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समलैंगिकता पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

हमें फॉलो करें समलैंगिकता पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
नई दिल्ली , गुरुवार, 6 सितम्बर 2018 (19:02 IST)
नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने गुरूवार को एकमत से अपनी व्यवस्था में कहा कि परस्पर सहमति से वयस्कों के बीच समलैंगिक यौन संबंध अपराध नहीं है। न्यायालय ने कहा कि ऐसे यौन संबंधों को अपराध के दायर में रखने संबंधी भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के प्रावधान से संविधान में प्रदत्त समता और गरिमा के अधिकार का हनन होता है।

शीर्ष अदालत ने धारा 377 के तहत सहमति से समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर करते हुए कहा कि यह तर्कहीन, सरासर मनमाना और बचाव नहीं किए जाने वाला है।

प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से 495 पेज में चार अलग अलग फैसलों में कहा कि एलजीबीटीक्यू समुदाय को देश के दूसरे नागरिकों के समान ही सांविधानिक अधिकार प्राप्त हैं। संविधान पीठ ने लैंगिक रूझान को ‘जैविक घटना’ और ‘स्वाभाविक’ बताते हुए कहा कि इस आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव से मौलिक अधिकारों का हनन होता है।

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पीठ ने अपनी व्यवस्था में कहा, ‘यह घोषित किया जाता है कि जहां धारा 377 में एकांत में वयस्कों के सहमति से यौन क्रियाओं को अपराध के दायरे में रखने का संबंध है तो इससे संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 में प्रदत्त अधिकारों का हनन होता है। हालांकि, यह स्पष्ट किया जाता है कि ऐसी सहमति स्वत: सहमति होनी चाहिए, जो पूरी तरह स्वैच्छिक है और किसी भी तरह के दबाव या भय से मुक्त है।’

न्यायालय ने कहा, ‘नैतिकता को सामाजिक नैतिकता की वेदी पर शहीद नहीं किया जा सकता और कानून के शासन के अंतर्गत सिर्फ सांविधानिक नैतिकता की अनुमति दी जा सकती है।’ पीठ ने कहा कि एलजीबीटीक्यू समाज के सदस्यों को परेशान करने के लिए धारा 377 का एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है, जिसकी परिणति भेदभाव में होती है।

संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति आर एफ नरिमन, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ और न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा शामिल थीं।

न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने अपने अलग निर्णय में कहा कि सदियों तक बदनामी और बहिष्कार झेलने वाले इस समुदाय के सदस्यों और उनके परिवारों को राहत प्रदान करने में हुए विलंब की बात को इतिहास में खेद के साथ दर्ज किया जाना चाहिए।

न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने भी कहा कि धारा 377 की वजह से एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्यों को छुपकर और दोयम दर्जे के नागरिकों के रूप में जीने के लिए मजबूर होना पड़ा जबकि दूसरे लैंगिक रूझान का आनंद लेते रहे।

न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा, ‘भारतीय दंड संहिता की धारा 377, जहां तक यह दो वयस्कों, चाहें समलैंगिक (आदमी और आदमी), विषमलैंगिक (आदमी और महिला) या लेस्बियन (स्त्री और स्त्री) के बीच सहमति से अप्राकृतिक यौन रिश्तों को दंडित करती है, सांविधानिक नहीं मानी जा सकती।

हालांकि, यदि कोई, हमारा तात्पर्य स्त्री और पुरूष दोनों, किसी जानवर के साथ किसी भी तरह की यौन क्रिया में संलिप्त होते हैं तो धारा 377 का यह पहलू सांविधानिक है और यह इस कानून में यथावत दंडनीय अपराध बना रहेगा। ‘धारा 377 में वर्णित कोई भी क्रिया यदि दो वयस्कों में से किसी एक की सहमति के बगैर की जाती है तो यह धारा 377 के तहत दंडनीय होगा।’

पीठ ने कहा कि समलैंगिक वयस्कों के बीच सहमति से यौन संबंधों को प्रतिबंधित करने वाला धारा 377 का अंश समानता के अधिकार और गरिमा के साथ जीने के अधिकार का उल्लंघन करता है। न्यायालय ने कहा कि शासन लोगों पर मुकदमा नहीं चला सकता और उस सीमा का फैसला नहीं कर सकता कि क्या उचित है या नहीं।

न्यायालय ने कहा कि धारा 377 पुराने ढर्रे पर चल रहे समाज की व्यवस्था पर आधारित है। न्यायालय ने कहा कि जहां तक एकांत में परस्पर सहमति से अप्राकृतिक यौन कृत्य का संबंध है तो यह न तो नुकसानदेह है और न ही समाज के लिए संक्रामक है।

न्यायालय ने कहा कि समलैंगिकता मानसिक विकार नहीं है बल्कि यह पूरी तरह से एक स्वाभाविक अवस्था है। पीठ ने चार अलग अलग परंतु परस्पर सहमति के फैसले सुनाए। इस व्यवस्था में शीर्ष अदालत ने 2013 में सुरेश कौशल प्रकरण में दी गई अपनी ही व्यवस्था निरस्त कर दी। सुरेश कौशल के मामले में शीर्ष अदालत ने समलैंगिक यौन संबंधों को पुन: अपराध की श्रेणी में शामिल कर दिया था।

शीर्ष अदालत ने हालांकि अपनी व्यवस्था में कहा कि धारा 377 में प्रदत्त, पशुओं और बच्चों से संबंधित अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करने को अपराध की श्रेणी में रखने वाले प्रावधान यथावत रहेंगे। धारा 377 ‘अप्राकृतिक अपराधों’ से संबंधित है और इसमें कहा गया है कि जो कोई भी स्वेच्छा से प्राकृतिक व्यवस्था के विपरीत किसी पुरूष, महिला या पशु के साथ गुदा मैथुन करता है तो उसे उम्र कैद या फिर एक निश्चित अवधि के लिए कैद जो दस साल तक बढ़ाई जा सकती है, की सजा होगी और उसे जुर्माना भी देना होगा।

न्यायालय ने कहा कि अदालतों को प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि गरिमा के साथ जीने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में माना गया है।

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