अंतरिक्ष में उत्तर की दिशा में एक तारा है जिसका नाम ध्रुव है। इस तारे का नाम उसी ध्रुव पर रखा गया है जो भगवान विष्णु का परमभक्त था। आओ जानते हैं ध्रुव की कथा।
स्वायंभुव मनु की पत्नी का नाम शतरूपा था। इन्हें प्रियव्रत, उत्तानपाद आदि 7 पुत्र और देवहूति, आकूति तथा प्रसूति नामक 3 कन्याएं हुई थीं। शतरूप के पुत्र उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो पत्नियां थीं। राजा उत्तानपाद के सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र उत्पन्न हुए।
(स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिर्ष्मती से विवाह किया था जिनसे आग्नीध्र, यज्ञबाहु, मेधातिथि आदि 10 पुत्र उत्पन्न हुए। प्रियव्रत की दूसरी पत्नी से उत्तम, तामस और रैवत- ये 3 पुत्र उत्पन्न हुए, जो अपने नाम वाले मन्वंतरों के अधिपति हुए। महाराज प्रियव्रत के 10 पुत्रों में से कवि, महावीर तथा सवन ये 3 नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे और उन्होंने संन्यास धर्म ग्रहण किया था।)
उत्तानपाद की सुनीति पहली पत्नी थी जिसका पुत्र ध्रुव था। सुनीति बड़ी रानी थी लेकिन राजा सुनीति के बजाय सुरुचि और उसके पुत्र को ज्यादा प्रेम करता था। एक बार राजा अपने पुत्र ध्रुव को गोद में लेकर बैठे थे तभी वहां सुरुचि आ गई। अपनी सौत के पुत्र ध्रुव को गोद में बैठा देखकर उसके मन में जलन होने लगी। तब उसने ध्रुव को गोद में से उतारकर अपने पुत्र को गोद में बैठाते हुए कहा, राजा की गोद में वही बालक बैठ सकता है और राजसिंहासन का भी अधिकारी हो सकता है जो मेरे गर्भ से जन्मा हो। तू मेरे गर्भ से नहीं जन्मा है। यदि तेरी इच्छा राज सिंहासन प्राप्त करने की है तो भगवान नारायण का भजन कर। उनकी कृपा से जब तू मेरे गर्भ से उत्पन्न होगा तभी सिंहासन प्राप्त कर पाएगा।
पांच साल का अबोध बालक ध्रुव सहमकर रोते हुए अपनी मां सुनीति के पास गया और उसने अपनी मां से उसके साथ हुए व्यवहार के बारे में कहा। मां ने कहा, बेटा ध्रुव तेरी सौतेली से तेरे पिता अधिक प्रेम करते हैं। इसी कारण वे हम दोनों से दूर हो गए हैं। अब हमें उनका सहरा नहीं रह गया। हमारे सहारा तो जगतपति नारायण ही है। नारायण के अतिरिक्त अब हमारे दुख को दूर करने वाला कोई दूसरा नहीं बचा।
पांच साल के बालक के मन पर दोनों ही मां के व्यवहार का बहुत गहरा असर हुआ और वह एक दिन घर छोड़कर चला गया। रास्ते में उसे नारदजी मिले। नारद मुनि ने उससे कहा बेटा तुम घर जाओ तुम्हारे माता पिता चिंता करते होंगे। लेकिन ध्रुव नहीं माना और कहा कि मैं नारायण की भक्ति करने जा रहा हूं। तब नारद मुनि ने उसे ॐ नमो: भगवते वासुदेवाय मंत्र की दीक्षा दी। वह बालक यमुना नदी के तट पर मधुवन में इस मंत्र का जाप करने लगा।
फिर नारद उसके पिता उत्तानपाद के पास गए तो उत्तापाद ने कहा कि मैंने एक स्त्री के वश में आकर अपने बालक को घर छोड़कर जाने दिया। मुझे इसका पछतावा है। फिर नारद जी ने कहा कि अब आप उस बालक की चिंता न करें। उसका रखवाला तो अब भगवान ही है। भविष्य में उसकी कीर्ति चारों ओर फैलेंगी।
उधर बालक की कठोर तपस्या से अत्यंत ही अल्पकाल में भगवान नारायण प्रसन्न हो गए और उन्होंने दर्शन देकर कहा हे बालक मैं तेरे अंतरमन की व्यथा और इच्छा को जानता हूं। तेरी सभी इच्छापूर्ण होगी और तुझे वह लोक प्रदान करता हूं जिसके चारों और ज्योतिचक्र घुमता रहता है और सूर्यादि सभी ग्रह और सप्तर्षि नक्षत्र जिसके चक्कर लगाते रहते हैं। प्रलयकाल में भी इस लोक का नाश नहीं होगा। सभी प्रकार के सर्वोत्तम ऐश्वर्य भोगकर अन्त समय में तू मेरे लोक को प्राप्त करेगा।'