व दक्षता पर पूर्ण विश्वास था। कॉर्नवॉलिस भी ससम्मान एवं शांतिपूर्ण प्रयासों से होलकर के विरुद्ध चल रहे युद्ध को समाप्त कर देना चाहता था।
 
यशवंतराव पराजय की आत्मग्लानि से क्षुब्ध हो उठे। अत: फिरंगियों के दमन हेतु उन्होंने पंजाब के महाराजा रणजीतसिंह (1780-1839) से उनके दरबार में अपने प्रमुख व्यक्तियों सहित जाकर भेंट की। (खुशवंतसिंह : रणजीतसिंह महाराजा ऑफ दी पंजाब, पृ.-61) इस भेंट में यशवंतराव ने प्रस्ताव रखा कि 'यदि सिख ब्रिटिश सेना के विरुद्ध उसकी सहायता करेंगे तो वह सिख धर्म स्वीकर कर लेगा अन्यथा वह अपने आपको अफगान अमीर की दया पर छोड़ देगा और इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेगा।'
 
ज्यों ही ब्रिटिश अधिकारियों को इस चर्चा की सूचना मिली उन्होंने तुरंत इस योजना को विफल बनाने के लिए कूटनीतिक प्रयास आरंभ कर दिए। उन्होंने रणजीतसिंह के चाचा वाघसिंह को रणजीतसिंह के पास भेजा और उसे कहा कि वह अपने भतीजे को भली-भांति समझा दें कि उसे अपने हितों को ही सर्वोपरि महत्व देकर कोई कदम उठाना चाहिए। वाघसिंह को पहले तो इस प्रयास में अपमानित होना पड़ा, लेकिन अंतत: वह अपने उद्देश्य में सफल हो गया।
 
यशवंतरावने अपने चचेरे भाई को 29 नवंबर 1805 को लिखा कि मैंने पटियाला और अन्य स्थानों के सिख नरेशों से भेंट की। वे लोग मेरी ब्रिटिश विरोधी योजना में सम्मिलित होने के लिए तैयार हैं। मुझे लाहौर के रणजीतसिंह व अफगानिस्तान के शाह की ओर से अपने प्रयासों के विषय में मैत्रीपूर्ण संदेश मिले हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि मुझे सिखों का समर्थन प्राप्त होगा। इस समझौते से सिंधिया का विमुख हो जाना एक बहुत गंभीर क्षति है। सिंधिया ने अस्थाई स्वार्थ लालसा में राज्य का सर्वनाश किया है। मैं पूर्व स्थिति की पुन: स्थापना के लिए अभी भी आशान्वित हूं। (होलकर स्टेटस पेपर्स, मराठी जिल्द-2, पृष्ठ 72)।
 
यशवंतराव को सहायता के नाम पर प्रत्येक स्थान पर निराशा ही मिली। उसकी व्यक्तिगत वीरता चाहे जितनी उच्च क्यों न रही हो, अपरिमित ब्रिटिश शक्ति की तुलना में वह नहीं ठहर सकी थी। अंततोगत्वा विवश होकर यशवंतराव ने युद्ध समाप्ति की घोषणा कर दिसंबर 24, 1805 ई. को अंगरेजों से राजपुर घाट की संधि कर ली। इस संधि द्वारा उसने टोंक, रामपुरा, बूंदी तथा बूंदी पहाड़ के उत्तरी क्षेत्र से अपने दावों का परित्याग कर दिया। (सिलेक्शन फ्रॉम दि नागपुर रेसीडेंसी रेकॉड्‌र्स-जि.-1, पृ.-45-67)।
 
राजपुर घाट संधि के पश्चात यशवंतराव ने नागपुर के व्यंकोजी भोंसले को 15 फरवरी 1805 ई. को लिखा कि 'मराठी साम्राज्य को विदेशियों ने हड़प लिया है। ईश्वर ही जानता है कि उनके आक्रमणों के विरुद्ध पिछले ढाई वर्षों से मैंने प्रत्येक वस्तु की आहुति दी है और आए दिन बिना एक क्षण रुके हुए सतत संघर्ष करता रहा हूं। मैं दौलतराव सिंधिया के पास गया और उसे समझाया कि विदेशी सत्ता के विरुद्ध हम सबका एकजुट होना कितना आवश्यक है किंतु दौलतराव ने यह स्वीकार नहीं किया। हमारे पूर्वजों के पारस्परिक सहयोग व सद्‌भावना के आधार पर ही मराठा संघ का जन्म हुआ, किंतु अब हम लोग मनमानी करने लगे हैं। आपने मुझे लिखा था कि आप मेरी सहायता हेतु आ रहे हैं, किंतु आपने भी अपने वचन का पालन नहीं किया। आपने योजनानुसार यदि बंगाल पर आक्रमण किया होता तो हम ब्रिटिश सत्ता को धराशायी करने में सफल हो सकते थे। बीती हुई बातों पर अब चर्चा करना व्यर्थ है। जब मैंने देखा कि मैं मझधार में फंस चुका हूं तब विवश होकर मैंने ब्रिटिश एजेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर युद्ध समाप्ति की घोषणा की।'
 
*एम. रायकवार
 
(आलेख नईदुनिया गणतंत्र दिवस विशेषांक 1977)

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