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Shri Krishna 15 Sept Episode 136 : पौंड्रक कर देता है द्वारिका पर आक्रमण

हमें फॉलो करें Shri Krishna 15 Sept Episode 136 : पौंड्रक कर देता है द्वारिका पर आक्रमण

अनिरुद्ध जोशी

निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 15 सितंबर के 136वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 136 ) में वानर द्वीत द्वारिका पर आक्रमण करके सब तहस नहस करने लगता है तब बलरामजी उसे आकर रोकते हैं तो वह कहता है- मैं यहां अपने भगवान वासुदेव की आज्ञा से द्वारिका को श्मशान और तुम सबको मृत्यु का दान देने आया हूं। लोग मुझे मृत्यु दाता भी कहते हैं। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- हे मूर्ख उन्मत वानर तेरे झूठे भगवान ने तेरी झूठी प्रशंसा करके तुझे मृत्यु की आग में झोंका है। हे मायावी वानर! मैं तुझे एक और मौका देता हूं यदि तू जीवित रहना चाहता है तो भाग, भाग यहां से। यह सुनकर वह कहता है कि मैं यहां द्वारिका का विनाश करने आया हूं और विनाश करके ही जाऊंगा। तू जान बचाना चाहता है तो मुझसे क्षमा मांगकर, रो कर, गिड़गिड़ाकर यहां से भाग सकता है। 
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
यह सुनकर बलरामजी उसे अपने हल से दबाकर छोटा कर देते हैं तो वह डर के मारे भागने लगता है। फिर बलरामजी उसे अपने हल से बुरी तरह उसे धो देते हैं और वह घायल हो जाता है। तब बलरामजी अपनी मुष्‍ठिका से उसेके पेट में प्रहार करके उसका वध कर देते हैं। फिर बलरामजी सिहाहियों से कहते हैं- सिपाहियों इसकी लाश को पौंड्रक नगरी में फेंक दो।  
 
वानर द्वीत की लाश के पास पौंड्रक बैठा रहता है तब उसकी पत्नी तारा कहती है- देख लिया महाराज, श्रीकृष्ण से टकराने का परिणाम। यह सुनकर पौंड्रक क्रोधित होकर कहता है- चुप तारा चुप, हमारा मित्र सो रहा है और तुम शोर कर ही हो, सोने दो इसे सोने दो। यह सुनकर काशीराज कहते हैं- भगवान वासुदेव द्वीत मर चुका है। तब पौंड्रक कहता है- हां हम भी तो यही कह रहे हैं, सो रहा है ये मृत्यु की नींद सो रहा है। उस ग्वाले कृष्ण ने इसे सुला दिया है। यह सुनकर उसका भाई कहता है- हां वासुदेव हां। हमने बहुत बड़ी भूल की। ये भूल हमें बहुत महंगी पड़ी। परंतु अब हम उस कृष्ण को एक-एक करने सबको निगलने का अवसर नहीं देंगे। हम सब मिलकर उस ग्वाले को जंगली कुत्तों की भांति घेर लेंगे और फिर उसका विनाश कर देंगे।
 
यह सुनकर तारा कहती हैं- तुम सब अब तक अपनी मनमानी करते रहे परंतु अब मैं तुम सबके इस नाटक का तमाशा नहीं देख सकती। यह सुनकर पौंड्रक कहता है- चुप रहो तारा चुप रहो। यह वानर कोई मृत्यु का नाटक नहीं कर रहा है ये सचमुच का मर गया है। यह सुनकर तारा कहती है- श्रीकृष्ण ने द्वीत को दंड दिया है। वह मर गया है इसका मरना कोई नाटक नहीं है। तब पौंड्रक कहता है- तो तुम किस नाटक की बातें कर रही हो तारा हां? तब तारा कहती है कि आपके भगवान वासुदेव होने के नाटक की बात कर रही हूं मैं। यह सुनकर पौंड्रक कहता है कि हम वासुदेव हैं, भगवान हैं हम।
 
तब तारा कहती है- आप भगवान हैं तो अपने मित्र की लाश पर आंसू क्यों बहा रहे हैं? केवल अपनी अंगुली उठाकर द्वीत को खड़े होने का संकेत क्यों नहीं कर रहे? दिखाईये अपनी लीला और द्वीत को जीवित कर दीजिये। यह सुनकर पौंड्रक जोर से चीखता है- तारा। तब काशीराज कहता है- वासुदेव उस कृष्ण ने अपनी माया से आपके घर में ही आपका विरोधी पैदा कर दिया है। यह सुनकर पौंड्रक कहता है- इससे पहले कि वह पौंड्र नगरी को हमारा विरोधी बना दे हम उसका वध कर देंगे।...फिर वह अपने भाई को कहता है- हलधारी तुम अपना हल तैयार करो और हम अपनी माया दिखाते हैं। काशीराज अपनी सेना को आदेश दो कि हमारे साथ द्वारिका पर चढ़ाई करने की तैयारी करें। हम द्वीत के वध का बदला अवश्य लेंगे। तब उसका भाई कहता है कि पहले यज्ञ करके अपने दिव्य अस्त्र ग्रहण करें और फिर उस पर आक्रमण करें तो पौंड्रक कहता है- हां दाऊ भैया हम अवश्य यज्ञ करेंगे।
 
फिर पौंड्रक 
अकेला ही यज्ञ करता है। यह देखकर श्रीकृष्ण रुक्मिणी से कहते हैं- जानती हो देवी! ये दिव्यास्त्र पौंड्रक किसलिए ग्रहण कर रहा है? तब रुक्मिणी कहती है कि युद्ध में आपको हराकर पौंड्रक ये प्रमाणित करना चाहता है कि इस पृथ्‍वीलोक में केवल वो ही एक वासुदेव हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- देवी पौंड्रक जैसे अज्ञानी नहीं जानते की शय्या खरीदी जा सकती है परंतु नींद खरीदी नहीं जा सकती। सुख भोगने के साधन तो जुटाए जा सकते हैं परंतु सुख का निर्माण नहीं किया जा सकता। इसी तरह भगवान होने का नाटक किया जा सकता है परंतु कभी कोई भगवान नहीं बन सकता। तब रुक्मिणी कहती है कि प्रभु जब कोई खुद को सर्वोत्तम मानने लग जाता है तो नीचे गिरने लगता है और पौंड्रक तो इतना नीचे गिर गया है कि वह आपके अर्थात साक्षात भगवान से ही युद्ध करने चला है।..
 
फिर कृष्‍ण कहते हैं कि सर्वश्रेष्ठ बनने की लालसा में अस्त्रों की, महाअस्त्रों को प्राप्त करने के लिए उसकी लालच बढ़ने लगती है। परंतु वह एक बात भूल जाता है कि इन अस्त्र और महाअस्त्रों के कारण मनुष्य महाविनाश कर सकता है। देवी आज की सत्ता की ये लालसा कलयुग में भी दिखाई देगी। हर कोई बल द्वारा सत्ता और सत्ता द्वारा बल प्राप्त करने का प्रयास करेगा। हर कोई शस्त्र प्राप्त करने का प्रयास करेगा और सत्ता की होड़ लगेगी और होगी प्राणघातक स्पर्धा। जिसके कारण होगा महाभयंकर युद्ध और युद्ध का परिणाम होगा महाभयंकर विनाश, महाभयंकर संहार। इसलिए मैं कह रहा था देवी की युद्ध एक यज्ञ है और रणभूमि एक यज्ञकुंड है जिसमें मानव प्राणों की आहूति देनी पड़ती है।
 
उधर, पौंड्रक कहता है- हे यज्ञ देवता हम वासुदेव भगवान पौंड्रक द्वारिका पर आक्रमण करके उस झूठे कृष्‍ण का वध करने जा रहे हैं। कृष्‍ण मायावी है और उसे परास्त करने के लिए हमें अपने दिव्य अस्त्रों की आवश्‍यकता है। यह सुनकर यज्ञदेवता कहते हैं- हे पौंड्रक तुम्हारी इच्‍छा से मुझे लालच, स्वार्थ और आसुरी प्रवृत्ति की गंध आ रही है। तुम साक्षात त्रिलोकीनाथ से युद्ध करना चाहते हो। उन्हें झूठा भगवान कह रहे हो। पौंड्रक श्रीकृष्ण ही सच्चे भगवान हैं। इसलिए तुम दिव्यास्त्र प्राप्त करके भी विजय प्राप्त नहीं कर सकोगे और ना ही तुम्हें यश की प्राप्ति होगी।
 
यह सुनकर पौंड्रक कहता है- हे यज्ञदेवता हम समझ रहे हैं कि तुम कृष्‍ण के विरूद्ध हमें दिव्यास्त्र देने में टालमटोल कर रहे हो परंतु ये मत भूलिये की ये दिव्यास्त्र हमें प्राप्त वरदान हैं और आप इनसे हमें वंचित नहीं रख सकते। हम जब भी चाहें इन्हें ग्रहण कर सकते हैं और अपने शत्रु के विरूद्ध इनका प्रयोग कर सकते हैं। तब यज्ञ देवता कहते हैं- मैं तो तुम्हें चेतावनी दे रहा हूं अब तुम जानो। मैं तुम्हारे दिव्यास्त्र तुम्हें प्रदान करता हूं।.. फिर पौंड्रक एक-एक करके सारे दिव्यास्त्र ग्रहण करता है। 
 
फिर सभी पौंड्रक की जय-जयकार करते हुए पौंड्रक के साथ दरबार में प्रवेश करते हैं जहां पौंड्रक की पत्नी तारा खड़ी रहती है जिसकी दासी के हाथ में थाली में तलवार और पूजा की सामग्री होती है। पौंड्रक कहता है- हम भगवान हैं जीवन और मृत्यु हमारे हाथ में हैं। हम कृष्ण को मारकर लौटेंगे इसलिए तुम अपने मुखमंडल से चिंताओं की काली घटा को हटा दो तारा। अरे ये चिंता, निराशा, भय, मृत्यु ये तो हमारे शत्रु कृष्ण की पत्नियों को होना चाहिए ना की वासुदेव भगवान पौंड्रक की पत्नी हो। अब लाओ हमें हमारी तलवार दो और विजयी तिलक से हमारे माथे की शोभा बढ़ाओ। तब उसकी पत्नी तारा कहती हैं- नहीं स्वामी जिसने भी भगवान श्रीकृष्ण से युद्ध करने का साहस किया वह मारा गया है।
 
यह सुनकर पौंड्रक भड़क जाता है और कहता है- तुम्हें तुम्हारी मांग में भरी इस सुहाग की चिंता है ना? लो अभी हम इसे दूर कर देते हैं।... फिर पौंड्रक अपने हाथों से उसकी पत्नी की मांग का सुंदर मिटा देता है। तब उसकी पत्नी रोते हुए कहती है- स्वामी ये आपने क्या अनर्थ कर दिया? तब पौंड्रक कहता है- ये अनर्थ हमने तुम्हारे विश्वास की डगमगाती नैया को देखकर किया है। जो पत्नि अपने पति के बहुबल पर शंका करती है उसकी मांग में सुहाग की ये पवित्र निशानी शोभा नहीं देती। अब जब युद्ध भूमि से विजय पताका लेकर लौटेंगे तब कृष्‍ण के रक्त से तुम्हारी मांग भरेंगे। फिर पौंड्रक खुद ही तलवार लेकर चल देता है।..फिर वह अपनी सेना को लेकर नगर के बाहर निकल जाता है। उसके साथ उसका भाई रणधीर हलधर और काशीराज भी रहते हैं।
 
उधर, श्रीकृष्‍ण को यह समाचार एक दूत आकर देता है। सूचना देते वक्त दरबार में बलराम, सात्यकि और अक्रूरजी भी रहते हैं। तब बलरामजी खड़े होकर कहते हैं- देख लिया कन्हैया पौंड्रक का ये दुस्साहस। ये सब तुम्हारी उदारता का ही परिणाम है। मेरा बस चलता कन्हैया तो पौंड्रक के उस दूत की लाश को पौंड्रक के दरबार में भेज देता। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये उचित नहीं होता दाऊ भैया। तब बलरामजी कहते हैं- अरे क्या उचित नहीं होता। तुम्हारे इसी उचित-अनुचित की बातों ने पौंड्रक जैसी एक चींटी को हमारे लिए समस्या बना दिया है। तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं- दाऊ भैया पौंड्रक मेरे लिए समस्या नहीं है। इस पर बलरामजी कहते हैं कि यदि समस्या होता भी तो मैं अकेला ही उसका समाधान कर देता परंतु इस समय तो सबसे बड़ी समस्या तुम हो तुम। तुम्हारे ये शांति के विचार ही है जो हमारे राजपाट की सुरक्षा और मान-सम्मान में बाधा बन जाते हैं।
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं- दाऊ भैया। तब दाऊ भैया चिढ़कर कहते हैं- अरे काहे का दाऊ भैया। दाऊ भैया, दाऊ भैया कहते रहते हो। हर समय अपने प्रेम और स्नेह के बंधन में बांधकर रख देते हो कन्हैया। पापियों को दंड तक देने नहीं देते। कन्हैया इस संसार में शांति शांति की माला जपने से काम नहीं चलता। दानवों के बीच प्रेम और शांति की भावना से काम नहीं लिया जाता कन्हैया। उनकी भ्रष्ट बुद्धि को ठिकाने लगाने के लिए सिर्फ बल और शक्ति का ही प्रयोग करना पड़ता है।
 
यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि आपका कथन भी ठीक है दाऊ भैया परंतु बल का प्रयोग दूत के लिए नहीं किया जाता। राजपाट के भी कुछ नियम होते हैं, मर्यादाएं होती हैं। तब बलरामजी कहते हैं- ठीक है अब बताओं हम क्या करें? पौंड्रक आक्रमण के लिए आ रहा है क्या अब भी हाथ पर हाथ धरे बैठें रहें? तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं- पौंड्रक द्वारिका पर चढ़ाई करने आ रहा है शांति का संदेश लेकर नहीं। इसलिए हम उसका उत्तर अवश्‍य देंगे। दाऊ भैया मैं युद्ध नहीं करना चाहता था परंतु होनी बड़ी बलवान होती है इसलिए पौंड्रक का काल उसे युद्ध भूमि तक खींच कर ला रहा है। 
 
तब बलरामजी कहते हैं- हां कन्हैया उस पौंड्रक को तो मैं स्वयं मौत के घाट उतार दूंगा। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं दाऊ भैया। पौंड्रक ने मुझे झूठा वासुदेव कहा है और अपने आपको सच्चा वासुदेव कहकर वह मेरा अपराधी बन गया है। इसलिए दंड भी उसे मैं ही दूंगा। यही पौंड्रक का प्रारब्ध है यही उसका भाग्य है। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं कि तो इसका अर्थ यही हुआ ना कन्हैया की हम युद्ध करेंगे? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- अवश्‍य। यह सुनकर बलरामजी अक्रूरजी से कहते हैं- अक्रूरजी, सात्यकि, सेनापति अपनी सेनाओं को आदेश दो की युद्ध क्षेत्र में आक्रमण के लिए तैयार रहें। सभी कहते हैं- जो आज्ञा।..फिर अक्रूरजी सक्रिय हो जाते हैं और युद्ध की तैयारियां प्रारंभ हो जाती है।
 
फिर रुक्मिणी कहती है- प्रभु! आज द्वारिका में कितनी शांति दिखाई दे रही है। समय की गति थम गई है। सब घड़ियां सब पल सिमट कर शून्य हो गए हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हां देवी समय के सीने में भूतकाल और भविष्यकाल दोनों छीपे होते हैं। समय को पिछले इतिहास और भविष्‍य में होने वाली घटनाओं का पूर्वज्ञान होता है। इसलिए समय संसार की हर बड़ी घटना के घटने से पहले और दुर्घटना के घटने के बाद मौन हो जाता है। समय मौन रहकर हर घटना और हर विडंबना को सहने का गुर जानता है। समय के सीने में आंधियां उठती रहती है, उठती रहती है परंतु मुख पर विराट शांति छाई रहती है। तब रुक्मिणी कहती हैं- प्रभु क्या समय किसी बहुत बड़ी दुर्घटना की भूमिका बांध रहा है? ये शांति ये खामोशी किसी विडंबना के संकेत दे रहे हैं क्या?
 
तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं- देख नहीं रही हो देवी। ये शमशान जैसी शांति मनुष्य की बहुत बड़ी विडंबना की ओर संकेत कर रही है। तब रुक्मिणी कहती है- सबसे बड़ी विडंबना? तब श्रीकृष्‍ण कतते हैं- हां देवी युद्ध मनुष्‍य की सबसे बड़ी विडंबना होती है। इसलिए की इसमें हजारों लोग व्यर्थ ही मारे जाते हैं। इसलिए समय युद्ध के पूर्व चुप हो जाता है। युद्ध के बाद भी जब युद्ध भूमि लाशों और कटे हुए मानव अंगों से ढंक जाती है, मृत्यु अपनी झोली भरकर चली जाती है। उस घड़ी भी समय मौन हो जाता है, किसी बूढ़े बरगद की भांति।
 
फिर द्वारिका के सभी सैनिक द्वारिका से बाहर निकलकर युद्ध के लिए निकल पड़ते हैं। जय श्रीकृष्णा।

रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 

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