मंगलमयी और कल्याणकारी जीवन चाहते हैं तो ऐसे करें शिवजी का पूजन, पढ़ें मानस पूजा अर्थ सहित

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* शिव मानस पूजा के समय किस तरह हों हमारे भाव कि सब कुछ मंगल हो, जानिए
 
 
- ज्योतिर्विद डॉ. रामकृष्ण डी. तिवारी
 
ईश्वरोपासना के अंतर्गत दो प्रकार की पद्धतियां प्रचलित हैं- साकार तथा निराकार। तीव्र गतिमान, भौतिकवादी इस युग में धार्मिक जन भी कई बार पूजन से वंचित रह जाते हैं। इससे उनके जीवन में एक कमी की अनुभूति होती है।

संस्कारों के कारण इस अभाव के फलस्वरूप भक्तों में निराशा और आत्मविश्वास की हीनता का भाव जन्म लेता है। यह समस्या आस्तिकों में इतनी अधिक पाई जाती है कि कई बार पूजन नहीं करने पर वे अपने आपको अपराधी तक समझते हैं। जबकि किसी प्रकार की उपासना पद्धति में आस्था होना ही व्यक्ति को संबल प्रदान करता है। इसमें विधान को पूर्ण करने की जरूरत नहीं होती है।
 
 
हमारे ऋषि-मुनि आचार्य एवं धार्मिक विभूतियों द्वारा साधना की अनेकानेक प्रकार की विधियों की रचना की गई है, जिन पर काल-स्थान-परिस्थितियों का प्रभाव नहीं पड़ता है। इन विधियों द्वारा सिर्फ सकारात्मक परिणाम, जो कि निरापद होता है, मिलता है।

आदिगुरु शंकराचार्यजी के संपूर्ण कार्यों का लक्ष्य जीवमात्र के सभी प्रकार के कल्याण के लिए था। उनके द्वारा निर्मित एवं संपादित रचना तथा विधि में नियमों की व्यवस्था अत्यंत सुदृढ़ व सुव्यवस्थित है। साधक को उसमें किसी भी तरह की अनुशासनहीनता अथवा अनियमितता का अधिकार नहीं है।
 
 
इसमें यंत्रों की आवरण पूजा से लेकर संप्रदायों की मर्यादा का पालन मुख्य है। वहीं दूसरी ओर उन्होंने भाव पूजन की स्तुतियों के माध्यम से सभी प्रकार के नियंत्रणों से उपासक को मुक्त कर दिया। यह पद्धति किसी भी स्थान, स्तर या वर्ग के साधकों के लिए सहज, सरल तथा सुलभ है। इसमें शिव, अर्थात सिर्फ कल्याण करने वाले देवता की मानस पूजा भी एक है। इसके उपयोग से सभी प्रकार का मंगल होता है।
 
यह पूजा इस प्रकार है :- 
 
रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं।
नाना रत्न विभूषितम्‌ मृग मदामोदांकितम्‌ चंदनम॥
 
जाती चम्पक बिल्वपत्र रचितं पुष्पं च धूपं तथा।
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितम्‌ गृह्यताम्‌॥1॥
 
सौवर्णे नवरत्न खंडरचिते पात्र धृतं पायसं।
भक्ष्मं पंचविधं पयोदधि युतं रम्भाफलं पानकम्‌॥
 
शाका नाम युतं जलं रुचिकरं कर्पूर खंडौज्ज्वलं।
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु॥2॥
 
छत्रं चामर योर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निमलं।
वीणा भेरि मृदंग काहलकला गीतं च नृत्यं तथा॥
 
साष्टांग प्रणतिः स्तुति-र्बहुविधा ह्येतत्समस्तं ममा।
संकल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो॥3॥
 
आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं।
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः॥
 
संचारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो।
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्‌॥4॥
 
कर चरण कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम्‌।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व जय जय करणाब्धे श्री महादेव शम्भो॥5॥

 
इसका भावार्थ इस प्रकार है :

मैं ऐसी भावना करता हूँ, कि हे दयालु पशुपति देव! संपूर्ण रत्नों से निर्मित इस सिंहासन पर आप विराजमान होइए। हिमालय के शीतल जल से मैं आपको स्नान करवा रहा हूं। स्नान के उपरांत रत्नजड़ित दिव्य वस्त्र आपको अर्पित है। केसर-कस्तूरी में बनाया गया चंदन का तिलक आपके अंगों पर लगा रहा हूं। जूही, चंपा, बिल्वपत्र आदि की पुष्पांजलि आपको समर्पित है। सभी प्रकार की सुगंधित धूप और दीपक मानसिक प्रकार से आपको दर्शित करवा रहा हूं, आप ग्रहण कीजिए।

 
मैंने नवीन स्वर्णपात्र, जिसमें विविध प्रकार के रत्न जड़ित हैं, में खीर, दूध और दही सहित पांच प्रकार के स्वाद वाले व्यंजनों के संग कदली फल, शर्बत, शाक, कपूर से सुवासित और स्वच्छ किया हुआ मृदु जल एवं तांबूल आपको मानसिक भावों द्वारा बनाकर प्रस्तुत किया है। हे कल्याण करने वाले! मेरी इस भावना को स्वीकार करें।
 
हे भगवन, आपके ऊपर छत्र लगाकर चंवर और पंखा झूला रहा हूं। निर्मल दर्पण, जिसमें आपका स्वरूप सुंदरतम व भव्य दिखाई दे रहा है, भी प्रस्तुत है। वीणा, भेरी, मृदंग, दुदुंभि आदि की मधुर ध्वनियां आपको प्रसन्नता के लिए की जा रही हैं। स्तुति का गायन, आपके प्रिय नृत्य को करके मैं आपको साष्टांग प्रणाम करते हुए संकल्प रूप से आपको समर्पित कर रहा हूं। प्रभो! मेरी यह नाना विधि स्तुति की पूजा को कृपया ग्रहण करें।

 
हे शंकरजी, मेरी आत्मा आप हैं। मेरी बुद्धि आपकी शक्ति पार्वतीजी हैं। मेरे प्राण आपके गण हैं। मेरा यह पंच भौतिक शरीर आपका मंदिर है। संपूर्ण विषय भोग की रचना आपकी पूजा ही है। मैं जो सोता हूं, वह आपकी ध्यान समाधि है। मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है। मेरी वाणी से निकला प्रत्येक उच्चारण आपके स्तोत्र व मंत्र हैं। इस प्रकार मैं आपका भक्त जिन-जिन कर्मों को करता हूं, वह आपकी आराधना ही है।

 
हे परमेश्वर! मैंने हाथ, पैर, वाणी, शरीर, कर्म, कर्ण, नेत्र अथवा मन से अभी तक जो भी अपराध किए हैं। वे विहित हों अथवा अविहित, उन सब पर आपकी क्षमापूर्ण दृष्टि प्रदान कीजिए। हे करुणा के सागर भोले भंडारी श्री महादेवजी, आपकी जय हो। जय हो।
 
उक्त सुंदर भावनात्मक स्तुति द्वारा हम मानसिक शांति तथा ईश्वर की कृपा के साथ बिना किसी साधन, सहायक, विधि के अपनी पूजा किसी भी प्रकार संपन्न कर सकते हैं। मानसिक पूजा शास्त्रों में श्रेष्ठतम पूजा के रूप में वर्णित है। भौतिक पूजा का उद्देश्य भी मानसिक रूप से ईश्वर के सान्निध्य में होना ही है। आवश्यकता सिर्फ इस प्रसाद को निरंतर ग्रहण करते रहने की है। यह शिव मानस पूजा की रचना हमारे लिए आदिगुरु की कृपा का दिव्य साक्षात्‌ प्रसाद ही है।

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