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भीष्माष्टमी कब है, क्या है महत्व और कथा

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, शुक्रवार, 27 जनवरी 2023 (15:16 IST)
Bhishma Ashtami 2023: माघ माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को भीष्म अष्टमी कहते हैं। इस दिन को भीष्म तर्पण दिवस भी कहते हैं। इस बार यह पर्व 28 जनवरी 2023 शनिवार के दिन रखा जाएगा। पंचांगभेद से कुछ जगहों पर 29 जनवरी को रखा जाएगा। अष्टमी तिथि 28 जनवरी को प्रात: 08:43 से प्रारंभ होगी और अगले दिन यानी 29 जनवरी को प्रात: 09:05 तक रहेगी।
 
भीष्म अष्यमी का महत्व- importance of Bhishma Ashtami: धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस दिन भीष्म पितामह ने अपने प्राण त्याग दिए थे और तब उनका तर्पण किया गया था। इस दिन व्रत रखने या पूजा करने से नि:संतान दंपत्तियों को गुणवान संतान की प्राप्ति होती है। इसी दिन पितरों का पिंडदान और तर्पण करने से सभी तरह के पाप नष्ट हो जाते हैं।
 
माघे मासि सिताष्टम्यां सतिलं भीष्मतर्पणम्।
श्राद्धच ये नरा: कुर्युस्ते स्यु: सन्ततिभागिन:।।
अर्थात: जो व्यक्ति माघ शुक्ल अष्टमी को भीष्म के निमित्त तर्पण, जलदान आदि करता है, उसे हर तरह के पापों से मुक्ति मिल जाती है।
 
Bhishma Maha Bharat Story- इस कथा के अनुसार भीष्म पितामह का असली नाम देवव्रत था। वे हस्तिनापुर के राजा शांतनु की पटरानी गंगा की कोख से उत्पन्न हुए थे। एक समय की बात है। राजा शांतनु शिकार खेलते-खेलते गंगा तट के पार चले गए। वहां से लौटते वक्त उनकी भेंट हरिदास केवट की पुत्री मत्स्यगंधा (सत्यवती) से हुई।
 
मत्स्यगंधा बहुत ही रूपवान थी। उसे देखकर शांतनु उसके लावण्य पर मोहित हो गए। एक दिन राजा शांतनु हरिदास के पास जाकर उनकी पुत्री सत्यवाती का हाथ मांगते है, परंतु वह राजा के प्रस्ताव को ठुकरा देता है और कहता है कि- महाराज! आपका ज्येष्ठ पुत्र देवव्रत है। जो आपके राज्य का उत्तराधिकारी है, यदि आप मेरी कन्या के पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा करें तो मैं मत्स्यगंधा का हाथ आपके हाथ में देने को तैयार हूं। परंतु राजा शांतनु इस बात को मानने से इनकार कर देते है। 
 
ऐसे ही कुछ समय बीत जाता है, लेकिन वे सत्यवती को भूला नहीं पाते हैं और दिन-रात उसकी याद में व्याकुल रहने ललते हैं। यह सब देख एक दिन देवव्रत ने अपने पिता से उनकी व्याकुलता का कारण पूछा। सारा वृतांत जानने पर देवव्रत स्वयं केवट हरिदास के पास गए और उनकी जिज्ञासा को शांत करने के लिए गंगा जल हाथ में लेकर शपथ ली कि 'मैं आजीवन अविवाहित ही रहूंगा'। देवव्रत की इसी कठिन प्रतिज्ञा के कारण उनका नाम भीष्म पितामह पड़ा। तब राजा शांतनु ने प्रसन्न होकर अपने पुत्र को इच्छित मृत्यु का वरदान दिया।
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महाभारत के युद्ध में शरशय्या पर लेटने के बाद भी भीष्म प्राण नहीं त्यागते हैं। भीष्म के शरशय्या पर लेट जाने के बाद युद्ध और 8 दिन चला और इसके बाद भीष्म मैदान में अकेले लेटे रहे। वे सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार करते रहे और जब सूर्य मकर संक्रांति के दिन उत्तरायण हो गया तब वे माघ माह का इंतजार करते हैं और माघ माह में भी शुक्ल पक्ष की अष्टमी को उन्होंने देह छोड़ने का निर्णय लिया।
 
भीष्म यह भलीभांति जानते थे कि सूर्य के उत्तरायण होने पर प्राण त्यागने पर आत्मा को सद्गति मिलती है और वे पुन: अपने लोक जाकर मुक्त हो जाएंगे इसीलिए वे सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार करते हैं। परंतु जब सूर्य उत्तरायण हो गया तब भी उन्होंने देह का त्याग नहीं किया क्योंकि शास्त्रों के अनुसार माघ माह का शुक्ल पक्ष उपमें उत्तम समय माना जाता है।
 
बाद में सूर्य के उत्तरायण होने पर माघ माह के आने पर युधिष्ठिर आदि सगे-संबंधी, पुरोहित और अन्यान्य लोग भीष्म के पास पहुंचते हैं। उन सबसे पितामह ने कहा कि इस शरशय्या पर मुझे 58 दिन हो गए हैं। मेरे भाग्य से माघ महीने का शुक्ल पक्ष आ गया। अब मैं शरीर त्यागना चाहता हूं। इसके पश्चात उन्होंने सब लोगों से प्रेमपूर्वक विदा मांगकर शरीर त्याग दिया। सभी लोग भीष्म को याद कर रोने लगे। युधिष्ठिर तथा पांडवों ने पितामह के शरविद्ध शव को चंदन की चिता पर रखा तथा दाह-संस्कार किया। कहते हैं कि भीष्म लगभग 150 वर्ष से अधिक समय तक जीकर निर्वाण को प्राप्त हुए। एक गणना अनुसार उनकी आयु लगभग 186 वर्ष की बताई जाती है। 
 
करीब 58 दिनों तक मृत्यु शैया पर लेटे रहने के बाद जब सूर्य उत्तरायण हो गया तब माघ माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को भीष्म पितामह ने अपने शरीर को छोड़ा था, इसीलिए यह दिन उनका निर्वाण दिवस है।
 
मान्यतानुसार इसी दिन व्रत रखकर जो व्यक्ति अपने पित्तरों के निमित्त जल, कुश और तिल के साथ श्रद्धापूर्वक तर्पण करता है, उसे संतान तथा मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है तथा उनके पितरों को भी वैकुंठ प्राप्त होता है। इस दिन भीष्म पितामह की स्मृति में श्राद्ध भी किया जाता है। 

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