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फ़िजी : बारहवां विश्व हिन्दी सम्मेलन, उस समय का स्वाद बरसों तक मन में बना रहेगा

हमें फॉलो करें ila kumar
, बुधवार, 5 अप्रैल 2023 (13:59 IST)
- इला कुमार
बारहवें विश्व हिन्दी सम्मेलन की बात लिखते हुए यह लिखना जरूरी लगता है कि पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन उन्नीस सौ पचहत्तर (1975) में नागपूर में हुआ था और वहां यह तय किया गया था कि हिन्दी को यूएनओ की भाषाओं के बीच मान्यता दिलवाने के लिए प्रयास करना है। मेरे अपने लिए यहां यह याद करना भी जरूरी है कि न्यूयॉर्क और भोपाल में हुए विश्व हिंदी सम्मेलनों में, मैं मौजूद अवश्य थी, लेकिन अपने खर्च पर। तो सम्मेलन की गतिविधियों को थोड़ी दूरी से देखा था। लेकिन इस वर्ष बारहवें फ़िजी विश्व हिन्दी सम्मेलन में बतौर प्रतिनिधि जाने के मौके ने मेरे लिए बहुत ही समृद्ध समय की रचना की, इसमें संदेह नहीं।

जब मैंने सम्मेलन से संबंधित मेल पर अपना परिचय, लेख वगैरह भेजा था, तो सम्मेलन में जाने कि इच्छा मन के किसी सतह पर बिम्बित हुई थी, लेकिन डिटेल्स जानने पर यह समझ में आ गया था कि यह एक मुश्किल कार्य था, जो पता नहीं पूरा हो पाएगा या नहीं- तो इस बारे में ज्यादा सोचना मैंने ठीक नहीं समझा था और कहना चाहिए कि हाथ पर हाथ रखकर बैठ गई। लेकिन जब एक्स्टर्नल अफेयर मिनिस्ट्री से फोन आया तो आशा बंधी कि शायद मेरा नाम भी लिस्ट में है और फिर तो खूब हड़बड़ मची, क्योंकि बृहस्पत या शुक्रवार को मेल मिला और सोमवार के दिन में फ्लाइट थी। रेजिस्ट्रेशन कर पाना मेरे लिए खासा मुश्किल रहा, क्योंकि कंप्युटर की सही किस्म की ज्ञाता मैं नहीं हूं, तो मृत्युंजय (पतिदेव) की सहायता से ही उसे पूरा कर पाई। लेकिन बिना कोई टिकट या टिकट नंबर हाथ में लिए एयरपोर्ट पर विदेश यात्रा के लिए पहुंच जाना मेरे लिए एक अनुभव की तरह रहा।
फिजी यात्रा की बात सोचने पर लग रहा है कि वह निस्संदेह एक यादगार यात्रा थी, इसके पहले कभी मैंने चार्टर प्लेन से यात्रा नहीं की थी। हालांकि विभिन्न देशों में जाने के लिए इंटरनेशनल यात्राएं कई बार की हैं।
तेरह तारीख की सुबह एयरपोर्ट पहुंचते ही यह समझ में आ गया था कि हम एक विशेष यात्रा में शामिल हैं, गेट नम्बर 8 के सामने डेलीगेट्स के लिए अलग पंक्ति लगाई गई थी, साढ़े ग्यारह का समय था लेकिन लोग पहले से ही आ गए थे। पांडिचेरी, चैन्नई, रायपुर, बनारस आदि कई जगहों के हिन्दी सेवी एक साथ फिजी जा रहे थे- बारहवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने! एक साथ इतने सारे प्रबुद्ध लोगों के साथ समय को व्यतीत करने का अनुभव बहुत ही अलग रहा।
एयर एशिया (A330) प्लेन से हमारी यात्रा 3 बजे के आसपास शुरू हुई, जैसा कि होता है। कुछ मिनट तक नीचे के दृश्य दीखे, फिर खिड़की के बाहर बादल या आसमान, कभी प्रकाशित, तो कभी अंधेरा। यात्रा के बीच प्लेन के अन्दर वातावरण एकदम गहमागहमी से भरा हुआ रहा था, तीन सौ के लगभग यात्रियों के बीच एक किस्म का उत्साह था, अनेक लोग एक-दूसरे से परिचित थे, तो वे सभी अपनी सीटों पर बैठे नहीं रहे थे, वे एक दूसरे से मिल रहे थे, हंस-बोल रहे थे। एक सीट के आस-पास कई-कई लोग झुंड बनाकर खड़े थे। यह मेल-मिलाप वातावरण में अनजाने ऊर्जा की तहों को सृजित कर रहा था।
समारोह का शुरुआती दौर शुरू हो चुका था! इस स्तर पर फिजी यात्रा का समय एकदम अनूठा रहा। इसकी याद हमेशा मन में बनी रहेगी, क्योंकि इंटरनेशनल यात्राओं का मेरा जो निजी अनुभव है वह यह है कि लोग अपनी अपनी सीटों पर निहायत शांतिपूर्वक बैठे रहते हैं, बातचीत मुश्किल से ही करते हैं, कारण कि ज्यादातर लोग अपरिचित ही होते हैं। जब भी मैं अकेली लंदन या अमेरिका गई हूं, मुझे पता रहा है कि पूरे प्लेन में मुझे कोई भी नहीं जानता, मेरे लिए भी सभी अपरिचित। लेकिन फिजी यात्रा में परिचिति के छोटे-छोटे घेरे मौजूद थे, कईयों से वर्षों बाद मिलना हुआ था, साथ ही जो अपरिचित भी थे वे समान ग्रुप के थे, हिन्दी से जुड़े हुए थे और यह बात अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण थी, आगे भी रहेगी।
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लगभग छै घंटे की यात्रा के बाद प्लेन क्वालालम्पुर में रूका। वहां सभी अपने-अपने “कैरी बैग” के साथ बाहर निकले, फ्रेश हुए। मैंने पहने हुए कपड़े चैन्जिंग रूम में जाकर बदल लिए। क्योंकि लंबी यात्रा में आपके शरीर से आती पसीने वगैरह की बदबू बगल के यात्रियों को बेहद अजीब स्थिति में डाल देती है, वे मन ही मन जी भर के आपको कोसते हैं (एक बार अमेरिका से लौटते हुए इस अनुभव से मैं गुजरी थी, लगता था कहां उठकर भाग जाऊं कि थोड़ी शुद्ध हवा नाक में जाए!)
खैर, क्वालालम्पुर एयरपोर्ट के लंबे गलियारों को हमने पार किया, हम सबों को लम्बे– लंबे गलियारों को पार करके गेट नम्बर-6 की ओर जाना था, कोई आगे, कोई पीछे, सभी एक ही दिशा में बढ़ते गए। बीच में ‘कोस्टा काफी’ का स्टॉल दीखा। तो मैं वहां कॉफी लेने रूक गई। काऊंटर पर जाने पर पूछा गया “फिजी ग्रुप से हैं?” मेरे “हां” कहने पर उन्होंने टेक-अवे कॉफी पकड़ा दी। मैंने पैसे देने चाहे तो मना कर दिया। पता चला कि पार्लियामेंटरी कमेटी वगैरह के लोग वहां अलग-अलग टेबल पर बैठे कॉफी वगैरह ले रहे थे, तो अनजाने ही मैंने शायद एक किस्म का एन्क्रोचमेंट कर दिया था। संकोच तो बहुत हुआ, मैंने पैसे देने की पेशकश की, तो जो व्यक्ति वहां खड़े थे उन्होंने मना कर दिया, ऐसे में कॉफी लेकर चुपचाप चले जाना ही सही लगा। चलते-चलते सेक्युरिटी चेक के गेट के पास बैग चेक करवाया गया और सभी गेट नम्बर-6 पर पहुंचे। वहां ‘गुझिया’ के शेप के समोसे और कॉफी का इंतजाम सबों के लिए था, इस तरह के अनोखे इंतजाम की याद भविष्य में भी मेरे साथ रहेगी। वहां थोड़ी देर गपशप, कुछ देर का आराम, फिर कारवां वापस प्लेन में।
अब प्लेन फिजी की ओर उन्मुख था : फ़िजी द्वीपों से मिलकर बना हुआ देश है और ‘ब्लीग द्वीप समूह‘ के रूप में जाना जाता था, इस देश के खोजकर्ता के रूप में पहला नाम डच, हाबिल तस्मान (1643) का आता है, जेम्स कुक (1774) दक्षिणी लाऊ द्वीपों में से एक पर पहुंच गए थे। फ़िजी के द्वीपों के बीच ‘विटी लेवु‘ और ‘वानुआ लेवु‘ का नाम सबसे महत्वपूर्ण रूप से लिया जाता है। फ़िजी के इतिहास में कई युद्ध एवं खून-खराबे की बात दर्ज है। इतिहास से यह भी पता चलता है कि इसे ऑस्ट्रेनेशियन लोगों द्वारा बसाया गया था और फिजियन संस्कृति का पुरानी पॉलेशियन संस्कृतिओं से एक मजबूत संबंध रहा है। हमारे प्लेन ने फ़िजी पहुंचने तक दस-साढ़े दस घंटे का फिर लम्बा सफर किया। उस बीच एक-दो दिक्कतें (मसलन पानी वगैरह की) आईं, लेकिन किसी ने हल्ला–गुल्ला नहीं मचाया। इस तथ्य ने मुझे बेतरह प्रभावित कर डाला। समझ में आया कि जो लोग शिक्षक वर्ग से सम्बन्धित होते हैं, उनके अन्दर एक बड़े कद की सहनशक्ति होती है और गहरा सौजन्य।
अलग-अलग यूनिवर्सिटी से, हिन्दी से जुड़े लोग थे, लेकिन सभी के बीच एक किस्म का समान सद्भाव उपस्थित था। फिजी के एयरपोर्ट नांदी पर हमारा प्लेन शाम के समय उतरा, वहां एयरपोर्ट पर बड़ी शान से बारहवें विश्व हिन्दी सम्मेलन का बैनर लगा हुआ था।
फिजी एयरपोर्ट के बाहर निकलने पर भी बोर्ड दीखा, जिस पर लिखा था - 12वां विश्व हिन्दी सम्मेलन और उसके ऊपर लिखा हुआ था- “नमस्ते & BULA”
मुख्य एक्सिट के बाहर वाकई गहमागहमी थी, यहां के स्वागत में दाहिनी ओर एक ग्रुप में अच्छे मोटे-ताजे तीन लोग नाच-गा रहे थे, उनके सामने खड़े होकर लोग फोटो खिंचवा रहे थे, थोड़ा-बहुत डांस भी कर रहे थे। मैंने भी बीच में खड़े होकर फोटो खिंचवा ली। स्वागत का तरीका कुछ ऐसा था कि हाथ-मुंह पोंछने के लिए गीले तौलिए दिए गए, मोटे मनकों का हार हमें पहनाया गया, वातावरण खुशी की लहरों को सृजित कर रहा था।
कई बसें सामने की खुली जगह में खड़ीं थी और वहां दो चार लोग एक बड़े से ढेर के रूप में हमारा सामान जमा कर रहे थे। हम भारतीयों के लिए बिना ताला लगा बैग- सूटकेश अनजाने लोगों को सौंप देना थोड़ा हिम्मत का काम था, लेकिन धीरे-धीरे सबने अपना-अपना सामान वहां जमा करवा दिया। सामान जमा करने वालों ने रूकते-पड़ते हमें समझाया कि होटल पहुंचने पर सामान मिल जाएगा और सही में होटल शैरटॉन के विशाल बरामदे में एक तरफ सबों के बैग-सूटकेश रक्खे हुए थे कि आप जाकर अपना सामान ले लें।
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जब बस एयरपोर्ट से चली तो शहर के रास्ते सामने खुलने लगे...
एक खुला-खुला सा शहर, न भीड़, न शोरगुल भरा ट्रैफिक। यानि कि आप वाकई छुट्टियां मनाने वाली जगह पर आ पहुंचे हैं। वैसे हम सभी को मानों कड़ी रूटीन जैसी ड्यूटी अगले तीन दिनों तक निभानी थी– पहले दिन समय से इनोगरेशन वाले हॉल पर पहुंचना था, पैरलल सेशन में चलने वाले कार्यक्रमों में हिस्सा लेना था, अनेक लोगों से मिलना था, तीसरे दिन के कार्यक्रम में फिजी के प्रधानमंत्री को हिन्दी में भाषण देते हुए सुनना था, वगैरह-वगैरह।
बस एयरपोर्ट से शेरटॅन होटल की ओर जा रही थी और नए देश में पहुंचने की उत्सुकता ने सबों के मन में ऊर्जा भर दिया था। लेकिन होटल पहुंचकर हमें मानों एक परीक्षा से गुजरना बाकि था, होटल के हॉल में अच्छी चाय-कॉफी मौजूद थी और पानी की बोतलें भी। दूर पर बाईं ओर एक लम्बा काउंटर बना था।
हॉल के अन्दर के वातावरण में भारी कन्फ्यूजन और ऊहापोह हम सभी की प्रतीक्षा में था, वास्तव में वहां एक माईक अवश्य होना चाहिए था, जो हमें गाईड करता कि हमें आई.डी (गर्दन में लटकाने के लिए) लेना है और हम एक-एक करके वहां जाएं, लेकिन न किसी को कुछ पता था, न किसी ने गाईड किया, तो अफरा-तफरी मचती रही। सबसे मुश्किल यह थी कि होटल के कमरे के बारे में किससे पूछना है- यह भी छोटे कद के रहस्य जैसा ही कईयों के सामने अड़ा हुआ था।
एक-एक करके सारे रहस्य सुलझे, आईडी भी मिल गई, होटल का भी पता चल गया। हमने अपना-अपना सामान लिया और मैं हिल्टन होटल जाने वाले ग्रुप के साथ बस में सवार हो गई। खूब हरा-भरा और फाईव स्टार होटलों के परिसर को दर्शाते लैंडस्केप के बीच से गुजरकर बस हिल्टन होटल पहुंची।
मुझे अमेरिका के जे.किन्स.ड्राइव के पास वाले हिल्टन होटल की ऊंची बिल्डिंग की याद आई, जब 2012 में वहां बड़ी बेटी के पास गई थी, तो वहां नजदीक में जो मार्केट प्लेस था, वहां से कुछ दूर आगे बढ़ने पर हिल्टन होटल के करीब वाली जगह पर हमलोग पहुंच जाते थे, जहां मैक्सिकन रेस्त्रां की खिड़की के बाहर हिल्टन होटल की शानदार बिल्डिंग दीखती थी।
और अब मैं फिजी देश के हिल्टन होटल के काउंटर पर खड़ी थी, अपने कमरे का कार्ड मिलने की प्रतीक्षा में। खैर, कार्ड मिला, फिर आठ-दस सीटों वाले हवा-हवाई पर चढ़कर अपने सुइट नम्बर तक की यात्रा ने पहले चरण की यात्रा पर विराम लगाया।
कमरा बहुत ही आरामदेह था- ड्राईंग रूम, बेड रूम और बाथटब वाला बाथरूम!
पंद्रह तारीख की सुबह तैयार होकर पहले ब्रेकफास्ट के लिए डायनिंग परिसर में गई। वहां नाश्ते का प्लेट भरा, थोड़ा खाया फिर कॉफी लेने अन्दर गई, तो दो-तीन मैना झट से आकर जल्दी-जल्दी प्लेट में चोंच  मारने लगीं, ब्रेड को बिखराने लगीं। मुझे दूसरी प्लेट लेनी पड़ी। अगले तीन दिन काफी व्यस्तता भरे रहे, हवा-हवाई से पर बैठकर हिल्टन के काऊंटर तक जाना, फिर वहां से बस में बैठकर शैरटॅन जाना- इसमें काफी समय निकल जाता था, भागदौड़ मची रहती थी। खासकर तब बड़ी कोफ्त होती थी जब हम अपना आई.डी. कार्ड कमरे में भूल आए हों और लंच के लिए रेस्त्रां में घुसने से मना कर दिया जाता था। फिर वापस बस, हवा-हवाई पकड़कर होटल जाओ और आई.डी. लेकर आओ। यह घटना कईयों के साथ हुई लेकिन नियमों को निभाने में भी एक किस्म की तसल्ली मिलती है- इसमें संदेह नहीं।
बड़े-छोटे दोनों हॉल में कई पैरलल सेशन चले, कई वक्तव्य, कई तरह की सूचनाओं से हम लोग रू-ब-रू हुए। समय की सीमा से बंधे वक्तव्य कई बार अधूरेपन की गंध से बोझिल भी रहे। ऐसे में मुझे हिन्दी से जुड़े लोगों का इनडिस्पिलीन थोड़ा अखरता है। हिन्दी वाले स्वयं को इतना सक्षम नहीं बना पाए हैं कि स्वयं के वक्तव्य को समय-सीमा से बांध कर पेश किया करें, सही तैयारी करके आयें।
यह लापरवाही कई बार पूरे कार्यक्रम को ध्वस्त कर डालती है। दो लापरवाह वक्ता मिलकर अगले चार वक्ताओं के समय को निःसंकोच निगल जाया करते हैं और स्वयं को गलत नहीं मानते, शर्मिन्दा भी नहीं होते, माफी भी नहीं मांगते। ऐसे माईक-प्रेमियों के कारण हिन्दी के लोग अच्छे से बदनाम होते हैं। इस दुराचार से हमें बचना होगा, इसे त्यागना जरूरी है।
दोनों दिन शाम में कल्चरल प्रोग्राम हुए, नर्म और खुशनुमा वातावरण के बीच गोल टेबल्स को घेर कर बैठे, बोलते-बतियाते लोग और वे कार्यक्रम! वह शमां लुभावना था। सत्रह तारीख को समापन कार्यक्रम में फिजी के डिप्टी प्राइम मिनिस्टर श्री विमान प्रसाद ने शुद्ध हिन्दी में बहुत अच्छा भाषण दिया, उन्होंने यह भी कहा कि संसद में भी उन्होंने हिन्दी में बोलने की शुरुआत की है.....
हिन्दी के कार्यक्रमों के बीच घंटों-घंटा का समय बिताना अलग किस्म के अनुभव को रचता है- इसमें संदेह नहीं। फ़िजी में बिताया समय अलग था, वह जगह, वहां का वातावरण, वहां रहने वाले भारतीय मूल के लोगों से मिलने ने चीजों को नई दृष्टि से देखना सिखाया। इसमें संदेह नहीं कि फिजी जाकर एक दोस्ताना फिलिंग सबों को हुई। वहां के लोगों के मन में भारत के लोगों के लिए स्वीकार ही स्वीकार था। नकार कहीं नहीं था। उन्होंने हमें स्नेह से आदरपूर्वक देखा, वे हमारे मन को सम्मान की तहों के बीच लगातार लपेटते रहे। इस बात का बड़ा गहरा दबाव मन पर छा गया। यात्रा से लौट आने पर भी फिजी के लोगों से मिले अपनेपन को भूलना मुश्किल है। उस समय का स्वाद मन में वर्षों बना रहने वाला है।
(इला कुमार प्रख्‍यात लेखिका और विश्वा (IHA / USA ), कला वैचारिकी और प्रवासी दुनिया की पूर्व संपादक रहीं हैं।)
Edited: By Navin Rangiyal

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