डॉ. छाया मंगल मिश्र
धरती पर एकमात्र भारत ऐसा देश है जिसको मां का दर्जा दिया हुआ है। एक स्त्री, एक औरत। विश्व के नक़्शे में इसको हम मां स्वरूप में प्रस्तुत करते हैं। आज मां का आंचल तार-तार हो रहा है... कलेजा धधक रहा है। बाहें मरोड़ी जा रहीं हैं... गर्दन तोड़ी जा रही है... नाजुक, पर मजबूत पैरों को मोटी भारी जंजीरों से जकड़ दिया गया है... गहरे घाव हो रहे हैं... खून बह रहा है... कमर और पीठ साम्प्रदायिकता के बोझ से ऐंठ गई हैं... दोहरी हुई जा रही हैं...
चारों ओर धुंआ ही धुंआ है। नजर नहीं आ रहा- ये क्या हो रहा है? शाहीन बाग, बनारस, सीएए, जामिया, एनआरसी, एएमयू, जेएनयू... और भी न जाने क्या-क्या? ये तो सब साम्प्रदायिक अलाव में झोंके जा रहे हैं। मां का दिल धधक रहा है राख होने की हद तक। ऐसे में महिला दिवस मनाना केवल तमाशा है... यदि हम अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ते, नजर चुराते, जान बचाते हैं, तो हम देश की स्थिति के लिए बराबरी से जिम्मेदार हैं। देश हमसे- हम देश से हैं।
धिक्कारती हूं मैं ऐसी सोच को जहां की परवरिश में निरीह बेकसूर चींटियों, जानवरों, रंगों, फल-फूलों,पेड़-पौधे, रहन-सहन को साम्प्रदायिकता के जहर में डुबोकर के बांट दिया जाता है। जहां शिक्षा, संस्कृति, परम्परा, धार्मिक स्वतंत्रता के तौर तरीकों में एक-दूसरे के दुश्मन होने के पाठ शामिल कर दिए जा रहे हो।
धरती, नदियों, पहाड़ों के साथ-साथ आसमान के सूरज, चांद, तारों को भी नहीं छोड़ रहे इस विषैली सोच से और इन सबमें हम सभी औरतें शामिल हैं, जाने-अनजाने में, इस अमानवीय सोच को पल्लवित करने में... एक ऐसा पाप हो रहा है हमसे जिसका मोक्ष कहीं किसी भी कुरान, बाइबल, गीता, गुरु ग्रन्थ या अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में, हज, मक्का, मदीना, मस्जिद, मजार, पूजा, व्रत, जप, तप, गुरुद्वारे, चर्च से नहीं होगा। हमें प्रण करना होगा ‘हमारे बच्चे इंसान की औलाद हैं, उन्हें पहले इंसानियत का पाठ पढ़ाएंगे’
आज जब हम आधुनिक
भारत में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, प्रतिपक्ष की नेता आदि जैसे शीर्ष पदों पर आसीन हुई हैं तो तोहफे में नहीं मिला है ये सब.... संघर्ष है हमारा। बाल विवाह, सती प्रथा, दासता, पर्दा प्रथा,जौहर, देवदासी, बहु विवाह, धर्म, शिक्षा, सामाजिक अधिकारों से वंचन, दहेज प्रथा, तीन तलाक और भी कई नारकीय कष्ट से मुक्ति के लिए इन अत्याचारों के खिलाफ.. अरे हम जो सृष्टिकर्ता का रूप है हमें तो अधिकतर वही शासित करते रहे हैं जिन्हें हम रचते हैं।
इन्होंने तो हमारे आचरण और धर्म तक को खुद तय व नियंत्रित किया हुआ था। अपने स्वार्थानुसार कभी बराबरी, कभी कमतरी, कभी देवी का दर्जा भी इन्ही की देन है। 1730 ई. के आसपास
तंजावुर के एक अधिकारी त्र्यम्बकयज्वन का
स्त्रीधर्मपद्धति इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। इस पुस्तक में प्राचीन काल के आपपस्तंभ सूत्र (चौथी शताब्दी ई.पू.) के काल के नारी सुलभ आचरण संबंधी नियमों को संकलित किया गया है इसका मुखड़ा छंद इस प्रकार है:
मुख्यो धर्मः स्मृतिषु विहितो भार्तृशुश्रुषानम हि :
स्त्री का मुख्य कर्तव्य उसके पति की सेवा से जुड़ा हुआ है। जहां सुश्रूषा (सुनने की चाह) में ईश्वर के प्रति भक्त की प्रार्थना से लेकर एक दास की निष्ठापूर्ण सेवा तक कई तरह के अर्थ समाहित हैं। इससे ज्यादा कुछ नहीं। भूल क्यों जाते हैं हम अपनी ताकत को?
हम तो संतान हैं इन विदुषी-वीरांगनाओं की- दिल्ली साम्राज्ञी रजिया सुल्तान, आसफ खां से लड़कर पंद्रह वर्ष तक शासन करने वाली गोंड रानी दुर्गावती, अहमद नगर की रक्षा करने वाली चांद बीबी, राजशाही शक्तियों का प्रभाव पूर्ण ढंग से इस्तेमाल करने वाली मुगल राजगद्दी के पीछे की वास्तविक शक्ति नूरजहां, जहांआरा, जैबुन्निसा जैसी कवियित्रियां जिन्होंने सत्तारूढ़ प्रशासन को हमेशा प्रभावित किया और जीजाबाई जो कुशल योद्धा, प्रशासक, ‘क्वीन रिजेंट’, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई जिसकी गाथा आज भी हमारे लहू को गर्म करती हैं तो मीराबाई जिसका मान सम्मान सभी को करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
कैकेयी, सीता, तारा, मंदोदरी, अनुसूया, अहिल्या, द्रोपदी, महाश्वेता, कादंबरी, शकुन्तला, लोपामुद्रा, घोषा, कितने नाम लें... अतीत व इतिहास भरा पड़ा है। आज जरुरत है इनकी जीवन यात्राओं को अध्ययन करने की। इनसे सीखने की। हम भूल रहे हैं इनके ज्ञान, आदर्श और अनुशासित जीवन को।
बीसवीं सदी में हरिवंशराय बच्चन ने कहा ‘पुरुष की समस्त पीड़ाओं की एकमात्र औषधि है स्त्री। और दो हजार वर्ष पहले यही बात कालिदास भी कह चुके हैं ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम’ में। समय आ गया है अब हम मंत्री, दासी, माता, रम्भा, सानुकूल, क्षमा गुणों के साथ साथ राष्ट्र निर्माण में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें। चंद्रमुखी बसु, कादंबिनी गांगुली और आनंदी गोपाल जोशी कुछ शुरुआती भारतीय महिलाओं में शामिल थीं जिन्होंने शैक्षणिक डिग्रियां हासिल कीं। आज कई गुना संख्या में हम शिक्षित हैं। साक्षर हैं। हमें अपना संविधान पढ़ना चाहिए।
कम से कम इतना तो हमें पता हो कि भारत का संविधान सभी भारतीय महिलाओं को समान अधिकार (अनुच्छेद 14), राज्य द्वारा कोई भेदभाव नहीं करने (अनुच्छेद 15) (1), अवसर की समानता (अनुच्छेद 16), समान कार्य के लिए समान वेतन (अनुच्छेद 39) की गारंटी देता है। इसके अलावा यह महिलाओं और बच्चों के पक्ष में राज्य द्वारा विशेष प्रावधान बनाए जाने की अनुमति देता है । (अनुच्छेद 15 (3), महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक प्रथाओं का परित्याग करने (अनुच्छेद 51) (ए) और साथ ही काम की उचित एवं मानवीय परिस्थितियां सुरक्षित करने और प्रसूति सहायता के लिए राज्य द्वारा प्रावधानों को तैयार करने की अनुमति देता है।
अब भारत सरकार ने 2001 को महिलाओं के सशक्तिकरण (स्वशक्ति) वर्ष के रूप में घोषित किया था। महिलाओं के सशक्तीकरण की राष्ट्रीय नीति 2001 में पारित की गई थी हमारी भूमिका में भी बदलाव हुआ। भारत उन गिने-चुने देशों में से एक है जहां महिलाएं राज्य के और सरकार के शीर्षस्थ पदों पर विराजमान रही है। तथापि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि विभिन्न क्षेत्रों में साम्प्रदायिकता सहित अनेक चुनौतियां हमारे सामने हैं।
हमारी ताकत यह है कि हम एक मुक्त समाज और ऐसी राजव्यवस्था हैं जहां विभिन्न नियंत्रण और संतुलन हैं। स्वतंत्र न्यायपालिका, स्वतंत्र और जागरूक मीडिया तथा सभ्य समाज इन नियंत्रण और संतुलनों को सम्पूरित करते हैं। परन्तु हमारे घरों और समाज का वातावरण हम ही निर्मित करते हैं। उसमें महिलाओं की महती भूमिका होती है।
यदि कहीं भी, कभी भी युद्ध, दंगे, बलवे होते हैं तो उसका सबसे ज्यादा खामियाजा केवल और केवल औरतों को ही भुगतना होता है। शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक हानि उनके ही हिस्से आती है। इससे निजात पाने का एक ही उपाय है जिम्मेदारी से अपने कर्त्तव्य पालन करें, साम्प्रदायिक जहर मिश्रित परवरिश को नियंत्रित करें। बच्चों को अपने धर्मपालन की शिक्षा जरुर दें पर साथ ही दूसरे धर्मों का आदर करना सिखाएं। बताएं उन्हें कि सभी जगह अच्छे-बुरे लोग होते हैं धर्म बुरे नहीं होते।
नारी जाति के प्रति सम्मान की भावना का बीज सिंचित करें। घर में हो रहे अत्याचार,गलत बातों का मुखर विरोध करें। अपने अधिकारों का न्यायपूर्वक इस्तेमाल करें। देश प्रेम की भावना सर्वोपरि रखें। जिम्मेदार नागरिक बनें और परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करें।
घरों में भ्रष्ट मानसिकता, भ्रष्टाचार की आमदनी का डटकर विरोध करें। अपने मताधिकार का वैधानिक उपयोग करें। आसपास होने वाली गतिविधियों पर कड़ी नजर रखें। अफवाहों, बे-सिर पैर की बातों को तवज्जों न दें और सबसे खास बात सोशल मीडिया पर जहर उगलने वालों से दूरी बनायें व उन्हें ऐसे न करने की चेतावनी दें। यकीन मानिये वो हम ही हैं जो सब कुछ कर सकतीं हैं... सृजन भी और विध्वंस भी।
भारत माता की हम बेटियां मां के इस दर्द को महसूस कर सकतीं हैं। उसके बेटे,बेटियां धर्म की आड़ में खून के प्यासे हो रहे हैं। वो तो उन्हें इंसान के बच्चे, प्रकृति, संतति के रूप में ही पैदा करती है पर हम नालायक उनका बंटवारा कर देते हैं। रोकिये इन विषैले विचारों को, ख़त्म कीजिये झगड़ा। रहम करिये अपनी भारत मां पर और शर्मिंदा हो सभी अपने कुकृत्य पर। हम वास्तव में महिला दिवस मानाने के अधिकारी तभी होंगे जब इन सभी की शुरुआत खुद से करते हैं, अभी से करते हैं... ये देखे बगैर की दूसरे क्या कर रहे हैं।
बदलाव व परिवर्तन प्रकृति का नियम है। स्त्री प्रकृति का दूसरा रूप है। समय की मांग है हम बदलाव व परिवर्तन को स्वीकारें और एक साफ-सुथरा इंसानियत भरा वातावरण अपनी पीढ़ियों को सौंपें। साम्प्रदायिकता के आलावा इस धरती और समाज की जीने योग्य बनाने, बनाये रखने के लिए कई बड़े खतरनाक मसले हमारे सामने खड़े हैं। उनका समाधान मिल कर खोजें।
जिस देश की आबोहवा ने हमको पला है वहा तीन बल महत्वपूर्ण हैं- धन, शक्ति, बुद्धि। इन तीनों की अधिष्ठात्री देवियां लक्ष्मी,दुर्गा,सरस्वती हैं। जब- जब न्याय अन्याय का द्वन्द छिड़ा इन्होने न्याय का साथ दिया। इसीलिए आज तक अधिष्ठात्री के रूप में पूजनीय हैं। हममें इन्हीं का अंश है। इस्तेमाल होना छोड़िये स्वविवेक से काम लीजिये। अब देश के हालत आपको पुकार रहे हैं। जिम्मेदारी का निर्वहन पूरी ईमानदारी से कीजिये तभी महिला दिवस मनाने की असली हकदार होंगें। तभी सबको सन्मति दे भगवान की प्रार्थना भी कर सकेंगे।
पंछी, नदिया, पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके...
सरहद इंसानों के लिए है, सोचो हमने और तुमने क्या पाया इंसान हो के?
‘यदि हम वास्तव में ऐसा कर पाए तो ही हिंसा और भेदभाव से मुक्त वातावरण में सम्मान के साथ जीने वाली और विकास की समान भागीदार के रूप में योगदान करने वाली सशक्त महिला को साकार करने में मददगार होंगे’