(साधना सुनील विवरेकर)
करियर, प्रतिस्पर्धा व जल्द से जल्द ढेर-सा पैसा व प्रसिद्धि (?) पाने की लालसा ने कुछ संपन्न व धनाढ्य स्त्रियों को जिस राह चलने का मोह जगाया है वह हमारी संस्कृति, सभ्यता पर तो कुठाराघात है ही, साथ ही अपरोक्ष रूप से नारी के शोषण की अति भी है।
आज नारी की जो छवि टी.वी. सीरियलों में, सिनेमा के रुपहले पर्दे पर व विज्ञापनों में दिखाई जा रही है, उसमें आधुनिकता व स्वतंत्रता के नाम पर नग्नता व शारीरिक प्रदर्शन की प्रतिस्पर्धा चरमोत्कर्ष पर है। विज्ञापनों में नारी को जिस वीभत्स रूप में दिखाया जा रहा है उसे देखकर लगता है कि पिछले एक ही दशक में नारी ने अत्यधिक प्रगति(?) कर ली है। करियर, प्रतिस्पर्धा व जल्द से जल्द ढेर-सा पैसा व प्रसिद्धि (?) पाने की लालसा ने कुछ संपन्न व धनाढ्य स्त्रियों को जिस राह चलने का मोह जगाया है वह हमारी संस्कृति, सभ्यता पर तो कुठाराघात है ही, साथ ही अपरोक्ष रूप से नारी के शोषण की अति भी है।
शोषण भी ऐसे मीठे जहर की तरह कि जिस पर हो रहा है वह उसके दर्द, वेदना व चुभन को अनुभव करने की संवेदनाएँ, शर्म, लिहाज सब कुछ खो चुकी है। घरों में, ग्रामीण क्षेत्रों में या महानगरों में जहां नारी परिवारजनों, पति या ससुराल पक्ष की यातनाएँ भोगने को मजबूरहै, वहाँ तो न्यायपालिका, समाजसेवी संस्थाएँ या मायके वाले उसकी मदद कर उसे इस स्थिति से उबार सकते हैं। कार्यस्थल पर होने वाले परोक्ष या अपरोक्ष शोषण या यौन शोषण के खिलाफ भी आवाज उठाने पर या न्याय माँगने पर इंसाफ मिल सकता है व दोषी को सजा भी मिल सकती है।
लेकिन जब स्त्री स्वयं ही शरीर के प्रदर्शन पर गर्व करे, उन ओछी हरकतों को पैसा कमाने का जरिया बनाए व गंदी, अश्लील हरकतों पर जिस्म थिरकाने को अपने करियर की आवश्यकता बताए, वहां ईश्वर भी धरती पर अवतार ले लें तो भी उसका शोषण रोक नहीं सकता। टी.वी. सीरियलों के माध्यम से अपनी बहन, बेटियों, भाभियों यहां तक कि मांओं को भी अश्लील व न के बराबर कपड़ों में, सिगरेट के धुएं के छल्ले बनाते या शराब का गिलास हाथ में थामे लड़खड़ाते, कभी किसी तो कभी किसी पुरुष की बांहों में झूमते देख भला किस भारतीय को गर्व महसूस होता होगा?
स्त्री शक्ति, स्त्री सशक्तीकरण व स्त्री की भावनाओं की अभिव्यक्ति का यह कैसा घिनौना रूप है। जिसे देख हर सभ्य सुसंस्कृत स्त्री अपने ही घर में लज्जित होती है। अपनों के बीच, बड़ों के बीच सिर उठाने की, उनके साथ बैठकर टी.वी. देखने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाती। क्या स्त्री स्वातंत्र्य व आधुनिकता की दुहाई देने वाले, प्रगतिशील विचारों वाले झूठा आडंबर रचकर सार्वजनिक रूप से स्त्री-अंग प्रदर्शन कर खुलेआम स्त्रियों का शोषण नहीं कर रहे?
सभी को इस पर आपत्ति है, सभी शर्मिंदा हैं, पर क्या इतने लाचार हैं कि इसका खुलकर विरोध तक न कर सकें? छोटी-छोटी बातों पर एक-दूसरे की जान लेने को आतुर कट्टर धर्मावलंबी हों या स्त्री को मुक्त करा, स्वतंत्रता दिला उसे सशक्त बनाने में लगी समाजसेवी संस्थाएँ हों,प्रबुद्ध नागरिक हों या देश का कानून- वे सभी स्त्री के इस सार्वजनिक पतन को रोकने, संस्कृति व सभ्यता के हनन को बचाने का प्रयास क्यों नहीं करते?
क्या स्त्री का रूप लावण्य इतना सस्ता है कि उसकी ऊर्जा वस्तुओं को बेचने भर में लगाई जाए। जिस कोख से मानवता जन्म लेती है क्या वह मात्र प्रदर्शन की वस्तु है? ममता की छांव जीवन का सृजन करती है उसका अश्लील रूप देखकर कौन-सा सुख व संतुष्टि मिलती है? उसका उपयोग कर ही क्यों प्रचारित, प्रसारित वस्तुएँ खरीदी जाएँ?
इन सबका जमकर विरोध ही महिला दिवस को सार्थकता प्रदान करेगा व इस अश्लीलता को बंद करवाकर ही स्त्री का सम्मान करने की, उसे आदर देने की मानसिकता नई पीढ़ी में विकसित होगी। नारी प्रसव की वेदना व पीड़ा खुशी-खुशी सहकर मानवता का सृजन करती है। नई पीढ़ी को सुसंस्कृत व संस्कारित करने का जिम्मा उसका हमेशा से है। वह पति व परिवार के लिए प्रेम से हर बलिदान कर सकती है।
उसमें सृजन की शक्ति है, सहनशीलता व धीरज का बल है, त्याग करने का अदम्य साहस है व क्षमा करने का बड़प्पन है। अतः वह अशक्त, कमजोर व बेचारी कभी हो ही नहीं सकती। समाज व परिवार उसकी शक्ति के मोल को समझे, उसकी ऊर्जा का सही उपयोग करे व उसकी अभिव्यक्ति का आदर करे इसी में सबकी भलाई है।