हिन्दू शास्त्रों में आए बहुत से शब्दों के अर्थ का अनर्थ किए जाने के कारण समाज में भटकाव, भ्रम और विभाजन की स्थिति बनी है। आओ जानते हैं किस शब्द का क्या सही अर्थ है।
हिन्दू धर्मशास्त्रों में आए शब्दों का अर्थ जानिए-1
वर्ण और जाति : वर्ण शब्द संस्कृत की वृ धातु से बना है जिसका अर्थ रंग, प्रकाश और चुनना होता है जबकि जाति शब्द संस्कृत के जन शब्द से बना है जिसका अर्थ 'जन्म लेना' होता है। वर्ण और जाति दोनों ही परस्पर भिन्न शब्द है, लेकिन मध्यकाल से इन दोनों ही शब्दों को गलत अर्थों में लेकर समाज का विभाजन किया जाता रहा है जो कि आज भी जारी है। इस शब्द के अर्थ का अनर्थ किया गया।
ऋग्वेद में वर्ण का प्रयोग आर्यो और अनार्यों में अंतर प्रकट करने के लिए होता था। तब दो ही वर्ण प्रमुखता से होते थे श्वेत और अश्वेत। बाद में इसका प्रयोग आर्यों के बीच ही भिन्न-भिन्न रंग के लोगों के बीच भेद करने के लिए होने लगा। श्वेत और अश्वेत के बाद मिश्रीत और रक्त रंग के लोगों के लिए भी प्रयोग होने लगा। वैदिक काल की समाप्ति के बाद कालान्तर में इससे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आ गए।
'रंग' बना जाति का 'जहर'
वर्ण आश्रम : प्राचीन काल में वर्णाश्रम धर्म का पालन करना अत्यन्त आवश्यक था। वर्ण एवं आश्रम दोनों एक दूसरे से संबंधित थे तथा दोनों का ही संबंध व्यक्ति और समाज से था। आश्रम का संबंध व्यक्ति के आचार अर्थात व्यवहार, आचरण से था तो वर्ण का संबंध समाज से था। वर्ण आश्रम में गुण एवं क्षमता के आधार पर स्थान मिलता था।
प्रार्थना : प्रार्थना को उपासना और आराधना भी कह सकते हैं। इसमें निराकार ईश्वर के प्रति कृतज्ञता और समर्पण का भाव व्यक्त किया जाता है। इसमें भजन या कीर्तन नहीं किया जाता। इसमें पूजा या आरती भी नहीं की जाती। प्रार्थना का असर बहुत जल्द होता है। समूह में की गई प्रार्थना तो और शीघ्र फलित होती है। सभी तरह की आराधना में श्रेष्ठ है प्रार्थना। प्रार्थना करने के भी नियम है। वेदज्ञ प्रार्थना ही करते हैं। वेदों की ऋचाएं प्रकृति और ईश्वर के प्रति गहरी प्रार्थनाएं ही तो है। ऋषि जानते थे प्रार्थना का रहस्य।
ध्यान : ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। ध्यान का मूलत: अर्थ है जागरूकता। अवेयरनेस। होश। साक्षी भाव। ध्यान का अर्थ ध्यान देना, हर उस बात पर जो हमारे जीवन से जुड़ी है। शरीर पर, मन पर और आसपास जो भी घटित हो रहा है उस पर। विचारों के क्रिया-कलापों पर और भावों पर। इस ध्यान देने के जारा से प्रयास से ही हम अमृत की ओर एक-एक कदम बढ़ा सकते हैं। ध्यान को ज्ञानियों ने सर्वश्रेष्ठ माना है। ध्यान से मनोकामनाओं की पूर्ति होती है और ध्यान से मोक्ष का द्वार खुलता है।
भजन-कीर्तन : ईश्वर, भगवान या गुरु के प्रति स्वयं के समर्पण या भक्ति के भाव को व्यक्त करने का एक शांति और संगीतमय तरीका है कीर्तन। इसे ही भजन कहते हैं। भजन करने से शांति मिलती है। भजन करने के भी नियम है। गीतों की तर्ज पर निर्मित भजन, भजन नहीं होते। शास्त्रीय संगीत अनुसार किए गए भजन ही भजन होते हैं। सामवेद में शास्त्रीय संगीत का उल्लेख मिलता है।
पूजा-आरती : पूजा करने के पुराणिकों ने अनेकों तरीके विकसित किए है। पूजा किसी देवता या देवी की मूर्ति के समक्ष की जाती है जिसमें गुड़ और घी की धूप दी जाती है, फिर हल्दी, कंकू, धूम, दीप और अगरबत्ती से पूजा करके उक्त देवता की आरती उतारी जाती है। अत: पूजा-आरती के भी नियम है।