- विनीत खरे (दिल्ली)
तीन मार्च की शाम। पूर्वोत्तर के चुनाव में शानदार प्रदर्शन के बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पत्रकारों से
मुखातिब थे। जीत पर खुशी जताने, मतदाताओं और नरेंद्र मोदी को धन्यवाद देने के बाद उन्होंने कहा, "जब तक ओडिशा, पश्चिम बंगाल, केरल और कर्नाटक में हम नहीं जीतते, (भाजपा का) सुनहरा दौर नहीं आएगा। हम ओडिशा, पश्चिम बंगाल और केरल में सरकार बनाएंगे और कर्नाटक में ज़रूर जीतेंगे।"
यानी एक जीत का जश्न अभी थमा नहीं था और आने वाले चुनाव का बिगुल बज गया। उधर, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी दृश्य से नदारद थे। वो ट्विटर पर नानी को सरप्राइज़ करने की बात बताकर इटली चले गए थे।
'चुनावी काम-धाम के बाद इटली गए'
सोनिया गांधी ने इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में कहा, 'बहुत से पार्टी नेता छुट्टी पर जाते हैं और राहुल चुनावी कामधाम के बाद इटली गए थे।'
दिसंबर में कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के बाद राहुल गांधी से उम्मीदें बढ़ी हैं। गुजरात में राहुल गांधी की खूब वाहवाही हुई। हिंदुत्व का झंडा लहराने वाली भाजपा के गढ़ में वो 27-28 बार मंदिरों में गए, नरेंद्र मोदी और गुजरात सरकार को जमकर खरी-खोटी सुनाई। उसका नतीजा ये है कि अमित शाह और नरेंद्र मोदी को गढ़ बचाने के लिए पूरी जान लगा देनी पड़ी। यानी अगर विपक्ष अपने पत्ते ठीक से खेले तो मोदी को चुनौती दी जा सकती है।
अध्यक्ष बनने के बाद राहुल ने क्या किया?
गुजरात के बाद मोदी विरोधियों और कांग्रेस नेताओं को आस बंधी कि आखिरकार राहुल गांधी 24 घंटे काम करने वाले नेता बन गए हैं। लेकिन ऐन मौके पर छुट्टी पर जाने से एक बार फिर राहुल गांधी और अमित शाह के काम के तरीकों की तुलना शुरू हो गई है।
एक नेता जिसमें एक के बाद एक चुनाव जीतने की भूख है। दूसरा, जिसकी राजनीति में दिलचस्पी को लेकर अभी भी कई लोगों के मन में सवाल हैं। राहुल के आलोचक पूछ रहे हैं कि सालों से ज़मीन पर संगठन को मज़बूत करने की बात करने के बावजूद आखिर क्या काम हुआ है। और पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने क्या किया है?
स्टैंड लेने में देरी बताती है पार्टी की दशा
कुछ विश्लेषक ये भी कहते हैं कि हाल ही में अध्यक्ष का पद संभालने वाले राहुल की तुलना करीब चार साल से अध्यक्ष रहे अमित शाह से करना सही नहीं है। एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा, "बहुत सारी नीतियों पर राहुल गांधी को अपने विचार तय करने हैं। सालों से जिन कामों की वो दुहाई देते रहे हैं, उन्हें उन कामों को करने के लिए समय देना चाहिए। राहुल गांधी और अमित शाह की तुलना करने का ये वक्त नहीं है।"
पत्रकार उमेश रघुवंशी पिछले 25 सालों से कांग्रेस पर रिपोर्टिंग कर रहे हैं। वो बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के स्टैंड में देरी पार्टी की दशा बयान करता है। वो कहते हैं, "जो लोग इस देरी के लिए ज़िम्मेदार हैं, उन्हें ज़िम्मेदारी लेनी पड़ेगी, तभी नई संस्कृति विकसित हो पाएगी। अभी ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस में मंथन चल रहा है।"
राहुल के सामने हैं छुट्टी नहीं लेने वाले मोदी-शाह
कांग्रेस में नई संस्कृति और मंथन की बात पुरानी हो चली है। राहुल गांधी 2014 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का चेहरा थे। कांग्रेस सीटों की संख्या 44 पर सिमटने के बाद बनी एके एंटनी समिति रिपोर्ट के नतीजों का क्या हुआ, किसी को पता नहीं। साल 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं जीतने के बाद राहुल गांधी दो महीने गायब रहे। मीडिया पर कई दिन चर्चाएं चलती रहीं कि वो कहां गए।
वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन ने लिखा, "राजनीति एक ऐसा खेल है, जहां जान की बाज़ी लगानी होती है न कि ये कोई शौक की चीज़ है। मोदी कोई छुट्टी नहीं लेते। जब वो आधिकारिक दौर पर विदेश में रहते हैं तब भी वो पार्टी विरोधियों से लड़ने में विश्वास रखते हैं।"
उत्तर प्रदेश में 312 सीटें जीतने के बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह 95 दिन की देशव्यापी यात्रा पर निकल गए, ताकि "2019 का चुनाव जीतने की रणनीति तैयार की जा सके"। उसके बाद उन्होंने पश्चिम बंगाल सहित कुछ राज्यों में वक्त गुज़ारा। उधर, यूपी में मात्र सात सीटें जीतने वाली कांग्रेस के उस वक्त उपाध्यक्ष राहुल गांधी पार्टी में 'बुनियादी बदलाव' की मांग की बीच बीमार मां को देखने अमरीका चले गए।
शाह का शेड्यूल
हिंदुस्तान टाइम्स में वरिष्ठ पत्रकार और राहुल गांधी पर किताब लिख चुके जतिन गांधी के मुताबिक, राहुल गांधी "लग कर काम नहीं करते।"
इकोनॉमिक टाइम्स के राकेश मोहन चतुर्वेदी पिछले 10 सालों से भाजपा कवर कर रहे हैं। वो बताते हैं, "अमित शाह ज़्यादा एक्टिव हैं। सुबह आठ नौ बजे से लोगों को फ़ोन करना शुरू कर देते हैं। घर पर, फिर दफ़्तर में लोगों से मिलना। राहुल गांधी का इतना हेक्टिक शेड्यूल नहीं होता है। राहुल गांधी की एक, दो रैली होती हैं, चुनाव के वक्त चार तक हो जाती हैं, जैसे गुजरात में था। पीएम मोदी पांच-पांच रैली भी कर लेते हैं।"
"बूथ स्तर से लेकर ब्लॉक स्तर पर लोगों को चुनना, फिर जिला या राज्य स्तर पर लोगों को चुनना, केंद्रीय अधिकारियों को ज़िम्मेदारी देना, मंत्री को ज़िम्मेदारी देना, इन मामले पर वो (अमित शाह) सबसे बराबर संपर्क में रहते हैं।"
और राहुल गांधी?
राकेश बताते हैं, "उनके काम करने की शैली में सुधार हुआ है। लोग उनको थोड़ा और सीरियसली ले रहे हैं खासकर गुजरात चुनाव के बाद। दिक्कत ये है कि वो फिर गायब हो जाते हैं, छुट्टी ले लेते हैं। राजनीति 24 घंटों की नौकरी है।"
दोनों नेताओं की तुलना पर राकेश कहते हैं, "जीतने के लिए (अमित शाह को) कुछ भी करना पड़े, वो उसका इस्तेमाल करने से नहीं हिचकते हैं। कई जगह चुनाव पोलराइज़ भी होते हैं (अगर उन्हें लगता है कि) उससे भाजपा को फ़ायदा होता है। (इसी कारण) कई बार आपको लगेगा कि राज्य के चुनाव में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विषय भी आ जाते हैं।"
शाह बनाम राहुलः पिछले चार साल का ग्राफ़
साल 2014 लोकसभा चुनाव में अमित शाह को उत्तर प्रदेश की ज़िम्मेदारी दी गई थी। राजनाथ सिंह भाजपा अध्यक्ष थे और कई चुनावी पंडित भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश जीतना नामुमकिन बता रहे थे। राहुल गांधी 2014 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का मुख्य चेहरा थे।
अमित शाह के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में भाजपा ने 80 में 71 सीटें जीती। उन्होंने गुजरात चुनाव में अपने तजुर्बे का इस्तेमाल उत्तर प्रदेश में किया, वो लगातार नेताओं के संपर्क में रहे, उन्होंने वहां के जाति चक्रव्यवूह को समझा।
'बड़े' समझे जाने वाले स्थानीय नेताओं को दरकिनार करके राज्य चुनाव की बागडोर हाथ में ली। उत्तर प्रदेश में लंबा वक्त बिताया, जो लोग नाराज़ थे उन्हें मनाया। गठबंधन किए और लोगों की आशंकाओं को दरकिनार करते हुए भारी कामयाबी हासिल की।
नतीजा ये कि लोकसभा चुनाव में जीत के बाद उन्हें प्रमोशन देकर भाजपा अध्यक्ष बना दिया गया। हालांकि नरेंद्र मोदी और उनकी नज़दीकियां पहले से भी जगजाहिर थीं। उधर राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस का लोकसभा ग्राफ़ 206 सीटों से गिरकर 44 पहुंचा।
साल 2004 में कांग्रेस 13 राज्यों में भाजपा छह राज्यों में सत्ता में थी। आज कांग्रेस चार राज्यों में और भाजपा 21 राज्यों में सत्ता में है। साल 2014 में लोकसभा चुनाव जीतते वक्त भाजपा सात राज्यों में सत्ता में थी।
मई 2014 से दिसंबर 2016 तक कांग्रेस इतने चुनाव हारी कि रिपोर्टों के मुताबिक मध्य प्रदेश के एक छात्र "27 बार चुनाव हारने के लिए राहुल गांधी का नाम गिनीज़ बुक में डालने के लिए अर्ज़ी दे दी।"... इन सबके बाजवूद दिसंबर 2017 में राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बन जाते हैं- जो कि होना तय था।
जनीति में नहीं आना चाहते थे राहुल
राहुल गांधी को एक ऐसे शर्मीले व्यक्ति की तरह देखा जाता था, जो कभी राजनीति में नहीं आना चाहता था। जब उन्होंने साल 2004 में अमेठी से चुनाव लड़ा तो सभी को हैरानी हुई। फिर ऐसा लगा कि कांग्रेस में नई पीढ़ी के नेता ज़मीन पर पकड़ बनाएंगे।
सितंबर 2007 को उन्हें पार्टी का जनरल सेक्रेटरी नियुक्त किया गया। इस कार्यकाल में उनका फोकस इंडियन यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई थे, जिनमें वो सुधार लाने की बात करते रहे। जिन सुधारों की उन्होंने बात की, उनका क्या हुआ। उस पर सवाल उठे, फिर वो कांग्रेस उपाध्यक्ष नियुक्त हुए।
उन्होंने सभाएं की, जिसका मक़सद लोगों के दिलों को जीतना और उन्हें भविष्य के नेता की तरह दिखाना था। साल 2012 में उन्होंने उत्तर प्रदेश के चुनाव में 200 से ज़्यादा रैलियां की और गांव के झोपड़ों में सोए।
जब वो कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बने थे तो खबरें आती थीं कि वरिष्ठ नेताओं के कारण जिस तरह के बदलाव वो पार्टी में लाना चाहते थे वो नहीं ला पा रहे थे। लेकिन आज वो कांग्रेस अध्यक्ष हैं।
राहुल गांधी की छवि
जब आप ऊंचे पद पर पहुंचते हैं तो कहना ग़लत नहीं होगा कि खुद को साबित करने के लिए जान लगा देते हैं। राहुल गांधी से कई लोगों को शिकायत है कि कांग्रेस अध्यक्ष बनने से पहले और बाद में काम करने के ढर्रे में कोई खास फ़र्क नहीं आया है।
जहां अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा 'कांग्रेस-मुक्त भारत' की ओर बढ़ रही है, कांग्रेस की ख़राब हालत का अंदाज़ा इस बात से लग जाता है कि कभी-कभी लगता है कि भाजपा प्रवक्ता टीवी पर राहुल गांधी के प्रति हमदर्दी के कारण सलाह दे रहे हैं। राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने से पहले भी कांग्रेस चुनाव हार रही थी। उनके अध्यक्ष बनने के बाद भी कांग्रेस चुनाव हार रही है।
जतिन गांधी कहते हैं, "राहुल गांधी की छवि फ़ैसला लेने वाले नेता की नहीं रही है"।
राहुल के मुक़ाबले मोदी
वो कहते हैं, "तुलना करें नरेंद्र मोदी से। जब वो दिल्ली आए तो उनकी छवि एक फैसला लेने वाले नेता की थी। जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवारी के लिए ज़ोर लगा रहे थे तो पार्टी के भीतर इसे लेकर विरोध था। यहां तक कि अडवाणी इससे खुश नहीं थे।"
जतिन गांधी कहते हैं, "पहले मोदी कैंपेन कमेटी के चेयरमैन बने, फिर उन्हें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर चुना गया। राहुल के बारे में सोच ये है कि वो फैसला लेने वाले नेता नहीं हैं। घुलमिलकर बात करने की कार्यशैली शायद उसने भी उनको कहीं न कहीं नुकसान पहुंचाया है। आपको इस बात की दाद देनी पड़ेगी कि वो टिके हुए हैं।"
भाजपा की मीडिया विंग ने भी राहुल की फ़ैसला न ले पाने की कथित छवि को उभारने में भी भूमिका निभाई है। राकेश मोहन के मुताबिक, राहुल गांधी के नेतृत्व में भी कांग्रेस में निरुत्साह का कारण पार्टी के बुरे दिन हैं।
वो कहते हैं, "जब आप अच्छा नहीं कर रहे हैं तो आपका उत्साह खत्म हो जाता है। उन्हें लग रहा है कि वक्त बदलेगा, सरकार ग़लती करेगी और हमारा भी वक्त आएगा। कांग्रेस को ऐसे हालात में संगठन को मज़बूत करना चाहिए था जो नहीं हुआ है और भाजपा ने यही काम किया है।"
"लोगों से संपर्क करना, पार्टी को मज़बूत करना, राज्य, ज़िला स्तर पर। ब्लॉक स्तर पर कांग्रेस ने अभी तक ये नहीं किया है। चुनाव केवल भाषण देकर रैली या रोड शो करके नहीं जीता जाता।"