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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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दुनिया के 7 बड़े धार्मिक पलायनों का रहस्य...

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अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

धर्म-अधर्म की जंग, प्राकृतिक आपदा और वैराग्य भाव के चलते दुनिया के कई ऐसे समाज, कौम या धार्मिक समूह रहे हैं जिनको अपने देश या स्थान को छोड़कर किसी अन्य देश या स्थान पर जाना पड़ा। दुनिया में ऐसे कई पलायन, निष्क्रमण हुए हैं जिनको और कुछ नाम भी दिया जा सकता है। इस तरह के पलायन के चलते एक ओर जहां मानवता दर-ब-दर हुई है, तो दूसरी ओर मानव समूह ने एक नया रास्ता और नया देश, नई भूमि खोजी है।

आज भी पलायन जारी है। एक और जहां 90 के दशक में इस्लामिक आतंकवाद के कारण कश्मीरी पंडितों को अपनी मातृभूमि को छोड़कर पलायन करना पड़ा, तो दूसरी ओर वर्तमान में 3 लाख से अधिक यजीदियों को खुद का स्थान छोड़कर दूसरे देशों में शरण लेना पड़ी है।

अफगानिस्तान पर जब अमेरिकी हमला हुआ था तो लगभग 5 लाख अफगानी लोगों ने ईरान और पाकिस्तान में शरण ली थी। दूसरी ओर पाकिस्तान में ही 6 लाख से अधिक अहमदी मुसलमानों ने अपना मुल्क छोड़कर चीन-पाक की सीमा पर शरण ले रखी है। जबरन धर्मांतरण के चलते हर साल पाकिस्तान से 5,000 हिन्दुओं का पलायन होता है। यह भी उल्लेखनीय है कि चीन की क्रांति के बाद लाखों तिब्बतियों को तिब्बत छोड़कर भारत में शरण लेना पड़ी।
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'शरणार्थी' (refugee) उस व्यक्ति या समूह को कहते हैं जिसे अपना घर छोड़कर कहीं अन्यत्र रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है। उदाहरण के लिए भारत विभाजन के समय पंजाब, सिन्ध आदि प्रदेशों के लाखों हिन्दुओं को अपना घरबार छोड़कर भारत के विभिन्न भागों में आकर बसने को मजबूर होना पड़ा था। इस दौरान डेढ़ लाख से ज्यादा हिन्दुओं का कत्लेआम किया गया। यही हालात 1971 में बांग्लादेश के हिन्दुओं के सामने पेश हुए थे।

खैर, हम यहां मानव त्रासदी से भरे इस तरह के पलायन की बात नहीं कर रहे हैं। हम आपको बताएंगे दुनिया के उन 7 पलायनों के बारे में जिनके कारण दुनिया बदल गई।

अगले पन्ने पर पहला पलायन...

पंचनद : जब जलप्रलय का पानी गौरीशंकर तक चढ़ गया था, तब राजा मनु अपने परिवार और ऋषियों के साथ एक नाव में सवार होकर जल के ऊपर ही कई दिनों तक जीवन बिताते रहे। उनकी नौका को पर्वत के शिखर से बांध दिया गया जिसे आज नौकाबंध कहते हैं। जब प्रलय का जल उतरा तो सबसे प्रथम वे तिब्बत की धरती पर उतरे। वहां से वे भारत में पुन: आए और अपने वंशजों का विस्तार किया। उन्हीं की परंपरा में आगे चलकर ययाति हुए जिनके 5 पुत्र थे। ययाति के प्रमुख 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुहु। इन्हें वेदों में पंचनद कहा गया है।

ययाति के इन पांचों पुत्रों के कारण ही एशिया में धर्म, राजनीति, समाज और राज्य का निर्माण हुआ। जिस तरह बाइबल में याकूब के 12 पुत्रों से इसराइल-अरब की जाति बनी, उसी तरह ययाति के 5 पुत्रों से अखंड भारत (अफगानिस्तान, पाकिस्तान, हिन्दुस्तान, बांग्लादेश, बर्मा, थाईलैंड आदि) की जातियां बनीं। हालांकि ययाति के 10 पुत्र थे। याकूब और ययाति की कहानी कुछ-कुछ मिलती-जुलती है। यह शोध का विषय हो सकता है। ययाति प्रजापति ब्रह्मा की 10वीं पीढ़ी में हुए थे।

पुराणों में उल्लेख है कि ययाति अपने बड़े लड़के यदु से रुष्ट हो गए थे और उसे शाप दिया था कि यदु या उसके लड़कों को राजपद प्राप्त करने का सौभाग्य न प्राप्त होगा। ययाति सबसे छोटे बेटे पुरु को बहुत अधिक चाहते थे और उसी को उन्होंने राज्य देने का विचार प्रकट किया, परंतु राजा के सभासदों ने ज्येष्ठ पुत्र के रहते हुए इस कार्य का विरोध किया।

यदु ने पुरु पक्ष का समर्थन किया और स्वयं राज्य लेने से इंकार कर दिया। इस पर पुरु को राजा घोषित किया गया और वह प्रतिष्ठान की मुख्य शाखा का शासक हुआ। उसके वंशज पौरव कहलाए। यदु के बाद यदुओं को कभी भी राज्य नहीं मिला। उनके वंशज के लोग एक स्थान से दूसरे स्थान को भटकते रहे और उनको हर जगह से पलायन ही करना पड़ा। वे जहां भी गए उन्होंने एक नया नगर बसाया और अंतत: उस नगर का विध्वंस हो गया।

दूसरी ओर कुरुओं पर शोध जरूरी है, क्योंकि कुरुओं से ही कुरोश, कुरैशी, कुषाण और कौरव हैं। कुरुओं से ही कश्मीर, कुनार, कंदहार, काबुल, हिन्दूकुश, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, कुनलुन, खुरासन, केर्मन, कुर्दिस्तान, कुत, कर्बला, खुर्रम, कुवैत, कस्र, कतर, कसरा, कासिम, खुर्माह, क़ुर्य्याह, करारा और अंत में काबा है। उत्तरी ध्रुव के निकटवर्ती प्रदेश को ही प्राचीन साहित्य में विशेषत: रामायण और महाभारत में उत्तर कुरु कहा गया है और यही आर्यों की आदि भूमि थी।

अगले पन्ने पर दूसरा पलायन...

कृष्ण क्यों गए थे द्वारिका : यदुवंशी कृष्ण ने उनके क्रूर मामा राजा कंस का वध कर दिया था तो कंस के श्वसुर मगधपति जरासंध ने कृष्ण और यदुओं का नामोनिशान मिटा देने की ठान रखी थी। वह मथुरा और यादवों पर बारंबार आक्रमण करता था। उसके कई मलेच्छ और यवनी मित्र राजा थे। अंतत: यादवों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कृष्ण ने मथुरा को छोड़ने का निर्णय लिया। विनता के पुत्र गरूड़ की सलाह एवं ककुद्मी के आमंत्रण पर कृष्ण कुशस्थली आ गए। वर्तमान द्वारिका नगर कुशस्थली के रूप में पहले से ही विद्यमान थी, कृष्ण ने इसी उजाड़ हो चुकी नगरी को पुनः बसाया।

कृष्ण अपने 18 नए कुल-बंधुओं के साथ द्वारिका आ गए। यहीं 36 वर्ष राज्य करने के बाद उनका देहावसान हुआ। द्वारिका के समुद्र में डूब जाने और यादव कुलों के नष्ट हो जाने के बाद कृष्ण के प्रपौत्र वज्र अथवा वज्रनाभ द्वारिका के यदुवंश के अंतिम शासक थे, जो यदुओं की आपसी लड़ाई में जीवित बच गए थे। द्वारिका के समुद्र में डूबने पर अर्जुन द्वारिका गए और वज्र तथा शेष बची यादव महिलाओं को हस्तिनापुर ले गए। कृष्ण के प्रपौत्र वज्र को हस्तिनापुर में मथुरा का राजा घोषित किया। वज्रनाभ के नाम से ही मथुरा क्षेत्र को ब्रजमंडल कहा जाता है।

ईसा से लगभग 3221 वर्ष पूर्व उनका जन्म हुआ। महाभारत युद्ध 3137 ई.पू. में हुआ। इस युद्ध के 35 वर्ष पश्चात भगवान कृष्ण ने एक बाण लगने के कारण देह छोड़ दी थी। 119 वर्ष की उम्र में कृष्ण ने देह छोड़ी थी।

भगवान कृष्ण ने जब मथुरा छोड़ी थी, तब वे अपने खानदान के 18 कुल (समुदाय) के साथ द्वारिका चले गए थे। यह दुनिया का पहला इतने बड़े पैमाने पर पलायन था। इसके बाद मूसा के साथ मिस्र छोड़कर उनके कुल के लोग यरुशलम गए थे। गुजरात के समुद्र तट पर उन्होंने द्वारिका नाम से भव्य नगर बसाया था। यह स्थान उनके प्राचीन पूर्वज यदु का स्थान भी माना जाता है।

अगले पन्ने पर तीसरा पलायन...

ह. इब्राहीम : बाढ़ के 350 साल बाद हज. नूह की मौत हो गई। नूह के मरने के ठीक 2 साल बाद इब्राहीम का जन्म हुआ। एक दिन यहोवा (ईश्‍वर) ने इब्राहीम से कहा- ‘तुम इस शहर, ऊर को और अपने रिश्तेदारों को छोड़ दो और उस देश को जाओ, जो मैं तुम्हें दिखाऊंगा।’

जब इब्राहीम ने ऊर शहर छोड़ा तो उनके परिवार के कुछ लोग भी उनके साथ गए। साथ आए लोगों में उनकी पत्नी सारा, उनके पिता तेरह और उनके भाई का बेटा लूत। रास्ते में हारान शहर में इब्राहीम के पिता की मौत हो गई। हजरत इब्राहीम को ऊर इसलिए छोड़ना पड़ा, क्योंकि उन्होंने उस शहर के एक मंदिर को ध्वस्त कर बुतपरस्ती के खिलाफ आवाज बुलंद की थी।

इब्राहीम और उनका परिवार हारान शहर से निकलकर कनान देश पहुंचा। वहां यहोवा ने इब्राहीम से कहा, ‘मैं यही देश तुम्हारे बच्चों को दूंगा।’ इब्राहीम वहीं रुक गए और तंबुओं में रहने लगे। एक दिन यहोवा ने इब्राहीम की परीक्षा ली। उस परीक्षा की याद में ही बकरीद मनाई जाती है। इब्राहीम के दो बेटे थे- इसहाक और जेकब।

प्राचीन मेसोपोटामिया (वर्तमान इराक तथा सीरिया) में सामी मूल की विभिन्न भाषाएं बोलने वाले अक्कादी, कैनानी, आमोरी, असुरी आदि कई खानाबदोश कबीले रहा करते थे। इन्हीं में से एक कबीले का नाम हिब्रू था। वे यहोवा को अपना ईश्वर और इब्राहीम को आदि पितामह मानते थे। उनकी मान्यता थी कि यहोवा ने अब्राहम और उनके वंशजों के रहने के लिए इसराइल देश नियत किया है।

इब्राहीम मध्य में उत्तरी इराक से कानान चले गए थे। वहां से इब्राहीम के खानाबदोश वंशज और उनके पुत्र इसाक और जेकब, जो तब तक 12 यहूदी कबीले बन चुके थे, मिस्र चले गए। मिस्र में उन्हें कई पीढ़ियों तक गुलाम बनकर रहना पड़ा।

अगली बार जब ह. इब्राहीम मक्का आए तो अपने पुत्र इस्माइल से कहा कि यहोवा ने मुझे हुक्म दिया है कि इस जगह एक घर बनाऊं। तब उन्होंने खाना-ए-काबा का निर्माण किया। निर्माण के दौरान इस्माइल पत्थर ढोकर लाते और ह. इब्राहीम उन्हें जोड़ते।

अगले पन्ने पर चौथा पलायन...

हजरत मूसा : मूसा का जन्म ईसा पूर्व 1392 को मिस्र में हुआ था। उस काल में मिस्र में फेरो का शासन था। उनका देहावसान 1272 ईसा पूर्व हुआ। ह. इब्राहीम के बाद यहूदी इतिहास में सबसे बड़ा नाम 'पैगंबर मूसा' का है। ह. मूसा ने यहूदी धर्म को एक नई व्यवस्था और स्‍थान दिया। उन्होंने मिस्र से अपने लोगों को ले जाकर इसराइल में बसाया। यहूदियों के कुल 12 कबीले थे जिनको बनी इसराइली कहा जाता था। माना जाता है कि इन 12 कबीलों में से एक कबीला उनका खो गया था। शोधानुसार वही कबीला कश्मीर में आकर बस गया था।

प्राचीन मेसोपोटामिया (वर्तमान इराक तथा सीरिया) में सामी मूल की विभिन्न भाषाएं बोलने वाले अक्कादी, कैनानी, आमोरी, असुरी आदि कई खानाबदोश कबीले रहा करते थे। इन्हीं में से एक कबीले का नाम हिब्रू था। वे यहोवा को अपना ईश्वर और इब्राहीम को आदि पितामह मानते थे। उनकी मान्यता थी कि यहोवा ने अब्राहम और उनके वंशजों के रहने के लिए इसराइल देश नियत किया है।

इब्राहीम मध्य में उत्तरी इराक से कानान चले गए थे। वहां से इब्राहीम के खानाबदोश वंशज और उनके पुत्र इसाक और इस्माइल, जो तब तक 12 यहूदी कबीले बन चुके थे, मिस्र चले गए। मिस्र में उन्हें कई पीढ़ियों तक गुलाम बनकर रहना पड़ा। मिस्र में वे मिस्रियों के साथ रहते थे, लेकिन दोनों ही कौमों में तनाव बढ़ने लगा तब मिस्री फराओं के अत्याचारों से तंग आकर हिब्रू कबीले के लोग लगभग ई.पू. 13वीं शताब्दी में वे मूसा के नेतृत्व में पुन: अपने देश इसराइली कानान लौट आए।

लौटने की इस यात्रा को यहूदी इतिहास में 'निष्क्रमण' कहा जाता है। इसराइल के मार्ग में सिनाई पर्वत पर मूसा को ईश्वर का संदेश मिला कि यहोवा ही एकमात्र ईश्वर है अत: उसकी आज्ञा का पालन करें, उसके प्रति श्रद्धा रखें और 10 धर्मसूत्रों का पालन करें। मूसा ने यह संदेश हिब्रू कबीले के लोगों को सुनाया। तत्पश्चात अन्य सभी देवी-देवताओं को हटाकर सिर्फ यहोवा की आराधना की जाने लगी। इस प्रकार यहोवा की आराधना करने वाले यहूदी और उनका धर्म यहूदत कहलाया।

अगले पन्ने पर पांचवां पलायन...

जरथुस्त्र : इतिहासकारों का मत है कि जरथुस्त्र 1700-1500 ईपू के बीच हुए थे। यह लगभग वही काल था, जबकि दूसरी ओर हजरत इब्राहीम अपने धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि फारस के शहंशाह विश्तास्प के शासनकाल में पैगंबर जरथुस्त्र ने दूर-दूर तक भ्रमण कर अपना संदेश दिया। उनके इस संदेश के कारण ही कुछ समूह उनका विरोधी हो चला था जिसके चलते अपने अनुयायियों के साथ वे उत्तरी ईरान में जाकर बस गए थे। भारत के कई इतिहासकारों द्वारा संत जरथुष्ट्र को ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना जाता है।

प्राचीन फारस (आज का ईरान) जब पूर्वी यूरोप से मध्य एशिया तक फैला एक विशाल साम्राज्य था, तब ईशदूत जरथुस्त्र ने एक ईश्वरवाद का संदेश देते हुए पारसी धर्म की नींव रखी थी।

7वीं सदी ईस्वी तक आते-आते फारसी साम्राज्य अपना पुरातन वैभव तथा शक्ति गंवा चुका था। जब अरबों ने इस पर निर्णायक विजय प्राप्त कर ली तो अपने धर्म की रक्षा हेतु लाखों की तादाद में जरथोस्ती धर्मावलंबी समुद्र के रास्ते भाग निकले और उन्होंने भारत के पश्चिमी तट पर शरण ली। अनेक ने कजाकिस्तान में शरण ली।

अगले पन्ने पर छठा पलायन...

गौतम बुद्ध : एक नदी के पानी के लिए क्षत्रियों के दो दलों में आपसी युद्ध होता रहता था। एक न खत्म होने वाला युद्ध। बुद्ध ने कहा कि हिंसा से हिंसा ही बढ़ती है। एक रात बुद्ध ने अपना देश और घरबार छोड़ दिया। जब बुद्ध को निर्वाण उपलब्ध हुआ, तब उनकी पत्नी ने पूछा- आपने जो हासिल किया, क्या वह यहां मेरे पास रहकर हासिल नहीं हो सकता था? बुद्ध ने कहा कि जरूर हो सकता था, लेकिन भटके बगैर नहीं।

कौशाम्बी नरेश की महारानी भगवान बुद्ध से घृणा करती थी। एक बार जब भगवान बुद्ध कौशाम्बी आए तो महारानी ने उन्हें परेशान और अपमानित करने के लिए कुछ विरोधियों को उनके पीछे लगा दिया। गौतम बुद्ध के शिष्य आनंद उनके साथ हमेशा रहते थे, जो कि गौतम बुद्ध के प्रति इस खराब व्यवहार देख दुःखी हो गए।

परेशान होकर आनंद ने भगवान बुद्ध से कहा कि भगवान, ये लोग हमारा अपमान करते हैं। क्यों न इस शहर को छोड़कर कहीं और चल दें? भगवान बुद्ध ने आनंद से प्रश्न किया कि कहां जाएं? आनंद ने कहा कि किसी दूसरे शहर, जहां इस तरह के लोग न हों। तब गौतम बुद्ध बोले कि अगर वहां भी लोगों ने ऐसा अपमानजनक व्यवहार किया तो? शिष्य आनंद बोला कि तो फिर वहां से भी किसी दूसरे शहर की ओर चलेंगे और फिर वहां से भी किसी दूसरे शहर।

तथागत ने गंभीर होकर कहा कि नहीं आनंद, ऐसा सोचना ठीक नहीं है। जहां कोई मुश्किल पैदा हो, कठिनाइयां आएं, वहीं डटकर उनका मुकाबला करना चाहिए, वहीं उनका समाधान किया जाना चाहिए। जब वे हट जाएं तभी उस स्थान को छोड़ना चाहिए। ध्यान रखो, मुश्किलों को वहीं छोड़कर आगे बढ़ना पलायन है, किसी समस्या का हल नहीं।

अगले पन्ने पर सातवां पलायन...

ह. मुहम्मद (स.अ.व) : इस्लामिक प्रचार के चलते ह. मुहम्मद (स.अ.व) को विरोध का सामना करना पड़ रहा था। इसी बीच पैगंबर के दो बड़े सहयोगियों हजरत अबुतालिब तथा हजरत खदीजा का स्वर्गवास हो गया। जब पैगंबर मक्का में अकेले रह गए, तो अल्लाह का हुक्म हुआ कि मक्का छोड़कर मदीना चले जाओ। पैगंबर ने इस आदेश का पालन किया और रात्रि के समय मक्का से मदीना की ओर प्रस्थान किया। मक्का से मदीना की यह यात्रा हिजरत कहलाती है तथा इसी यात्रा से हिजरी सन् आरंभ हुआ। पैगंबरी की घोषणा के बाद पैगंबर 13 वर्षों तक मक्का में रहे।

मदीना में पैगंबर को नए सहयोगी प्राप्त हुए तथा उनकी सहायता से पैगंबर ने इस्लाम का प्रचार अधिक दृढ़ता से किया। इससे मक्का और मदीना के दूसरे धर्मों की चिंता बढ़ती गई तथा वे युद्ध करने पर उतारू हो गए। इस प्रकार पैगंबर को मक्कावासियों से कई युद्ध करने पड़े जिनमें विरोधियों को पराजय का सामना करना पड़ा।

अंत में पैगंबर ने मक्का जाकर हज करना चाहा, परंतु मक्कावासी इससे सहमत नहीं हुए तथा पैगंबर ने शक्ति के होते हुए भी युद्ध नहीं किया तथा संधि करके मानव-मित्रता का परिचय दिया तथा संधि की शर्तानुसार हज को अगले वर्ष तक के लिए स्थगित कर दिया। सन् 10 हिजरी में पैगंबर ने 1,25,000 मुसलमानों के साथ हज किया तथा मुसलमानों को हज करने का प्रशिक्षण दिया।

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