Shri Krishna 14 July Episode 73 : नर-नारायण का तप भंग करने के लिए भेजी अप्सराएं, शकुनि ने रचा षड्यंत्र

अनिरुद्ध जोशी
मंगलवार, 14 जुलाई 2020 (22:07 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 14 जुलाई के 73वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 73 ) में बलराम और रेवती के विवाह उत्सव के बाद पर्वतराज हिमालय की दो चोटियां पर नर और नारायण को तप करते हुए बताया जाता है। उनके तप से इंद्रदेव का आसन डोल जाता है।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
श्रीमद्भागवत महापुराण के दूसरे स्कंध के सातवें अध्याय में लिखा है कि यहीं पर बहुत समय पहले सतयुग में नर और नारायण नाम दो महात्माओं ने बद्रीकावन के समीप गंधमादन पर्वत पर कई हजार वर्ष की तपस्या की थी। ये दिव्य स्थान बद्रीनाथ धाम के निकट ही है। श्रीवामन पुराण के छठे अध्याय में कहा गया है कि ब्रह्माजी ने अपने हृदय से धर्म को उत्पन्न किया था। ये दोनों धर्म के ही पुत्र थे। श्रीमद् देवी भागवत पुराण के चौथे स्कंध में भी नर और नारायण की तपस्या का वर्णन किया गया है। उनकी एक हजार साल की तपस्या से उनके भीतर अनेकों गोचर और अगोचर शक्तियों का विकास होने लगा। नर और नारायण की अत्यंत कठोर तपस्या के कारण देवलोक में इंद्र का आसन डोलने लगा। 
 
अपनी अज्ञानता के कारण इंद्र ने समझा नर और नारायण स्वर्ग का सिंहासन पाने के लिए ऐसी तपस्या कर रहे हैं तो उसने इंद्र सभा की प्रमुख अप्सराओं को बुलाया और उनसे कहा कि जाओ और नारायण की तपस्या भंग कर दो।
 
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अप्सराएं वहां जाकर दोनों तपस्वियों के सामने नृत्य एवं गान करने लग जाती है। नृत्य एवं गान करने के बाद भी वे अपनी आंखें नहीं खोलते हैं तो वह अप्सरा दोनों के समक्ष उनके चरणों में एक-एक चमत्कारिक और सुगंधित फूल अर्पित कर देती हैं। उस फूल से दोनों की आंखें खुलती है तो वे उस फूल को देखने के बाद सामने खड़ी अप्सराओं को देखते हैं।
 
तब एक तपस्वी नारायण पूछते हैं आप लोग कौन हैं और इस निर्जन एवं एकांतवन में किसलिए आई हैं? तब वह कहती हैं हम इंद्रसभा की अप्सराएं हैं।..इस पर वे कहते हैं अप्सराएं! लेकिन हमारे पास तुम्हारे आने का क्या कारण है? यह सुनकर वह अप्सरा कहती हैं कि देवराज इंद्र आपकी तपस्या से प्रसन्न हुए हैं इसलिए आपको तमाम सुख देने के लिए ही उन्होंने हमें भेजा है।
 
यह सुनकर नारायण मुस्कुराकर कहते हैं अच्छा तो देवराज इंद्र हमें अब इस तरह से सुख पहुंचाना चाहते हैं लेकिन उनसे किसने कहा कि हमें स्वर्ग जैसे सुख की इच्छा है? तब वह अप्सरा कहती हैं कि बिना किसी कामना के तो कोई भी तप करने नहीं जाता मुनिवरों। ...यह सुनकर दोनों हंसते हैं। फिर वह कहती हैं स्वर्ग के सुख के लिए तो सभी प्राणी लालायित रहते हैं क्योंकि स्वर्ग का जो सुख है वही तो आनंद की परम सीमा है। 
 
तब नारायण कहते हैं हे बालिके इंद्र से जाकर कहना कि स्वर्ग के सारे सुख नश्वर है, आज है तो कल नहीं रहेगा। जिस तरह इंद्र के पद पर सदैव एक इंद्र ही नहीं बैठा रहता, उसी तरह वहां के सुख भी क्षणभंगुर ही होते हैं। हम दोनों जिस आनंद के सहारे यहां बैठे हुए हैं उसका पता भला इंद्र को लग भी कैसे सकता है? यह सुनकर वह अप्सरा कहती हैं- हे तपोधन मेरे साथ जितनी भी अप्सराएं हैं वे सब आपका मनोरंजन ही करने के लिए आई हैं। हमें देवराज का आदेश है कि हम सब आपको आपका मनचाहा आनंद दें। इसलिए हम सब आपकी सेवा करने के लिए तैयार हैं।

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यह सुनकर नारायण कहते हैं बालिके तुम अपने रूप और गुणों पर स्वयं मोहित हो रही हो। अपने नृत्य, अपने गायन और अपने रूप का अभिमान हो रहा है तुन्हें। तो लो....ऐसा कहकर नारायण वह फूल उठाकर अपनी जंघा पर स्पर्श करते हैं जिसमें से अप्सरा से भी सुंदर स्त्री की उत्पत्ति हो जाती है जो उस अप्सरा के समक्ष खड़ी होकर प्रभु नारायण को प्रणाम करती हैं। वह अप्सरा उसे देखकर अचंभित हो जाती है। वह सुंदर स्त्री नारायण को प्रणाम करते हुए कहती हैं हे- देव क्या आज्ञा है?
 
तब नारायण कहते हैं- हे सुंदरी क्योंकि तुम हमारे जंघा के ऊर भाग से उत्पन्न हुई हो इसलिए हम तुम्हें उर्वशी का नाम प्रदान करते हैं। फिर उस अप्सरा की ओर देखकर कहते हैं- है कोई तुममें से इस ऊर्वशी से अधिक सुंदर? है कोई तुममें से इस उर्वशी से अधिक नृत्य में प्रवीण? अपनी सभी कलाओं से इन्हें परिचित कराओ उर्वशी।
 
उर्वशी कहती हैं जो आज्ञा देव। फिर उर्वशी और उन अप्सराओं में सुंदर नृत्य और गान की प्रतियोगिता होती हैं। अंत में सभी अप्सराएं चक्कर खाकर गिर जाती हैं और उर्वशी जीत जाती हैं। तब नारायण कहते हैं कि अब तुम लोग समझ गए ना कि स्वर्गलोक के सारे सुख मेरी जंघाओं के नीचे दबे हुए हैं। 
 
फिर वह अप्सरा कहती हैं- क्षमा करें देव, हमें क्षमा करें। हम सबसे बड़ा अपराध हुआ है। तब नारायण कहते हैं- नहीं तुम अपने स्वामी की आज्ञा से तपोवन में आई हो इसलिए तुम निरपराध हो। इंद्र को हमारी ओर से ये उर्वशी उपहार में देना और कहना कि अपने लौकिक सुखों की गिनती में हमारे इस उपहार को लेकर एक गिनती और बढ़ा लें.. जाओ।... उर्वशी प्रभु को नमन करके वहां से अप्सराओं के साथ चली जाती हैं। वे दोनों पुन: तपस्या में लीन हो जाते हैं।
 
पुराणों में उल्लेख है कि यही नर और नारायण आगे चलकर द्वापर में श्रीकृष्ण और उनके सखा अर्जुन के रूप में प्रकट हुए थे। श्रीकृष्ण यदुवंश में और अर्जुन पांडु के कुल में कुंती के गर्भ से पैदा हुए। इसकी पुष्टि स्वयं श्रीकृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय के पांचवें श्लोक में की है। 
 
इसके बाद अर्जुन को बताते हैं जो हस्तिनापुर आने के बाद भी अपनी धनुर्विद्या के अभ्यास में निरंतर खोया रहता है। कदाचित उसके मन में कहीं यह आभास छुपा हुआ था कि उसे आने वाले समय में कोई महान युद्ध करना पड़ेगा। इन्हीं दिनों श्रीकृष्ण ने बलराम को बताया था कि पाडवों पर एक भीषण संकट आने वाला है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि शकुनि ने एक भीषण षड़यंत्र रचा है और इस डर से कि पांडवों की हत्या पर प्रजा विद्रोह न करे, उसने अपनी सहायता के लिए एक गुप्तचर को जरासंध के पास भेज दिया है। 
 
उधर, जरासंध कहता है कि कृष्ण के जीवित होने कारण परिस्थिति में बदलाव हो गया है और यह चिंताजनक है। तब शल्य बताते हैं इस परिस्थिति में बदला हो सकता है यदि युवराज युधिष्ठिर की हत्या हो जाए तो।...यह सुनकर सभी सभासद दंग रह जाते हैं। फिर महाराज शल्य शकुनि के षड़यंत्र और राज्य में विद्रोह की बात बताकर कहते हैं कि उन्हें हमारे सैनिकों की आवश्यकता पड़ सकती है। जरासंध कहता है अतिउत्तम महाराज शल्य हम उनकी सहायता अवश्य करेंगे। 
 
फिर दुर्योधन और शकुनि के बीच वार्तालाप को बताया जाता है जिसमें दुर्योधन युधिष्ठिर के युवराज बनने पर कहता है कि मामाश्री आपके सारे वचन मिथ्या हो गए। कर्ण ने कहा था कि विद्रोह करो लेकिन आपने नहीं करने दिया। तब शकुनि बताता है कि तुम द्रोण और पितामह भीष्म से नहीं लड़ सकते थे। बाद में शकुनि दुर्योधन को बताता है कि वह किस तरह कुंती सहित पांचों पांडवों को एक महान तीर्थ स्थान भेजकर वहां उनकी मुक्ति का षड़यंत्र रच रहा है।
 
फिर शकुनि वारणावत में लक्षागृह की योजना बताता है जिसमें पांचों पांडवों को जलाकर मार देने के षड़यंत्र का खुलासा करता है। वह कहता है कि मैंने अपने कुछ आदमियों को वारणावत का पुरोहित बनाकर धृतराष्ट्र के पास भेजा है जो यह बताएंगे कि महाराज जब से लोगों ने सुना है कि इस बार युवराज युधिष्ठिर शिव महोत्सव के लिए आ रहे हैं तब से वारणावत के लोगों की एक ही इच्छा है कि उनके चारों भाई भी वहां पधारने की कृपा करें तो प्रजा को बहुत हर्ष होगा। वास्तव में बहुत वर्ष पहले आपके छोटे भाई वहां पूजा के लिए जाया करते थे।...इस तरह शकुनि सभी को धृतराष्ट्र की आज्ञा से वारणावत भिजवाने की आज्ञा दिलवा देता है। जय श्रीकृष्‍णा । 
 
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