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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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प्रवासी कविता : वंदे मातरम

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पुष्पा परजिया

एक कंपन सी हो जाती है
 
एक लहरी सी उठ जाती है
जब-जब देखूं मां भारती तेरी तस्वीर
 
हृदय वीणा झंकृत सी हो जाती है
उठा है तूफान जहां में तेरे प्रेम या भक्ति का
 
या जब-जब करूं मातृभूमि माई भक्ति तेरी
एक खुमारी सी मन में छा जाती है
 
मेरी मां तेरी गरिमा को हम बच्चे तेरे शीश नवाते हैं,
कभी कमी न आने देंगे ये कसम आज हम खाते हैं
 
मेरी गंगा, मेरी जमुना जो बसी है सिर्फ तुझमें
वो हिला वो कंचनजंगा का तरीका ने किया विस्तार तुझमें
 
जिसे देख-देख फूले न समाएं, हम सब बच्चे तेरे
तुझमें सृष्टि की सुगंध समाई, नाज़ करते हैं हम तुझपे
 
विश्व में जो कहीं नहीं वो ज्ञान भंडार भरे हैं तुझमें। 
धर्म, ज्ञान विज्ञान या संस्कार सभी तो तुझसे ही मिलते हैं हमें।
 
कभी मनाएं आजादी का दिन, कभी गणतंत्र दिवस के झंडे फहराएं
कर प्रणाम प्यारे तिरंगे को, हम भारतवासी सदा ही नतमस्तक हो जाएं।

(वेबदुनिया पर दिए किसी भी कंटेट के प्रकाशन के लिए लेखक/वेबदुनिया की अनुमति/स्वीकृति आवश्यक है, इसके बिना रचनाओं/लेखों का उपयोग वर्जित है...)

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