निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 12 सितंबर के 133वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 133 ) में वासुदेव पौंड्रक के मायावी सेनापति का वध करने के बाद हनुमानजी उसकी सभा में उपस्थित होकर उसे धर्म के मार्ग पर लौट आने की बात करते हैं परंतु पौंड्रक कहता है हे वानर तुम यहां आ तो गये हो परंतु यहां से जीवित नहीं जा पाओगे।
यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं अच्छा। तभी पौंड्रक अपने हाथ का सुदर्शन चक्र फेंकता है हनुमानजी उसे अपने हाथ से आसानी से पकड़ लेते हैं। यह देखकर पौंड्रक घबरा और सकपका जाता है। तब हनुमानजी कहते हैं- हे पौंड्रक जिस तरह मैं लंका में रावण का वध कर सकता था परंतु अपने स्वामी की आज्ञा ना होने के कारण मैंने उसे छोड़ दिया था। उसी तरह इस समय भी मैं विवश हूं। वर्ना इसी समय तुम्हारा वध करके मुझे असीम शांति प्राप्त होती। काश मेरे स्वामी श्रीराम ने मुझे इसकी आज्ञा दी होती।
फिर हनुमानजी उस चक्र को पौंड्रक की ओर फेंक देते हैं तो वह चक्र उसकी अंगुली में जाकर स्थिर हो जाता है। फिर हनुमानजी कहते हैं कि पौंड्रक मैं जा रहा हूं और यदि तुम शीघ्र ही धर्म के मार्ग पर नहीं लौटे तो मैं लौटकर आऊंगा। फिर हनुमानजी हाथ जोड़कर जय श्रीराम बोलकर अदृश्य हो जाते हैं।
फिर हनुमानी अपने स्थान गंधमादन पर्वत पर जाकर बैठ जाते हैं और श्रीकृष्ण को प्रणाम करते हैं। तब अपने महल में बैठे श्रीकृष्ण कहते हैं- हनुमान तुम कुछ विचलित दिखाई दे रहे हो? यह सुनकर वे कहते हैं- प्रभु आपके आदेशानुसार मैंने पापी पौंड्रक को धर्म के मार्ग पर लाने की चेष्ठा की, परंतु अहंकारी अपने आपको धर्म के मार्ग पर लाने को तैयार नहीं है। उसका विनाश अवश्य है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां हनुमान ये तो सृष्टि का अटल नियम है कि जैसी करनी वैसी भरनी। पौंड्रक भी इस नियम से बाहर नहीं है परंतु अभी उसे पश्चाताप और भूल सुधारने का अवसार मिलना चाहिए क्योंकि उसके पाप का घड़ा अभी भरा नहीं है। इस पर हनुमानजी कहते हैं- प्रभु आप तो जानते ही हैं ऐसे पापियों का मन पाप और विलास से कभी नहीं भरता।
यही तो विडंबना है मेरे भक्त! मनुष्य जब गलत रास्ते पर पग धरता है तो उसे ठोकर लगती है। सद्बुद्धि वाला मनुष्य ये समझ जाता है कि वो गलत रास्ते पर चल पड़ा है और वह तुरंत संभल जाता है परंतु पापों के कारण जिनकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है वो बार-बार ठोकर खाकर भी ये बात समझ नहीं पाता कि ये उनकी करनी का फल है। तब हनुमानजी कहते हैं- क्षमा करें प्रभु! ये पौंड्रक तो उन लोगों में से है जो जानबुझकर भी पाप की डगर पर चल पड़ते हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हां मेरे परमप्रिय भक्त तुम्हारी बात एक कटु सत्य है। तुम परमज्ञानी हो, तुम सब जानते हो।
तब हनुमानजी कहते हैं कि प्रभु मैं तो यह भी जानता हूं कि एक दिन वो पौंड्रक का विनाश होगा। प्रभु यदि इस सेवक को अवसार दें तो मैं इस झूठे भगवान का वध करना चाहूंगा। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं तुम्हारी भक्ति और भावना का सम्मान करता हूं परंतु यह संभव नहीं है। इस पर हनुमानजी कहते हैं कि परंतु क्यों प्रभु? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि इसलिए कि पौंड्रक ने मेरा स्वांग रचाकर जो अपराध किया है उसका दंड मेरे अतिरिक्त कोई और दे ये उचित नहीं है। यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- हां ये बात तो ठीक ही है प्रभु। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि परंतु भक्त हनुमान तुम दुखी क्यों होते हो, मैं तुम्हें सेवा का अवसर अवश्य दूंगा। अभी मुझे कई लोगों के अहंकार तोड़ने हैं। मैं अपने इन संबंधियों का अहंकार अपने इस परमभक्त के हाथों तोड़ना चाहता हूं पर अभी नहीं। यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- प्रभु मैं आपके आदेश की उत्सुकता से प्रतिक्षा करूंगा, ये मेरा सौभाग्य होगा। फिर श्रीकृष्ण को वे प्रणाम करते हैं तो श्रीकृष्ण उन्हें आशीर्वाद देते हैं।
उधर, पौंड्रक अपने महल की गैलरी में अपनी पत्नी, भाई और काशीराज के साथ खड़ा रहता है तो पौंड्रक आश्चर्य से कहता है सेनापति दूर्धर का वध कैसे हो सकता है। वह तो दैत्यों में महाशक्तिशाली था, महामायावी था उसका वध कैसे हो गया? फिर पौंड्रक कहता है भ्राताश्री हमारे सेनानायकों को आदेश दो कि वह पागल बूढ़ा कौन था और कहां से आया था जाओ। यह सुनकर उसका भाई कहता है- जो आज्ञा वासुदेव। ऐसा कहकर वह चला जाता है तब पौंड्रक की पत्नी कहती है- स्वामी आप हनुमानजी के साथ क्यों दुश्मनी मोल ले रहे हैं?
यह सुनकर पौंड्रक कहता है फिर वही हनुमान, फिर वही हनुमान। महाराज काशीराज हम महारानी तारा का यह भ्रम कैसे दूर करें कि वो हनुमान नहीं था। तब काशीराज कहते हैं कि एक वानर की सत्यता को एक वानर ही बता सकता है वासुदेव। यह सुनकर पौंड्रक कहता है परंतु कौन है वह वानर जो यह सत्य बता सकता है? यह सुनकर काशीराज कहता है- आप अपने हनुमान को भूल गए? यह सुनकर आश्चर्य से पौंड्रक कहता है- हमारा हनुमान? तब काशीराज कहते हैं- हां वासुदेव आपका मित्र, महामायावी, महाकाय द्वीत वानर जो आपका सचमुच का हनुमान है। यह सुनकर पौंड्रक कहता हैं- हां हनुमान का दावा करने वाले उस पागल बूढ़े अहंकारी का अहंकार मिटाने के लिए द्वीत वानर से बढ़कर और कौन हो सकता है। तब काशीराज कहता है- हां वासुदेव अब आप अपने मायावी द्वीत को प्रकट कीजिये।
फिर पौंड्रक गैलरी के आकाश में देखकर कहता है- मित्र द्वीत हम वासुदेव पौंड्रक तुम्हें प्रकट होने की आज्ञा देते हैं, प्रकट हो द्वीत प्रकट हो। तभी आसमान से हनुमानजी जैसा ही एक विशालकाय वानर प्रकट हो जाता है और कहता है- प्रणाम वासुदेव। उसे देखकर प्रौंड्रक प्रसन्न होकर कहता है- प्रणाम मित्र। फिर वह द्वीत कहता है- बताओ मुझे क्यों बुलाया है मेरा आह्वान क्यों किया? क्या तुम्हारा कोई शत्रु है जो तुम्हें त्रस्त कर रहा है? तब पौंड्रक कहता है- हे द्वीत! तुम तो जानते ही हो कि तुम्हारा और हमारा एक ही शत्रु है ग्वाला कृष्ण। परंतु इस समय एक पागल बूढ़ा हमारे लिए एक समस्या बनकर खड़ा हो गया है। उसने हमारे सेनापति दूर्धर की हत्या कर दी है।
यह सुनकर द्वीत आश्चर्य से कहता है- एक बूढ़े ने महाबली दूर्धर की हत्या कर दी? तब काशीराज कहता है कि हां वह बूढ़ा अवश्य है परंतु महाशक्तिशाली है और वह अपने आप को हनुमान कहता है। यह सुनकर द्वीत आश्चर्य से पूछता है- पवनपुत्र हनुमान? तब पौंड्रक कहता है- हां मित्र और हमारी महारानी को भी ये भ्रम हो गया है कि वह पवनपुत्र हनुमान है। तब तरा कहती है- यह मेरा भ्रम नहीं मेरा विश्वास है। इस पर द्वीत कहता है- नहीं नहीं आप सब अपने मन से ये भ्रम निकाल दो की हनुमान जीवित है। यदि वह जीवित होता तो मैं उसकी चिता जला देता।
यह सुनकर पौंड्रक कहता है- हां मित्र हमें तुम पर विश्वास है कि हनुमान जीवित है तो तुम उसकी चिता अवश्य सजा दोगे। यह सुनकर द्वीत कहता हैं- हां अब मुझे आज्ञा दीजिये की मैं पौंड्र नगरी के आसपास के सभी नगरों की चिता जला दूं जो आपको भगवान नहीं मानते हैं और उन साधुओं के यज्ञकुंड को नष्ट कर दूं जिससे उस ग्वाले कृष्ण की ताकत बढ़ती जा रही है। तब पौंड्रक कहता है- अवश्य जाओ मित्र अवश्य जाओ। तब द्वीत वासुदेव को प्रणाम करके चला जाता है।
फिर पौंड्रक कहता है- चलो काशीराज, इस पर उसकी पत्नी उसका हाथ पकड़कर कहती है- मुझे भय लग रहा है स्वामी। साक्षात हनुमानजी ने आपको जो संकेत दिए हैं आप उन्हें महत्व नहीं दे रहे हैं। आप वासुदेव श्रीकृष्ण को भगवान मानिए। यह सुनकर पौंड्रक भड़क जाता है और चीखकर कहता है- महारानी। तब काशीराज कहता है- चिंता ना कीजिये महारानी। वो ग्वाला हमारा बाल भी बांका नहीं कर सकता। स्वयं वासुदेव पौंड्रक परमप्रतापी हैं और द्वीत जैसा सामर्थशाली महावीर हमारा मित्र है। इसके बाद पौंड्रक क्रोधित होकर वहां से चला जाता है।
फिर उधर विशालकाय द्वीत वानर एक आश्रम में पहुंच यज्ञकर रहे साधुओं के यज्ञ की अग्नि बुझाकर कहता है- यज्ञ कर रहे हो। मेरे मित्र वासुदेव को भगवान नहीं मानते हैं और उस ग्वाले कृष्ण की शक्ति बढ़ा रहे हो। जिस कृष्ण ने मेरे भाई नरकासुर का वध किया है मैं उसका और उसके भाई बलराम का वध करूंगा। इस यज्ञ की भांति कृष्ण की द्वारिका नगरी ध्वस्त कर दूंगा। फिर वह यज्ञ वेदी तोड़ देता है, सारे साधु वहां से भाग जाते हैं।
फिर बलरामजी को बताया जाता है- रथ पर। वे सारथी से कहते हैं कि कितनी धीमी गति से रथ चला रहे हो, जरा तेज चलाओ। कितने दिनों बाद तो मैं इंद्रप्रस्थ से द्वारिका लौट रहा हूं। अपने कन्हैया से मिलने के लिए बहुत व्याकुल हूं मैं। उसे गले लगाने के लिए तड़प रहा हूं मैं, रथ की गति बढ़ाओ। सारथी कहता है- जो आज्ञा दाऊ भैया।..तभी बलरामजी साधुओं को देखते हैं वे बचाओ बचाओ करके भाग रहे होते हैं तो बलरामजी सारथी से कहते हैं- सारथी रथ रोको।
सभी साधु दौड़ते हुए बलराम के रथ के पास आकर रुकते हैं और बलराम को देखकर कहते हैं- बलरामजी आप? बलराम को देखकर साधु संन्यासी राहत की सांस लेते हैं तब बलरामजी कहते हैं- प्रणाम महात्मन ये सब क्या है, क्या हुआ आप लोग इतने भयभीत क्यों हैं? क्या बात है आप किससे भाग रहे हैं, कोई पापी आप पर अत्याचार कर रहा है? तब एक साधु कहता है- हां यह सब पापी पौंड्रक का प्रकोप है। तब बलरामजी पूछते हैं- कौन है ये पौंड्रक? तब एक साधु कहता है कि वह दुष्ट अपने आप को भगवान समझता है परंतु हम उसे कैसे भगवान समझ लें। वो झूठा है इसलिए हम उसकी नगरी को छोड़कर दूर तपस्या करने चले गए थे परंतु वहां पर उसके पापी दुष्ट सैनिक हमारे सिरों पर तलवार लेकर पहुंच गए। हम किसी तरह अपने प्राणों को बचाकर भागे हैं परंतु पौंड्रक का सेनानायक किसी श्राप की भांति हमारे पीछे पड़ गया है। बलरामजी हमें बचाइये, हमें बचाइये।
तभी वहां पर सेनानायक अपने सैनिकों के साथ वहां पहुंच जाता है। तब बलरामजी रथ से नीच उतरकर कहते हैं- हे दानव इन साधुओं पर क्यों अत्याचार कर रहे हो तुम? तब वह सेनानायक कहता है कि हम वासुदेव पौंड्रक के आदेश का पालन कर रहे हैं। इन मूर्खों ने उन्हें भगवान मानने से इनकार कर दिया है। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- पौंड्रक, वासुदेव भगवान! ये क्या अनाप-शनाप बक रहे हो तुम, वो भगवान कैसे हो सकता है? यह सुनकर वह सेनानायक कहता है ओह तो तुम भी नास्तिक हो? वासुदेव पौंड्रक को ईश्वर नहीं मानते। सैनिकों इन साधुओं के साथ साथ इस युवक को भी बंदी बनाकर ले चलो।
यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- हे अत्याचारी मैं बलराम हूं बलराम। तुरंत यहां से चुपचाप लौट जाओ ये मेरा आदेश है वर्ना। यह सुनकर सेनानायक कहता है- आदेश! और हमें। अरे मूर्ख! हम केवल वासुदेव पौंड्रक के आदेश का पालन करते हैं। बलराम तुम्हें डरने की कोई आवश्यकता नहीं। वासुदेव पौंड्रक भगवान है भगवान। उनका प्रकोप जितना भयंकर है उनकी दया भी उतनी ही विशाल है। यदि तुम उनके चरणों में माथा रगड़कर अपने प्राणों की भीख मांगोंगे तो वे तुम्हें अवश्य जीवन दान दे देंगे।
यह सुनकर बलरामजी भड़क जाते हैं तो सेनानायक कहता है- सैनिकों इसे भी पकड़कर ले चलो। तभी सभी सैनिक बलरामजी की ओर दोड़ते हैं तो बलरामजी आगे बढ़कर भूमि पर एक लात मार देते हैं जिससे भूमि बीच में से फट पड़ती है। दौड़ते हुए वे सारे सैनिक उस फटी हुई धरती में समा जाते हैं। यह देखकर सेनानायक घबरा जाता है तभी धरती पुन: बंद हो जाती है।
तब वह सेनानायक अपनी तलवार बलरामजी की ओर फेंक देता है तो वह तलवार बलरामजी के कंधे पर आकर लगती है। यह देखकर बलरामजी क्रोधित होकर उस पर अपनी गदा फेंकते हैं तो वह गदा उसे लगकर उसे आसमान में ले जाकर नीचे फेंक देती है। नीचे गिरकर वह सेनानायक मर जाता है। यह देखकर सभी साधु बलरामजी की जय-जयकार करने लगते हैं।
फिर उधर, श्रीकृष्ण बलरामजी के घाव पर मलहल लगाते हुए कहते हैं- दाऊ भैया मुझे अभिमान है कि आप जैसे परमवीर महाबलशाली मेरा बड़ा भाई है। यह सुनकर दाऊ भैया गद्गद हो जाते हैं।...दाऊ भैया मुझे उन साधुओं ने सारी बातें बता दी कि कैसे आपने अपनी एक ही ठोकर से धरती फाड़ दी। वाह दाऊ भैया वाह वह दृश्य मैं भी देखना चाहता था। यह सुनकर बलरामजी अपने बल्ले बताकर कहते हैं- कन्हैया त्रिलोक में मेरे जितना बलशाली तो कोई भी नहीं हुआ क्यों? यह सुनकर श्रीकृष्ण भी कहते हैं- हां। तब बलराम कहते हैं- सच मानो कन्हैया यदि उस समय मेरे साथ वो साधु-संत नहीं होते तो मैं उसी समय पौंड्र नगरी पर आक्रमण कर देता। वो पौंड्रक अत्याचारी है, दुराचारी है और सबसे बड़ी बात तो यह कि वह अपने आप को वासुदेव भगवान समझने लगा है।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- दाऊ भैया तो समझने दीजिये ना। यदि कोई लोमड़ी शेर की खाल पहनने ले तो शेर नहीं बन जाती है। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- तुम ठीक कह रहे हो कन्हैया। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- ईश्वर ने मनुष्य को सद्बुद्धि प्रदान करने उसे सर्वश्रेष्ठ बनाया है। तब बलरामजी कहते हैं- और अपने आप को भगवान समझने वालों को ठीक करने के लिए उसी ईश्वर ने मुझे बल प्रदान किया है..क्यों कन्हैया? यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराकर हां में हां मिलाते हैं।
तभी उधर, पौंड्रक का भेजा वानर द्वीत एक नगर में आ धमकता है जिसे देखकर नगरवासी इधर से उधर भागने लगते हैं और यह देखकर वह अट्टाहास करता है। फिर वह अपने विशालकाय फरसे से और पंजों से लोगों के भवन तोड़ने लगता है। यह देखकर कुछ सैनिक अपने सेनापति और राजा के साथ वहां आकर पूछते हैं- तुम कौन हो और ये क्या कर रहे हो? यह सुनकर द्वीत कहता है- हे मूरख तुमने वासुदेव पौंड्रक को भगवान न मानकर बहुत बड़ा अपराध किया है और तुम उस ग्वाले को वासुदेव समझते हो। तुम्हारा ये अपराध क्षमा योग्य नहीं है। मैं इसका दंड तुम्हें अवश्य दूंगा। मैं र्स्वशक्तिमान हूं। मेरे जैसे बलवान त्रिलोक में कोई नहीं। तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते हो परंतु मैं तुम्हारा सबकुछ बिगाड़ सकता हूं। सर्वनाश कर सकता हूं। कृष्ण को वासुदेव समझने के अपराध में मैं तुम्हारी नगरी जलाने आया हूं। जो कृष्ण का मित्र है वह मेरा शत्रु है और जो पौंड्रक का मित्र है वह मेरा मित्र है। कृष्ण ने मेरे परममित्र नरकासुर का वध किया था। मैं भी उसके सारे मित्रों का वध करूंगा। हे राजा बोलो वासुदेव पौंड्रक की जय हो।
यह सुनकर वह राजा कहता है- वासुदेव श्रीकृष्ण की जय है। यह कहते हुए वह सैनिकों को आदेश देता है सैनिकों मारो इसे। इसके बाद वह राजा और उसके सैनिकों को मार देता है और फिर वह कहता है कि मेरे स्वामी पौंड्रक वासुदेव मैं कृष्ण को भी झुकाकर आपको भगवान मानने पर विवश कर दूंगा।
यह देखकर रुक्मिणी श्रीकृष्ण से कहती है- प्रभु यह तो निहत्थे लोगों पर अत्याचार करके अपने आप को बड़ा बलवान समझ रहा है। क्या बात है प्रभु इतना होने पर भी आप मुस्कुरा रहे हैं। इतना होने पर भी आप दंड नहीं दे रहे हैं। देवी मैं हर बार हर कही धर्म शत्रुओं का विनाश करने जाऊ तो मनुष्य अपना कर्तव्य भूल जाएगा।.. फिर श्रीकृष्ण बताते हैं कि मैंने अपने अवतारों में मनुष्य को क्या क्या शिक्षा दी है।
उधर, पौंड्रक के पास एक सज्जन को जंजीरों में बांध कर ले आते हैं और कहते हैं- महाराज ये पागल भागने का प्रयास कर रहा था। उस सज्जन को देखकर पौंड्रक कहता है- काका तुम? यह सुनकर जंजीरों में बंधा काका जोर-जोर से हंसने लगता है और कहता है- हां मैं वीरमणि तुम्हारा काका और इस राज्य का असली राजा। यह सुनकर पौंड्रक इस पागल बूढ्ढे को यहां क्यों लाए हो? यह सुनकर काका कहता है- पागल मैं नहीं, पागल तुम हो तुम। तुम सत्ता के लालच में पागल हो गए हो। अरे अपने काका को काकाश्री कहने के बदले बुढ्ढा कह रहे हो, धिक्कार है तुम्हें। मेरा राज हथिया कर तुम राजा बने हो। इस पर भी तुम्हारी लालसा कम नहीं हुई तो अब अपने आप को वासुदेव कहते हो, भगवान कहलाते हो। तुमने अपने आपको भगवान सिद्ध करने के लिए क्या-क्या झूठी बातें फैला रखी है यह सब जानता हूं मैं। कुब्जा को सुंदर बना दिया, अंधों को आंखें देती है और मृत सेना को जीवित कर दिया। अरे पाखंडी तू एक सेना को तो क्या तू एक चींटी को भी जीवित नहीं कर सकता। तू क्या जीवन देगा तू केवल मृत्यु दे सकता है और वह भी यदि ईश्वर की इच्छा हुई तो। जिस दिन प्रजा यह जान गई की मैं पागल नहीं हूं तो वह विद्रोह कर देगी और तुम्हारा राजपाट खतरे में पड़ जाएगा।
यह सुनकर वह कहता है कि तुम्हारी जीभ बहुत लंबी हो गई है अगर इस राजमहल से बाहर निकल गए तो सचमुच अनर्थ हो जाएगा। प्रहरियों इसे कारगृह में ले चलो। काकाश्री अब एकांत में विश्राम करेंगे, चलिये काकाश्री हम आपको आपके राजकक्ष में स्वयं छोड़ आते हैं चलो। यह सुनकर वह काकाश्री कहते हैं- यदि मेरे ईश्वर की यदि इच्छा है तो चलो परंतु याद रखो भगवान श्रीकृष्ण की ये इच्छा नहीं हुई तो मैं तुम्हारे कारावास से किसी पंछी की भांति उड़ जाऊंगा।
यह दृश्य भगवान श्रीकृष्ण और रुक्मिणी देखते रहते हैं। फिर काकाश्री को कारावास में ले जाते हैं तो वहां के सभी प्रहरी अचेत पड़े रहते हैं। यह देखकर पौंड्रक चौंक जाता है तो काकाश्री कहते हैं- यही प्रभु की लीला है देख अपनी आंखों से दूराचारी। फिर पौंड्रक खुद ही काकाश्री को पकड़कर कारावास में डालकर भीतर खड़ा होकर कहता है- काका अब यही तेरा प्रारब्ध है अब तू यहां तील-तील करके मरेगा। परंतु मृत्यु भी अब मेरी आज्ञा से ही आएगी.. हा हा हा। यह सुनकर काका कहता है- अरे मूर्ख अपने भ्रम से बाहर निकल और सत्यता का सामना कर और सत्य यह है कि तेरे चाहने या नहीं चाहने से कुछ नहीं होता। तब तक भगवान श्रीकृष्ण की मुझ पर कृपा है तू मेरा बाल भी बांका नहीं कर सकता। यह सुनकर वह अपनी तलवार पर हाथ रखकर क्रोधित होकर काका को देखने लगता है।
श्रीकृष्ण यह सब देख रहे होते हैं तब उनकी माया से कारागार के एक-एक करके सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं। अंत में उस कक्ष का दरवाजा बंद होता है जहां पर पौंड्रक और उसका काका खड़े होकर बात कर रहे होते हैं। तभी वह दरवाजा बंद होने की आवाज सुनकर पीछे देखता है तो यह देखकर वह चौंक जाता है कि अपने आप ही उसकी सांकल लग रही है और अंदर ही बंद हो जाता है। तब वह दौड़ककर सलाखों को पकड़कर चीखता है- सैनिकों। यह देखकर उसका काका हंसता है और कहता है- मूर्ख पौंड्रक अब तो समझ जा भगवान वासुदेव का संकेत। वो तुझे बार-बार यही समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि अपने आपको वासुदेव कहलाने वाले झूठे तेरा यही प्रारब्ध होगा हां।.. पौंड्रक जोर-जोर से चीखता है- सैनिकों द्वारपालों कहां मर गए तुम लोग। फिर सैनिक आकर द्वार खोलते हैं तो वह जल्दी से बाहर निकलक द्वार बंद करते वक्त कहता है- तू यहीं मरेगा बुढ्ढे यही मरेगा। ऐसा कहकर पौंड्रक वहां से चला जाता है। यह देखककर श्रीकृष्ण मुस्कराते हैं।
फिर रुक्मिणी कहती है कि आपने अपनी लीला से उसके कारागार के दरवाजे बंद कर दिए। इस पर श्रीकृष्ण रुक्मिणी से कहते हैं कि परंतु उसकी आंखें अभी भी नहीं खुली। मैं उसे बार-बार संकेत पर संकेत दे रहा हूं उसे वह सीमाएं दिखा रहा हूं जिनमें वह घिरा हुआ है और जिन्हें वह तोड़कर बाहर नहीं आ सकता। कारागृह का बंद होना इसी बाद का उदाहरण था देवी।
फिर पौंड्रक कहता है कि भाताश्री सैनिकों को आदेश दो की काकाश्री को निकालकर हमारे समक्ष ले आएं। हम उसे दंड देना चाहते हैं। यह सुनकर उसका भाताश्री कहता है- क्षमा करें वासुदेव दंड तो कारागार में ही दिया जाता है फिर आप उसे खुले में क्यों लाना चाहते हैं? यह सुनकर पौंड्रक कहता है- तुम से जो कहा गया है वही करो जाओ। यह सुनकर वह कहता है- जो आज्ञा वासुदेव। फिर वह चला जाता है।
काकाश्री को एक जगह लाया जाता है जहां पर तीन तीरंदाज धनुष पर बाण चढ़ाए बैठे रहते हैं। दूसरी ओर पौंड्रक, काशीराज, पौंड्रक का भाई और वानर द्वीत खड़े रहते हैं और हंसते रहते हैं। फिर पौंड्रक कहता है- रुक क्यों गए काकाश्री डर गए। मृत्यु को अपने समीप देखकर भयभित हो गए। प्रहरियों इन्हें सामने खड़ा कर दो।...यह सुनकर काकाश्री कहता है- मृत्यु का भय मुझे नहीं है। मूर्ख! अपने सैनिकों के धनुष पर चढ़े हुए बाण से मुझे डराना चाहते हो।..
पौंड्रक कहता है- काका वीरमणि मैं तुम्हें एक अंतिम अवसर देता हूं कि तुम मृत्यु का चयन करते हो या जीवन का। यदि तुम जीवन का चयन करते हो तो मुझे वासुदेव मानोगे, भगवान मानोगे। तब काकश्री कहते हैं- मूर्ख पौंड्रक! ईश्वर का नाम जपने वाली जीभ किसी ओर का नाम कैसे ले सकती है। यह सुनकर पौंड्रक कहता है- अच्छा अभी पता लग जाएगा काकाश्री। धनुर्धारियों.. काकाश्री मैं तीन बार कहूंगा, यदि तुम नहीं माने तो ये बाण तुम्हारी छाती में छेद कर देंगे।
फिर पौंड्रक कहता है- बोलो वासुदेव पौंड्रक की जय। यह सुनकर काकाश्री कहते हैं- जय श्रीकृष्ण।
फिर पौंड्रक कहता है- बोलो वासुदेव पौंड्रक की जय। यह सुनकर फिर से काकाश्री कहते हैं- जय श्रीकृष्ण की जय। अंतिम बार फिर पौंड्रक कहता है- बोलो वासुदेव पौंड्रक की जय। यह सुनकर काकाश्री कहते हैं- जय श्रीकृष्ण। फिर पौंड्रक कहता है- बाण छोड़ों।
तभी वहां पर रानी तारा आकर कहती है- ठहरो। ठहरो धनुर्धारियों ठहरो। स्वामी ये आप क्या अनर्थ करने जा रहे हो। तब पौंड्रक कहता है- तारा अनर्थ तो तब होगा जब हम इसे जीवित छोड़ देंगे। ये हमारा अपमान कर रहा है। इसकी बातें हमें बार-बार डंक मार रही है। अब हमसे सहन नहीं होता। यह सुनकर काकश्री कहते हैं- तू क्या मारेगा मुझे। यदि ईश्वर की इच्छा होगी तो तू और तेरे ये अधर्मी मित्र मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। यह सुनकर काशीराज भड़क जाता और कहता है- बहुत जिव्हा चलाता है ये। तब पौंड्रक वानर द्वीत से कहता है- द्वीत इसका अंत कर दो। यह सुनकर द्वीत कहता है- जो आज्ञा वासुदेव।...श्रीकृष्ण यह सब देख रहे होते हैं। जय श्रीकृष्णा।