यह कहानी कई तरह से सुनाई जाती है, लेकिन ओशो रजनीश ने बड़े ही सुंदर तरीके से इसे सुनाया है। ओशी की 'अष्टावक्र महागीता' प्रवचन माला से यह कथा साभार।
भगवान राम के काल में थे अष्टावक्र ऋषि। अष्टावक्र की माता का नाम सुजाता था। उनके पिता कहोड़ वेदपाठी और प्रकांड पंडित थे। राज्य में उनसे कोई शास्त्रार्थ में जीत नहीं सकता था। अष्टावक्र जब गर्भ में थे तब रोज उनके पिता से वेद सुनते थे। एक दिन उनसे रहा नहीं गया और गर्भ से ही कह बैठे- 'रुको यह सब बकवास, शास्त्रों में ज्ञान कहां? ज्ञान तो स्वयं के भीतर है।'
यह सुनते ही उनके पिता क्रोधित हो गए। पंडित का अहंकार जाग उठा। क्रोध में अभिशाप दे दिया- 'जा...जब पैदा होगा तो आठ अंगों से टेढ़ा होगा।' इसीलिए उनका नाम अष्टावक्र पड़ा।
अष्टावक्र जब बारह वर्ष के थे तब राजा जनक ने विशाल शास्त्रार्थ सम्मेलन का आयोजन किया। जनक ने आयोजन स्थल के समक्ष 1000 गाएं बांध दीं। गायों के सींगों पर सोना मढ़ दिया और गले में हीरे-जवाहरात लटका दिए और कह दिया कि जो भी विवाद में विजेता होगा वह ये गाएं हांककर ले जाए।
संध्या होते-होते खबर आई कि अष्टावक्र के पिता हार रहे हैं। सबसे तो जीत चुके थे लेकिन वंदनि नामक एक पंडित से हार रहे थे। यह खबर सुनकर अष्टावक्र खेल-क्रीड़ा छोड़कर राजमहल पहुंच गए। अष्टावक्र भरी सभा में जाकर खड़े हो गए। उनका आठ जगहों से टेढ़ा-मेढ़ा शरीर देखकर सारी सभा हंसने लगी। अष्टावक्र यह नजारा देखकर सभाजनों से भी ज्यादा जोर से खिलखिलाकर हंसे।
जनक ने पूछा, 'सब हंसते हैं, वह तो मैं समझ सकता हूं, लेकिन बेटे, तेरे हंसने का कारण बता?
अष्टावक्र ने कहा, 'मैं इसलिए हंस रहा हूं कि इन चमारों की सभा में सत्य का निर्णय हो रहा है, आश्चर्य! ये चमार यहां क्या कर रहे हैं।'
सारी सभा में सन्नाटा छा गया। सब अवाक् रह गए। राजा जनक खुद भी सन्न रह गए। उन्होंने बड़े संयत भाव से पूछा, 'चमार!!! तेरा मतलब क्या?'
अष्टाव्रक ने कहा, 'सीधी-सी बात है। इनको चमड़ी ही दिखाई पड़ती है, मैं नहीं दिखाई पड़ता। ये चमड़ी के पारखी हैं। इनको मेरा आड़ा-तिरछा शरीर ही दिखाई देता है। राजन, मंदिर के टेढ़े होने से आकाश कहीं टेढ़ा होता है? घड़े के फूटे होने से आकाश कहीं फूटता है? आकाश तो निर्विकार है। मेरा शरीर टेढ़ा-मेढ़ा है लेकिन मैं तो नहीं। यह जो भीतर बसा है, इसकी तरफ तो देखो। मेरे शरीर को देखकर जो हंसते हैं, वे चमार नहीं तो क्या हैं?
यह सुनकर मिथिला देश के नरेश एवं भगवान राम के श्वसुर राजा जनक सन्न रह गए। जनक को अपराधबोध हुआ कि सब हंसे तो ठीक, लेकिन मैं भी इस बालक के शरीर को देखकर हंस दिया। राजा जनक के जीवन की सबसे बड़ी घटना थी।
रातभर राजा जनक सो न सके। दूसरे दिन सम्राट जब घूमने निकले तो उन्हें वही बालक अष्टावक्र खेलते हुए नजर आया। वे अपने घोड़े से उतरे और उस बालक के चरणों में गिर पड़े। कहा- 'आपने मेरी नींद तोड़ दी। आपमें जरूर कुछ बात है। आत्मज्ञान की चर्चा करने वाले शरीर पर हंसते हैं तो वे कैसे ज्ञानी हो सकते हैं। प्रभु आप मुझे ज्ञान दो।'