संकलन : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
बच्चों को सभी तरह का ज्ञान मिलना चाहिए। बच्चों का मानसिक विकास कहानियां, चित्रकथाएं पढ़ने और पहेलियां सुलझाने के साथ ही माता-पिता और शिक्षकों से बेझिझक बातचीत करने से बढ़ता है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार बच्चे के प्रथम 7 वर्ष तक उसे हर तरफ से सहज रूप में जानकारी देना चाहिए। उसमें उत्सुकता और सीखने की लगन को बढ़ाना चाहिए। 7 वर्ष की उम्र तक उसे सभी ओर से भरपूर प्यार और दुलार मिलना चाहिए। यदि इस उम्र में उसको बुरे अनुभव होते हैं तो इसका असर उसके भाग्य और भविष्य पर पड़ता है। इसी उम्र में उसके भविष्य का निर्माण हो जाता है।
इसीलिए हम बताना चाहते हैं कि ऐसी कौन-सी किताबें हैं जिनकी कहानियों को बच्चों को सुनाने से उनमें हर तरह का ज्ञान और जानकारी का विकास होता है। इससे उनमें विचार और अनुभव करने की क्षमता का भी विकास होता है। आओ हम जानते हैं ऐसी 10 किताबें जिनको पढ़कर आपका बच्चा हर तरह की बातें सीख सकता है। उन किताबों की सभी कहानियां लगभग चित्रों के रूप में भी प्रस्तुत हैं और टेक्नोलॉजी के विकास के साथ ही अब वे एनिमेशन का भी रूप ले चुकी हैं।
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पंचतंत्र : संस्कृत नीतिकथाओं में पंचतंत्र का पहला स्थान माना जाता है। पंचतंत्र एक विश्वविख्यात कथा ग्रंथ है। इस ग्रंथ के रचयिता पंडित विष्णु शर्मा हैं। मनोविज्ञान, व्यावहारिकता तथा राजकाज के सिद्धांतों से परिचित कराती पंचतंत्र की कहानियां दुनियाभर में प्रसिद्ध हैं। इस किताब का अनुवाद विश्व की लगभग हर भाषा में हो चुका है। इस किताब के आधार पर ही दुनिया में इसी तरह की अन्य किताबें लिखी गईं। पंचतंत्र को संस्कृत भाषा में 'पांच निबंध' या 'अध्याय' भी कहा जाता है।
पंचतंत्र का रचनाकाल : महामहोपाध्याय पं. सदाशिव शास्त्री के अनुसार पंचतंत्र के रचयिता विष्णु शर्मा थे और विष्णु शर्मा चाणक्य का ही दूसरा नाम था। चाणक्य ने ही वात्स्यायन नाम से कामसूत्र लिखा था। अतः पंचतंत्र की रचना चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में ही हुई है और इसका रचनाकाल 300 ईपू माना जा सकता है। लेकिन कुछ विद्वान ऐसा नहीं मानते। उनका कथन है कि चाणक्य का दूसरा नाम विष्णुगुप्त था, विष्णु शर्मा नहीं तथा उपलब्ध पंचतंत्र की भाषा की दृष्टि से तो यह गुप्तकालीन रचना प्रतीत होती है। महामहोपाध्याय पंडित दुर्गाप्रसाद शर्मा ने विष्णु शर्मा का समय अष्टम शतक के मध्य भाग में माना है, क्योंकि पंचतंत्र के प्रथम तंत्र में 8वीं शताब्दी के दामोदर गुप्त द्वारा रचित कुट्टिनीमत की फ्पर्यघ्कः स्वास्तरणम्य् इत्यादि आर्या देखी जाती है अतः यदि विष्णु शर्मा पंचतंत्र के रचयिता थे तो वे अष्टम शतक में हुए होंगे। हालांकि अधिकतर विद्वान मानते हैं कि श्री विष्णु शर्मा चंद्रगुप्त मौर्य के पश्चात ईसा पूर्व पहली शताब्दी में हुए होंगे।
अरब में कैसे पहुंचा पंचतंत्र : डॉक्टर हर्टेल के अनुसार पंचतंत्र का अनुवाद छठी शताब्दी में ईरान की पहलवी भाषा में हुआ था। हर्टेल ने 50 भाषाओं में इसके 200 अनुवादों का उल्लेख किया है। छठी शताब्दी (550 ई.) में जब ईरान के सम्राट खुसरू थे तब उनके राजवैद्य और मंत्री ने पंचतंत्र को अमृत कहा था। आठवीं शताब्दी (मृ.-760 ई.) में पंचतंत्र की पहलवी अनुवाद के आधार पर अब्दुलाइन्तछुएमुरक्का ने इसका अरबी अनुवाद किया जिसका अरबी नाम मोल्ली व दिमन रखा गया। इस तरह पंचतंत्र की कहानियां मिस्र और योरप में भी प्रसिद्ध हो गईं और वहां की स्थानीय भाषा में इसका अनुवाद किया गया। यूरोप में इस पुस्तक को 'द फेबल्स ऑफ बिदपाई' के नाम से जाना जाता है।
पंचतंत्र के बारे में : पंचतंत्र की कहानियां सभी विषयों को बड़े ही रोचक तरीके से सामने रखकर व्यक्ति को बहुत ही अच्छी सीख देती हैं। व्यावहरिक जीवन में इसकी कहानियां खूब सहायता करती हैं। पंचतंत्र की कहानियां बहुत जीवंत हैं। पंचतंत्र की ये कथाएं मानव स्वभाव को समझने और सावधानीपूर्वक व्यवहार करने की समझ का विकास करती हैं। प्रत्येक कथा जीवन को पढ़कर यह ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कैसे सफल हों।
पंचतंत्र में 5 भागों में विभाजित कुल 87 कथाएं हैं जिनमें से अधिकांश प्राणी कथाएं हैं। प्राणी कथाओं का उद्गम सर्वप्रथम महाभारत में हुआ था। इस किताब के 5 तंत्र या विभाग हैं इसीलिए इसे पंचतंत्र कहा जाता है। ये भाग हैं-
1. मित्रभेद (मित्रों में मनमुटाव एवं अलगाव)
2. मित्रलाभ या मित्रसंप्राप्ति (मित्र प्राप्ति एवं उसके लाभ)
3. काकोलुकीयम् (कौवे एवं उल्लुओं की कथा)
4. लब्धप्रणाश (हाथ लगी चीज (लब्ध) का हाथ से निकल जाना (हानि))
5. अपरीक्षित कारक (जिसको परखा नहीं गया हो उसे करने से पहले सावधान रहें; हड़बड़ी में कदम न उठाएं)
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हितोपदेश : भारत में रचित विश्वप्रसिद्ध किताब हितोपदेश का नाम सभी ने सुना होगा। भारतीय जनमानस और परिवेश से ओतप्रोत इस किताब में उपदेशात्मक कहानियां हैं। विभिन्न पशु-पक्षियों पर आधारित कहानियां इसकी खास विशेषता हैं। इसकी सभी कथाएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। यह मान्यता है कि हितोपदेश पढ़ने से मनुष्य की बोलचाल में प्रवीणता और वार्तालाप में विचित्रता आती है।
हितोपदेश के रचयिता नारायण पंडित हैं। नारायण पंडित ने पंचतंत्र तथा अन्य नीति के ग्रंथों की मदद से इस अद्भुत ग्रंथ हितोपदेश का सृजन किया। इसके आश्रयदाता बंगाल के माण्डलिक राजा धवलचंद्रजी हैं। नारायण पंडित राजा धवलचंद्रजी के राजकवि थे।
रचनाकाल : मूल रूप से संस्कृत में लिखी गई इस किताब की रचना तीसरी शताब्दी के आस-पास निर्धारित की गई है। हितोपदेश का नेपाली हस्तलेख 1373 ई. का प्राप्त है। गढ़वाल विश्वविद्यालय के श्री वाचस्पति गैरोला ने इसका रचनाकाल 14वीं शती के आसपास निर्धारित किया है।
हितोपदेश की कथाओं के 4 भाग- मित्रलाभ, सुहृद्भेद, विग्रह और संधि हैं। इन 4 भागों में विभिन्न प्रकार के नीति ग्रंथों का सार समाया हुआ है। हितोपदेश में कुल 41 कथाएं और 679 नीति-विषयक पद्य हैं।
हितोपदेश की कथाओं में अर्बुदाचल (आबू) पाटलीपुत्र, उज्जयिनी, मालवा, हस्तिनापुर, कान्यकुब्ज (कन्नौज), वाराणसी, मगध देश, कलिंग देश आदि स्थानों का उल्लेख है जिसमें रचयिता तथा रचना की उद्गम भूमि इन्हीं स्थानों से प्रभावित है।
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जातक कथाएं : जातक कथाएं गौतम बुद्ध के पूर्व जन्मों की बेहद लोकप्रिय कहानियां हैं। इन कथाओं को बौद्ध धर्म के सभी मतों में संरक्षित किया गया है। सर्वप्रथम इन कथाओं को पाली भाषा में लिखा गया था। जातक कथाएं बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक का सुत्तपिटक के अंतर्गत खुद्दकनिकाय का 10वां भाग है। कुल जातक कथाएं 103 हैं। सांची के स्तूपों में, जिनका निर्माण तीसरी शताब्दी ई. पूर्व में हुआ था, जातक कथाएं अंकित हैं।
जातक कथाओं का रचनाकाल : माना जाता है कि ये कहानियां गौतम बुद्ध ने ही अपने मुख से सुनाई थीं। गौतम बुद्ध का जन्म ईसा से 563 साल पहले हुआ था। बाद में इन कथाओं का संकलन तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व किया गया था। मथुरा के इतिहास और गुरुकुल कांगड़ी के आचार्य रामदेवजी के निश्चय के अनुसार गौतम बुद्ध काल 1760 विपू से 1680 विपू है तथा उनका मथुरा आगमन काल 1710 विपू है। यह निर्धारण बुद्ध ग्रंथ महावश, जैन ग्रंथ स्थाविरावली, हरवंश, विष्णु भागवत आदि पुराणों के आधार पर है। इसका मतलब 1702 ईसा पूर्व बुद्ध का जन्म हुआ था?
भगवान बुद्ध ने गौतम के रूप में जब जन्म लिया, उसके पहले वे बहुत से जन्म ले चुके थे। कहते हैं कि इन्होंने इसके पहले तपस्वी, राजा, वृक्ष, देवता, सिंह, हाथी, घोड़ा, गीदड़, भैंसा, कुत्ता, बंदर, मछली, सूअर आदि के कितने ही जन्म लिए थे।
जातक कथाएं त्रिपिटक के सुत्त पिटक के खुद्दकनिकाय का हिस्सा हैं। जातक कथाओं में बुद्ध के 547 पूर्व जन्मों का वर्णन है। बुद्ध घोष ने कोई दो हजार वर्ष पहले ये कथाएं लिखी थीं। कहा गया है कि सबसे पहले जन्म में भगवान बुद्ध सुमेघ तपस्वी के रूप में पैदा हुए थे और सबसे अंत में बेसंतर के रूप में। तीन बार उन्होंने चांडाल के घर में जन्म लिया था। एक बार वे जुआरी के रूप में रहे थे।
जातक कथा के बारे में कई जातक कथाएं महाभारत, पंचतंत्र, पुराण और गैर बौद्ध भारतीय साहित्य की कथाओं के समान हैं। इनमें से कुछ कथाएं बहुत जगप्रसिद्ध हैं। इनका प्रचार संसार के कोने-कोने में हुआ है। इन जातक कथाओं की तर्ज पर ही ईसप की कथाएं, अरब की कथाएं आदि लिखी गईं। इसके अलावा भी दुनिया के तमाम कथा साहित्य में इन कथाओं का प्रभाव स्वत: ही देखने को मिल जाएगा। ईसप की कहानियों का मूल जातक कथाएं, पंचतंत्र और हितोपदेश ही हैं। जातक कथाओं में मनोरंजन के माध्यम से नीति और धर्म को समझाने का प्रयास किया गया है।
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उपनिषद की कथाएं : वेदों का सार हैं उपनिषद। उपनिषद का सार है गीता। उपनिषद वेदों के अंतिम भाग हैं अतः इन्हें वेदांत भी कहते हैं। उपनिषदों में कई रोचक और शिक्षाप्रद कहानियां हैं जिनका संबंध हमारे जीवन से हैं। हालांकि उपनिषद की सच्ची कहानियां तो हमें उपनिषदों में ही पढ़ने को मिलेंगी। उपनिषद लगभग 1008 से भी अधिक हैं। उनमें से भी 108 महत्वपूर्ण हैं और उनमें से भी सबसे महत्वपूर्ण के नाम यहां प्रस्तुत हैं- 1. ईश, 2. केन, 3. कठ, 4. प्रश्न, 5. माण्डूक्य, 7. तैत्तिरीय, 8. ऐतरेय, 9. छान्दोग्य, 10. वृहदारण्यक, 11. नृसिंह पर्व तापनी।
उपनिषदों की कथाएं अनादि काल से हमारे मनोरंजन और ज्ञान का स्रोत रही हैं। पहले के दादा और दादी ये कथाएं सुनाते रहते थे। वेद, पुराण, महाभारत, रामायण आदि की कथाएं प्राचीनकाल से लेकर आज तक ज्ञान और प्रेरणा का भंडार रहे हैं लेकिन उनमें भी उपनिषद की कथाएं बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।
उपनिषदों का रचनाकाल : उपनिषद की कथाओं का संकलन वर्तमान में कई लेखकों ने किया है। उन्हें सर्च कर आप उन लेखकों की किताबें खरीद सकते हैं। प्रारंभिक उपनिषदों का रचनाकाल 1000 ईस्वी पूर्व से लेकर 300 ईस्वी पूर्व तक माना गया है। कुछ परवर्ती उपनिषद, जिन पर शंकर ने भाष्य किया, बौद्धकाल के पीछे के हैं और उनका रचनाकाल 400 या 300 ईपू का है। सबसे पुराने उपनिषद वे हैं, जो गद्य में हैं।
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बेताल या वेताल पच्चीसी : संस्कृत में लिखी गई 25 कथाओं का एक संग्रह है वेताल पच्चीसी। इसे विक्रम वेताल के नाम से जाना जाता है। विक्रम-बेताल की कहानी हम सब ने बचपन में सुनी है। इसके रचयिता भवभूति ऊर्फ बेताल भट्ट बताए जाते हैं, जो न्याय के लिए प्रसिद्ध राजा विक्रम के नौ रत्नों में से एक थे। इस किताब में लेखक ने एक वेताल (भूत समान) के माध्यम से राजा विक्रम की न्यायप्रियता को प्रदर्शित किया है। इसे भारत की पहली घोस्ट स्टोरी माना जाता है।
भवभूति, संस्कृत के महान कवि एवं नाटककार थे। उनके नाटक, कालिदास के नाटकों के समतुल्य माने जाते हैं। भवभूति, पद्मपुर में एक देशस्थ ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। पद्मपुर महाराष्ट्र के गोंदिया जिले में महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित है। भवभूति ने विक्रम यानी उज्जैन के राजा विक्रमादित्य को वेताल नामक भूत की कथाओं का एक पात्र बनाया था।
विक्रम संवत के अनुसार विक्रमादित्य आज से 2285 वर्ष पूर्व हुए थे। विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे। गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरी थे। कलि काल के 3000 वर्ष बीत जाने पर 101 ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य का जन्म हुआ। उन्होंने 100 वर्ष तक राज किया। -(गीता प्रेस, गोरखपुर भविष्यपुराण, पृष्ठ 245)।
विक्रमादित्य के पराक्रम के कारण ही उनके नाम पर बाद के राजाओं को विक्रमादित्य की उपाधि से नवाजा जाता था। यथा श्रीहर्ष, शूद्रक, हल, चंद्रगुप्त द्वितीय, शिलादित्य, यशोवर्धन आदि। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद 300 ईस्वी में समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य हुए।
वेताल पच्चीसी के बारे में : वेताल पच्चीसी की कहानियां भारत की सबसे लोकप्रिय कथाओं में से हैं। ये कथाएं राजा विक्रम की न्याय शक्ति का बोध कराती हैं। वेताल प्रतिदिन एक कहानी सुनाता है और अंत में राजा से ऐसा प्रश्न कर देता है कि राजा को उसका उत्तर देना ही पड़ता है। उसने शर्त लगा रखी है कि अगर राजा बोलेगा तो वह उससे रूठकर फिर से पेड़ पर जा लटकेगा, लेकिन यह जानते हुए भी कि सवाल सामने आने पर राजा से चुप नहीं रहा जाता।
वेताल पच्चीसी का रचनाकाल : माना जाता है कि वेताल पच्चीसी कहानियों का स्रोत राजा सातवाहन के मंत्री 'गुणाढ्य' द्वारा रचित 'बड़कहा' (संस्कृत : बृहत्कथा) नामक ग्रंथ को दिया जाता है जिसकी रचना ईसा पूर्व 495 में हुई थी। कहा जाता है कि यह किसी पुरानी प्राकृत भाषा में लिखा गया था और इसमे 7 लाख छंद थे। आज इसका कोई भी अंश कहीं भी प्राप्त नहीं है। कश्मीर के कवि सोमदेव ने इसको फिर से संस्कृत में लिखा और 'कथासरित्सागर' नाम दिया। बड़कहा की अधिकतम कहानियों को कथा सरित्सागर में संकलित कर दिए जाने के कारण ये आज भी हमारे पास हैं। 'वेताल पन्चविन्शति' यानी बेताल पच्चीसी 'कथासरित्सागर' का ही भाग है। समय के साथ इन कथाओं की प्रसिद्धि अनेक देशों में पहुंची और इन कथाओं का बहुत सी भाषाओं में अनुवाद हुआ।
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कथासरित्सागर : कथासरित्सागर नामक ग्रंथ संस्कृत साहित्य का शिरोमणि ग्रंथ है। इसकी रचना कश्मीर में पंडित सोमदेव (भट्ट) ने त्रिगर्त अथवा कुल्लू कांगड़ा के राजा की पुत्री, कश्मीर के राजा अनंत की रानी सूर्यमती के मनोविनोदार्थ 1063 ईस्वी और 1082 ईस्वी के मध्य की थी।
कथासरित्सागर में 21,388 पद्म हैं और इसे 124 तरंगों में बांटा गया है। कथासरित्सागर स्रोत राजा सातवाहन के मंत्री 'गुणाढ्य' द्वारा रचित 'बड़कहा' (संस्कृत : बृहत्कथा) नामक ग्रंथ है।
सोमदेव ने स्वयं कथासरित्सागर के आरंभ में कहा है : मैं बृहत्कथा के सार का संग्रह कर रहा हूं। बृहत्कथा की रचना ईसा पूर्व 495 में हुई थी।
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सिंहासन बत्तीसी (संस्कृत नाम सिंहासन द्वात्रिंशिका, विक्रमचरित) : सिंहासन बत्तीसी की कथाएं उज्जैन के प्रसिद्ध प्रजावत्सल, जननायक, प्रयोगवादी एवं दूरदर्शी महान सम्राट विक्रमादित्य से जुड़ी हुई हैं, जो कि गंधर्वसेन के पुत्र थे। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर प्रकाश डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परंपरा रही है। सिंहासन बत्तीस भी 32 कथाओं का संग्रह है जिसमें 32 पुतलियां विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं।
सिंहासन बत्तीसी का पहला संस्करण मुनि क्षेभेन्द्र ने किया था। दूसरा बंगाल में वररुचि द्वारा किया गया। बाद में यह ग्रंथ देश की लगभग सभी भाषाओं में अनूदित हुआ।
सिंहासन बत्तीसी भी बेताल पच्चीसी की भांति लोकप्रिय हुआ। दरअसल, राजा भोज के काल में एक साधारण-सा चरवाहा अपनी न्यायप्रियता के लिए विख्यात था जबकि वह बिलकुल अनपढ़ था और पुश्तैनी रूप से वह कुम्हारों की गाएं, भैंसे तथा बकरियां चराता था। जब राजा भोज ने तहकीकात कराई तो पता चला कि वह चरवाहा सारे फैसले एक टीले पर चढ़कर करता है। राजा भोज ने उस टीले को खुदवाया तो उसने नीचे दबा एक सिंहासन मिला।
माना जाता है कि यह सिंहासन राजा विक्रमादित्य का था। इस सिंहासन के चारों ओर आठ-आठ पुतलियां लगी हुई थीं। राजा भोज जब उस सिंहासन पर बैठने को होता है तो वे पुतलियां खिलखिलाकर हंसने लगती हैं। राजा भोज आश्चर्यचकित होकर उनसे हंसने का कारण पूछता है, तो एक पुतली बाहर निकल विक्रमादित्य को कहानी सुनाने लगी तथा बोली कि यह सिंहासन राजा विक्रमादित्य का है तथा इस पर बैठने वाला उसकी तरह योग्य, पराक्रमी, दानवीर तथा विवेकशील होना चाहिए।
पुतली राजा विक्रमादित्य के गुणों की एक कहानी सुनाती है और अंत में कहती है कि तुम्हारे अंदर ये गुण हों तो ही सिंहासन पर बैठने का साहस करना अन्यथा तुम मारे जाओगे। इस तरह राजा दूसरी बार बैठने का प्रयास करता है तो दूसरी पुतली जाग्रत हो जाती है और वह भी विक्रमादित्य के गुणों की एक कहानी सुनाकर यही कहते हुए गायब हो जाती है। इस तरह 32 पुतलियां निकलकर राजा विक्रमादित्य के गुणों का बखान करती हैं।
बत्तीस पुतलियों के नाम :
1. रत्नमंजरी, 2. चित्रलेखा, 3. चंद्रकला, 4. कामकंदला, 5. लीलावती, 6. रविभामा, 7. कौमुदी, 8. पुष्पवती, 9. मधुमालती, 10. प्रभावती, 11. त्रिलोचना, 12. पद्मावती, 13. कीर्तिमति, 14. सुनयना, 15. सुंदरवती, 16. सत्यवती, 17. विद्यावती, 18. तारावती, 19. रूपरेखा, 20. ज्ञानवती, 21. चंद्रज्योति, 22. अनुरोधवती, 23. धर्मवती, 24. करुणावती, 25. त्रिनेत्री, 26. मृगनयनी, 27. मलयवती, 28. वैदेही, 29. मानवती, 30. जयलक्ष्मी, 31. कौशल्या और 32. रानी रूपवती। उक्त पुतलियों के नाम पर ही कहानियों के नाम हैं।
इन कहानियों के कारण ही आज भी कोई राजा उज्जैन में रात में रुकने की हिम्मत नहीं करता है। स्टेट काल के सभी राजा उज्जैन में महाकाल के दर्शन कर रातोरात पुन: अपने राज्य लौट जाते थे और आज भी यही होता है। माना जाता है कि जो भी राजा रात को रुकेगा, वह सुबह जिंदा नहीं उठ सकेगा। तभी से उज्जैन के राजा तो महाकाल ही हैं। विक्रमादित्य जैसा राजा न कभी हुआ और न होगा।
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तेनालीराम की कहानियां : राज कृष्ण देवराय (1509-1529) के समय में विजयनगर सैनिक दृष्टि से दक्षिण भारत का बहुत ही शक्तिशाली राज्य हो गया था। बाबर ने अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-बाबरी में कृष्ण देवराय को भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक बताया है। कृष्ण देवराय के दरबार में तेलुगु साहित्य के 8 सर्वश्रेष्ठ कवि रहते थे जिन्हें 'अष्ट दिग्गज' कहा जाता था। कृष्ण देवराय को 'आंध्र भोज की उपाधि प्राप्त थी। कृष्ण देवराय के दरबार का सबसे प्रमुख और बुद्धिमान दरबारी था तेनालीराम। असल में इसका नाम रामलिंगम था। तेनाली गांव का होने के कारण इसे तेनालीराम कहा जाता था।
तेनालीराम के जीवन जुड़ीं सभी कहानियों के संग्रह को 'तेनालीराम की कथा' कहते हैं। तेनालीराम की कहानियां आज भी समाज में प्रचलित और लोकप्रिय हैं। कृष्ण देवराय के राज्य में रामलिंगम नाम का यह व्यक्ति बहुत ही हंसोड़ था और दूर-दूर तक इसकी ख्याति थी। एक दिन गांव में जब कृष्ण देवराय के राजगुरु आए तो तेनालीराम ने उनकी खातिरदारी इस कारण की कि वे उनको राजदरबार का दरबारी बना देंगे, लेकिन राजगुरु ने झूठा वादा करके तेनालीराम की खूब सेवाएं हासिल कीं। बाद में जब उनका राज खुला तो तेनालीराम खुद ही अपनी चतुराई से कृष्ण देवराय के राजदरबारी बन बैठे। बस यहीं से उनकी और राजगुरु के बीच प्रतिद्वंद्विता शुरू हो जाती है। यह एक सच्ची कहानियों का संग्रह है।
तेनालीराम का जन्म तेलुगु परिवार में ब्रहिमीन गर्लापति रामकृष्णा के यहां हुआ था। तेनालीराम राजा के दरबार में राजकवि थे। लोकप्रिय कथाओ में तेनालीराम को बहुत ही हाजिरजवाब माना जाता है। तेनालीराम की तर्ज पर ही अकबर और बीरबल की कथाओं का निर्माण हुआ।
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शुकसप्तति (संस्कृत एवं हिंदी अनुवाद) : यह भी बालकों की शिक्षा हेतु एक ग्रंथ है। शुकसप्तति की कहानियां कम रोचक नहीं हैं जिनमें कोई सुग्गा अपने गृहस्वामी के परदेश चले जाने पर परपुरषों के आकर्षणजाल से अपनी स्वामिनी को बचाता है। इसकी विस्तृत वाचनिका के लेखक कोई चिंतामणि भट्ट हैं जिनका समय 12 शतक से पूर्ववर्ती होना चाहिए, क्योंकि उन्होंने इस ग्रंथ में पूर्णभद्र के द्वारा संस्कृत 'पंचतंत्र' का स्थान-स्थान पर उपयोग किया है।
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बाल कहानी संग्रह : हिन्दी बाल कहानियों का उदय भारतेंदु युग से माना जाता है। इस काल की अधिकांश कहानियां अनूदित हैं। इसके लिए वे संस्कृत की कहानियों के लिए आभारी हैं। सर्वप्रथम शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने कुछ मौलिक कहानियां लिखीं। इनमें राजा भोज का सपना बच्चों का इनाम तथा लड़कों की कहानी का उल्लेख किया जा सकता है। आगे चलकर रामायण-महाभारत आदि पर आधारित अनेक कहानियां द्विवेदी युग में लिखी गईं किंतु हिन्दी बाल कहानी अपने स्वर्णिम अभ्युदय के लिए प्रेमचंद की ऋणी है। उनकी अनेक कहानियों में बाल मन का प्रथम निवेश हुआ और उसकी ज्वलंत झांकी अनेक कहानियों में मिलती है। बाल मन के अनुरूप उनकी बहुत सी कहानियां, जो कि बड़ों के लिए ही थीं, बच्चों ने उल्लास के साथ हृदयंगम की।
इन कहानियों में 'ईदगाह' उनकी उच्च कोटि की बाल मन के चित्रण की कहानी है। प्रेमचंद की अन्य अनेक कहानियां हैं जिनमें किशोर मन की अनेक मनोभावनाओं का मनोवैज्ञानिक निरूपण है। इस प्रकार प्रेमचंद ने बाल कहानी का मौलिक स्वरूप प्रस्तुत किया वही परंपरा स्वतंत्र भारत में नाना रूपों में विकसित होती हुई आज अपने शिखर पर पहुंची हुई है।
उपर्युक्त हिन्दी बाल कहानियों के विकास और समृद्धि में स्वातंत्र्योत्तर काल में योगदान देने वाले कुछ महत्वपूर्ण नाम इस प्रकार हैं-
कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, सावित्री देवी वर्मा, चौहान, मस्तराम, विष्णु प्रभाकर, मनोहर वर्मा, हरिकृष्ण देवसरे, व्यथित हृदय, मनहर चौहान, मस्तराम कपूर, कन्हैयालाल नंदन, श्यामसिंह शशि, जयप्रकाश भारती, कृष्णा नागर, दामोदर अग्रवाल, शकुंतला वर्मा, शकुंतला सिरोठिया, सावित्री परमार, अनंत कुशवाहा, यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र, रामेश्वरलाल दुबे तथा इस सदी के अंतिम दो दशकों में कई अन्य महत्वपूर्ण बाल कहानीकार क्षितिज पर उदित हुए।
इन कहानीकारों ने हिन्दी बाल कहानी को परिमाण और गुणवत्ता की दृष्टि से नई ऊंचाइयां प्रदान कीं और हिन्दी बाल कहानी को स्वर्ण युग में पहुंचा दिया है। इन कहानीकारों में- डॉ. उषा यादव, उषा महाजन, क्षमा शर्मा, कमला चमोला, जाकिर अली रजनीश, रमाशंकर, अखिलेश श्रीवास्तव, चमन, इंदरमन साहू, सुधीर, सक्सेना, कमलेश भट्ट कमल, भगवती प्रसाद द्विवेदी, भेरूलाल गर्ग, विमला रस्तोगी, स्नेह अग्रवाल, डॉ. हूंदराज बलवाणी, फकीरचन्द्र शुक्ला, घनश्याम रंजन, परशुराम शुक्ल, नागेश पांडेय, संजय देशबंधु, शाहजहां पुरी आदि।
हिन्दी बाल कहानी पर्याप्त समद्ध है। इसे पंचतंत्र, हितोपदेश कथासरित्सागर, जातक कथा पुरुष परीक्षा, बेताल पज्जविशतिका, सिंहासन द्वात्रिशिका भोज प्रबंध, शुकसप्तति जैसे संस्कृत के कथा साहित्य का ज्ञान प्राप्त है।
वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, पुराण आदि ग्रंथों के आख्यान, उपाख्यान, नैतिक मूल्यपरक असंख्य कथानक और अनेक महापुरुषों देवी-देवताओं के कथा-प्रसंगों की अक्षय गंगोत्री से हिन्दी बाल कहानियों की मंदाकिनी प्रवाहित हो रही है, जो मानव जीवन के नाना रूपों की व्याख्या करती है। इस समृद्ध पृष्ठभूमि वाली हिन्दी बाल कहानी का आयाम अत्यंत व्यापक है।