बंध का शाब्दिक अर्थ है- 'गांठ', बंधन या ताला। इसके अभ्यास से प्राणों को शरीर के किसी एक भाग पर बांधा जाता है। इसके अभ्यास से योगी प्राणों को नियंत्रित कर सफलता पूर्वक जरा अर्थात रोग और मृत्यु को अपने काबू में कर लेता है। बंध, प्राणायाम और मुद्रा तीनों का अभ्यास साथ-साथ किया जाता है।
छह प्रमुख बंध इस प्रकार हैं- 1.मूलबंध 2.उड्डीयानबंध 3.जालंधर बंध 4. बंधत्रय, 5.महाबंध और 6.महावेध। उक्त पांच बंध के लिए पांच मुद्राएं-1.योग मुद्रा, 2.विपरितकर्णी मुद्रा, 3.खेचरी मुद्रा, 4.वज्रोली मुद्रा, 5.शक्ति चालन मुद्रा और 6.योनी मुद्रा करने का प्रचलन है। यहां प्रस्तुत है बंध की जानकारी।
1. जालंधर बंध : इसे चिन बंध भी कहते हैं। कहते हैं कि यह बंध मौत के जाल को भी काटने की ताकत रखता है, क्योंकि इससे दिमाग, दिल और मेरुदंड की नाड़ियों में निरंतर रक्त संचार सुचारु रूप से संचालित होता रहता है।
विधि : किसी भी सुखासन पर बैठकर पूरक करके कुंभक करें (श्वास को अंदर खींचकर रखें) और ठोड़ी को छाती के साथ दबाएं। इसे जालंधर बंध कहते हैं। अर्थात कंठ को संकोचन करके हृदय में ठोड़ी को दृढ़ करके लगाने का नाम जालंधर बंध है।
इसके लाभ : जालंधर के अभ्यास से प्राण का संचरण ठीक से होता है। इड़ा और पिंगला नाड़ी बंद होकर प्राण-अपान सुषुन्मा में प्रविष्ट होता है। इस कारण मस्तिष्क के दोनों हिस्सों में सक्रियता बढ़ती है। इससे गर्दन की मांसपेशियों में रक्त का संचार होता है, जिससे उनमें दृढ़ता आती है। कंठ की रुकावट समाप्त होती है। मेरुदंड में खिंचाव होने से उसमें रक्त संचार तेजी से बढ़ता है। इससे प्राणवायु अर्थात ऑक्सिजन लेवल भी बढ़ता है। यह फेंफडों को मजबूत करता है। इस कारण सभी रोग दूर होते हैं और व्यक्ति सदा स्वस्थ बना रहता है।
सावधानी : शुरू में स्वाभाविक श्वास ग्रहण करके जालंधर बंध लगाना चाहिए। यदि गले में किसी प्रकार की तकलीफ हो तो न लगाएं। शक्ति से बाहर श्वास ग्रहण करके जालंधर न लगाएं। श्वास की तकलीफ या सर्दी-जुकाम हो तो भी न लगाएं। योग शिक्षक से अच्छे से सीखकर इसे करना चाहिए।