उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में एक बार फिर इतिहास अपने आप को दोहराता दिख रहा है। 1990 के दशक के तरह इस बार भी चुनावी लड़ाई मंडल बनाम कमंडल की ओर जाती हुई दिख रही है। जैसे-जैसे चुनाव आगे बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे देश के सबसे बड़े राज्य में चुनावी तस्वीर साफ होती जा रही है।
चुनाव की तारीखों के एलान के बाद राममंदिर और हिंदुत्व के कार्ड के साथ चुनावी मैदान में उतरी भाजपा से जिस तरह पिछड़ वर्ग से आने वाले मंत्रियों और विधायकों के इस्तीफे हुए वह बता रहे है कि उत्तर प्रदेश का चुनाव एक बार फिर जातिगत राजनीति का केंद्र बन गया है। जातिगत राजनीति के केंद्र में फिर एक बार पिछड़ा वर्ग आ गया है और सवाल यह उठाने लगा है कि क्या पिछड़ा वोट बैंक चुनाव में गेमचेंजर की भूमिका निभाने जा रहा है।
उत्तर प्रदेश में योगी मंत्रिमंडल से अति पिछड़ा समुदाय से आने वाले मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्म सिंह सैनी इस्तीफा देकर समाजवादी पार्टी की साइकिल पर सवार हो गए। इतना ही नहीं तीन दिन में तीन मंत्रियों के साथ-साथ 16 विधायकों ने भाजपा को अलविदा कर दिया।
उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति को कई दशकों से करीबी से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि अगर पिछड़ा वर्ग में अंसतोष नहीं होता तो एक साथ तीन मंत्री और इतने विधायक दलबदल नहीं करते है। अगर इन नेताओं को लगता है कि चुनाव में भाजपा की स्थिति अच्छी है तो वह कभी भी पार्टी छोड़ने का निर्णय नहीं लेते। नेता पार्टी तभी छोड़ते है जब वह इस बात को अच्छी तरह जानते है कि पार्टी सत्ता में नहीं आ रही है। निश्चित रूप से इस बार उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सामाजिक न्याय एक बड़ा मुद्दा है।
चुनावी समय में नेताओं के पाला बदलना कोई नई बात नहीं है लेकिन उत्तरप्रदेश जैसे राज्य जहां भाजपा मोदी और योगी के चेहरे पर चुनावी मैदान में है वहां पर ठीक चुनाव से पहले पिछड़ा वर्ग से आने वाले नेताओं का पार्टी छोड़ने के अब मायने तलाशे जा रहे है। माना जा रहा है कि एक तय रणनीति के तहत गैरयादव ओबीसी नेताओं के बारी-बारी से इस्तीफा देने की योजना बनाई गई जिससे भाजपा के लिए पिछले चुनाव में सत्ता की चाबी साबित हुए इस वर्ग को सियासी संदेश दिया जा सके।
संदेश यह जाए कि इस वर्ग का भाजपा से मोहभंग हो गया है। ऐसे में अब ओबीसी नेताओं ने अपने इस्तीफे के साथ भाजपा को ओबीसी विरोधी ठहराने शुरु कर दिया है और भाजपा के सामने चुनाव में ओबीसी वोट बैंक को साधना बड़ी चुनौती बन गई है।
ऐसे में क्या उत्तर प्रदेश की सियासत में 33 फीसदी से अधिक हिस्सेदारी रखने वाला ओबीसी वोटर गेमचेंजर बनेगा इस सवाल पर लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक नागेंद्र प्रताप कहते हैं कि निश्चित रूप से ओबीसी वोटर चुनाव में बड़ी भूमिका निभाने जा रहा है। सभी पार्टियों को लग रहा है कि अगर 33 फीसदी ओबीसी वोटर का आधा भी मिल गया तो चुनावी बेड़ा पार हो जाएगा।
वहीं वह आगे कहते हैं कि ओबीसी वोटर किस तरह और किसके लिए गेम चेंजर बनेगा यह कहना अभी मुश्किल है। मौसम के कुहासे की तरह उत्तर प्रदेश की राजनीति में अभी बहुत धुंधलका है। हर दिन नया बादल घेर लेता है। मायावती के वोट पर नजर रखने वाला है, चुनाव में बड़ा गेम वहां से हो सकता है।
नागेद्र कहते हैं कि 2017 और 2019 के चुनाव में जो पिछड़ा, दलित वोटर भाजपा की ताकत था और जिसके सहारे भाजपा ने बड़ी जीत हासिल की थी उसको अब लगने लगा है कि भाजपा चुनाव आते ही हिंदुत्व के मुद्दें पर आ जाती है। ऐसे में जो एक बड़ा वोटबैंक 2017 और 2019 में भाजपा के साथ गया था उसका अब भाजपा से मोहभंग हो चुका है, ऐसे चुनाव में भाजपा का हिंदुत्व कार्ड भी कितना चलेगा यह अब देखना होगा।
सत्तारूढ़ दल भाजपा भी पिछड़ा और दलित वर्ग को एक जुट करने में पूरी कोशिश में जुटी है। भाजपा ने पहले दो चरणों के उम्मीदवारों की जो सूची जारी की है उसमें पिछड़ी जाति (OBC) और अति पिछड़ी जातियों पर दांव खेला है। भाजपा ने 105 सीटों पर जिन प्रत्याशियों के नामों का ऐलान किया और इसमें सबसे ज्यादा टिकट ओबीसी को दिए हैं। बीजेपी ने 68 फीसदी सीटें ओबीसी, एससी और महिलाओं को दी हैं।
भाजपा ने अपनी पहली सूची में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को गोरखपुर से चुनाव लड़ाने का एलान किया है। गोरखपुर से ही आने वाले वरिष्ठ पत्रकार मनोज कहते हैं कि इस बार के चुनाव में जो एक नई एकता बन रही है पिछड़ों और दलितों की। बहुत सारे पिछ़डे नेता सपा में चले गए है। ऐसे में इस बार योगी के प्रभाव वाले क्षेत्रों में भाजपा को सपा से बड़ी चुनौती मिलने जा रही है।
मनोज आगे कहते हैं कि 2014,2017 और 2019 के चुनाव में भाजपा ने कमंडल ने पिछड़ी जातियों और विशेषकर अति पिछड़ी जातियों को अपने कमंडल में ले आने में कामयाब हुई थी। अति पिछड़ी जातियों में शामिल लोनिया, निषाद सहित कुशवाहा, कुर्मी और राजभर ने खुलकर भाजपा का साथ दिया था। लेकिन इस बार तस्वीर काफी अलग है।
पूर्वांचल में विशेष प्रभाव रखने वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और लोनिया जाति में खासा प्रभाव रखने वाली जनवादी पार्टी समाजवादी पार्टी के साथ है। वहीं अपनादल का भी एक गुट सपा के साथ है। अगर देखा जाए पूर्वांचल में केवल निषाद पार्टी ही भाजपा के साथ है लेकिन निषाद आरक्षण के बारे में भाजपा की ओर से स्पष्ट बात नहीं होने से उसे कोई लाभ नहीं पाएगा। पिछड़ी जातियों का गोलबंद होने से जरूर भाजपा को बड़ा नुकसान होगा।