Shodash Sanskar : हमारे सनातन धर्म में संस्कारों का बहुत महत्व है। संस्कार शब्द से अभिप्राय है- जीव या वस्तु के दोषों को दूर करना। शास्त्रानुसार संस्कार का अर्थ है- जिस विधि को करने से चर-अचर विहित कार्य के लिए उपयोगी हो जाते हैं। संस्कार का एक अर्थ यह भी है कि किसी वस्तु या व्यक्ति के दोषों का परिमार्जन कर उसके गुणों में वृद्धि करना।
मुख्यत: संस्कार के दो भाग होते हैं- पहला किसी पदार्थ की अशुद्धि को दूर करना और दूसरा उसके गुणों को निखारना। जिस प्रकार रत्न जब खदान से निकलता है तब वह अशुद्ध होता किन्तु उसके गुण उसमें छिपे होते हैं। खदान से निकाले जाने के बाद उसकी अशुद्धि को दूर कर उसे यथोचित तराशा जाता है, जिससे वह निखरकर धारण करने योग्य बन जाता है, शास्त्रीय भाषा में इसे ही 'संस्कार।' कहते हैं।
जब जीव का इस संसार में जन्म होता है तब वह अपने पूर्वजन्मों की योनियों में जन्म के कारण अशुद्ध रूप में रहता है। जन्म के बाद विभिन्न संस्कारों द्वारा जीव की इन्हीं अशुद्धियों को दूर कर उसके गुणों को निखारा जाता है। 'संस्कार' से मनुष्य का अन्त:करण शुद्ध होता है।
सनातन धर्म में संस्कारों की संख्या को लेकर विलग-विलग मत प्रचलित हैं। कहीं इनकी संख्या 48 बताई गई है, वहीं कुछ विद्वानों के मतानुसार संस्कार 25 प्रकार के होते हैं किन्तु सर्वाधिक प्रचलित व मान्य मत 16 संस्कारों का अर्थात् 'षोडश संस्कारों' का है। वर्तमान समय में हमारे ये षोडश संस्कार लुप्त होते जा रहे हैं, इसका मुख्य कारण है पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण।
आज ना तो अधिकांश जनमानस इन संस्कारों की सही विधि से परिचित है और ना ही इनके करने में कोई विशेष रुचि प्रदर्शित करता है। इसके दूरगामी दुष्परिणाम हमारी आने वाली पीढ़ियों को उठाने पड़ सकते हैं। अतएव यह हम सभी का उत्तरदायित्व है कि हम अपने सनातन धर्मानुसार बताए इन "षोडश संस्कारों" का अनुपालन करें।
वर्तमान समय में अधिकांश जनमानस इन षोडश संस्कारों को करने का सही समय एवं विधि से अपरिचित हैं इसके अभाव में वे इन संस्कारों को सम्पन्न नहीं कर पाते हैं।
आज हम 'वेबदुनिया' के पाठकों के लिए सनातन धर्म में वर्णित प्रमुख 'षोडश संस्कारों' के करने के सही समय की जानकारी देंगे, जिससे पाठकगण इन संस्कारों को यथोचित समय पर सम्पन्न कर सकें।
1. गर्भाधान संस्कार- रजोदर्शन की प्रथम चार रात्रि, भद्रा, पूर्णिमा, अमावस, श्राद्ध तिथि, व्रत तिथि, जन्म लग्न से अष्टम लग्न व जन्मराशि से अष्टम राशि को छोड़कर किसी भी शुभ दिन करना चाहिए।
2. पुंसवन संस्कार- गर्भधारण के उपरान्त दूसरे अथवा तीसरे माह में।
3. सीमान्तोनयन संस्कार-गर्भधारण के छठवें या आठवें महीने में।
4. जातकर्म संस्कार-जन्म के चार या छ: घण्टे के पश्चात् अथवा नालच्छेदन के समय।
5. नामकरण संस्कार- जन्म के ग्यारहवें दिन। ग्यारहवें दिन यह संस्कार ना कर पाने की स्थिति में अठारवें, उन्नीसवें, सौवें अथवा अयन परिवर्तन के उपरान्त किसी भी शुभ दिन।
6. भूम्यवेशन संस्कार- नामकरण संस्कार के साथ।
7. निष्क्रमण संस्कार- जन्म के चौथे माह में अथवा नामकरण संस्कार के साथ।
8. अन्नप्राशन (पासनी) संस्कार-जन्म के छठवें मास में अथवा बालक का सम मासों में जैसे आठवें, दशवें, बारहवें और बालिका का विषम मासों में जैसे पांचवे, सातवें, नौवें मास में।
9. चूड़ाकरण (मुण्डन) संस्कार- जन्म के पहले, तीसरे, पांचवें, सातवें, दशवें, ग्यारहवें वर्ष में।
10. अक्षरारम्भ संस्कार- जन्म के पांचवें वर्ष में।
11. कर्णवेध संस्कार-जन्म के तीसरे या पांचवें वर्ष में।
12. उपनयन (जनेऊ) संस्कार- शास्त्रानुसार यह संस्कार केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण का ही किया जाता है। ब्राह्मण बटुक का पांच से आठ वर्ष की आयु के मध्य, क्षत्रिय का ग्यारह वर्ष और वैश्य का बारह वर्ष की आयु तक सम्पन्न किया जाना चाहिए। यदि इस नियत अवधि में यह संस्कार सम्पन्न ना हो सके तब ब्राह्मण का 16 वें वर्ष में, क्षत्रिय का 22 वें और वैश्य का 24 वें वर्ष में किया जाना चाहिए। वर्णानुसार यह उपनयन संस्कार की अधिकतम आयु सीमा है इसके बीत जाने पर केवल प्रायश्चित करने के उपरान्त की यह संस्कार सम्पन्न किया जा सकता है।
13. वेदारम्भ संस्कार-उपनयन संस्कार के पश्चात् वेदाध्ययन हेतु गुरुकुल के लिए प्रस्थान करते समय।
14. समावर्तन संस्कार-वेदाध्ययन पूर्ण कर स्नातक होने के उपरान्त गुरुकुल से घर वापस लौटने पर समावर्तन संस्कार किया जाता है।
15. विवाह संस्कार- समावर्तन संस्कार के पश्चात् 25 से 50 वर्ष की आयु के मध्य।
16. अंत्येष्टि (अन्तिम) संस्कार- देहत्याग (मृत्यु) होने पर।