हाल ही में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भारत को धमकी दी है कि प्रधानमंत्री मोदी को वास्तविकता का अहसास नहीं है और वे अपने पूर्व प्रधानमंत्री पंडित नेहरू जैसी चीन को गलत आंकने की गलती न करें क्योंकि इसकी भारत को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी। क्या यह बात पूरी तरह से सत्य और पारदर्शी जान पड़ती है? हम अपने आप से सवाल कर सकते हैं कि क्या मोदी भी नेहरूजी की तरह से गलती कर रहे हैं या कि दुनिया 1962 तक ही रुकी रही है? क्या बात है कि दलाई लामा जैसे धार्मिक नेता अभी भी कहते हैं कि भारत, को चीन की धमकियों से डरने की जरूरत नहीं है क्योंकि भारत चीन की ताकत, शक्ति को कम करके नहीं आंक रहा है?
इतिहासकारों का कहना है कि इस बार भारत नहीं, चीन भारत को कम करके आंक रहा है और वास्तव में अगर भारत-चीन का पूर्णकालिक युद्ध होता है तो इस लड़ाई में चीन को भारत से ज्यादा नुकसान उठाना पड़ेगा। चीन का भारत की तुलना में कहीं कई गुना अधिक नुकसान होगा और अगर ऐसा न होता तो चीन भारत पर हमला करने से इतना नहीं झिझकता। भारत पर हमला करने से पहले चीन को सैकड़ों बार सोचना पड़ेगा क्योंकि चीन कोई ऐसा देश नहीं है जिसकी कोई समस्याएं नहीं हों? वास्तव में कहना गलत न होगा कि चीन, भारत की तुलना में जितना बड़ा है, उसकी समस्याएं, परेशानियां भी उतनी ही बड़ी हैं। इस कारण से चीन ऐसी कोई लापरवाही नहीं करना चाहेगा जोकि उसके लिए बहुत भारी पड़ जाए।
अब पहले वाला भारत नहीं : अगर कहा जा रहा है कि चीनी वे लोग हैं जोकि भारत की ताकत को कम आंक रहे हैं तो ऐसा सोचने के लिए निम्नलिखित कारण भी हो सकते हैं। भारत अब ऐसा देश नहीं है जोकि पहले की तरह आसानी से चीनियों के सामने आत्मसमर्पण कर देगा।
1962 में देश का नेतृत्व करने वालों में जो आत्ममुग्धता और तथाकथित सिद्धांतप्रियता, दुनिया में शांति का सपना और इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने की लालसा रखने वाले लोगों के हाथों में था लेकिन आज ऐसा नहीं है। आज देश के लोगों में राष्ट्रीय सम्मान का सबसे ज्यादा भाव है और इसका कारण है कि हमारे देश की सेना का मनोबल उत्कृष्टतम स्थिति में है और भारतीय सेना वह ताकत है जिसकी विजेता देश चीन के सैनिकों को अहसास हुआ था। चीनी सैनिक भी भारतीय सैनिकों की ताकत और मनोबल की सराहना किए बिना नहीं रहे थे।
भारतीय सेना को युद्ध को अनुभव : भारत ऐसा देश है जिसकी सेना अपने देश में एक नहीं वरन अनेक मोर्चों पर लड़ती है और उसकी यह लड़ाई निरंतर चलती रहती है। शायद चीन के सेना प्रमुखों को इस बात का अंदाजा नहीं होगा कि देश की 450 बटालियनों और राष्ट्रीय राइफल्स की 60 से अधिक बटालियनें देश के ऑपरेशन वाले इलाकों में लगातार सक्रिय रहती हैं। अर्द्धसैनिक बलों की एक बड़ी ताकत लगातार संघर्षरत रहती है। लगातार संघर्ष की संजीवनी ही एक भारतीय सैनिक को अजेय बनाती हैं क्योंकि उन्हें निरंतर ही युद्ध जैसी परिस्थितियों को बनाना नहीं पड़ता है, वरन भारतीय सैनिक हर रोज युद्ध की परिस्थिति का सामना करता है।
...और यह है चीन की मजबूरी : विदित हो कि भारत ने कई लड़ाइयां लड़ीं हैं और जीती हैं। भारत केवल जनसंख्या बल का उपयोग करने वाला देश नहीं है। इसलिए देश में बेहतर सैनिक के विचार को अपनाया गया है जबकि चीन की सेना की एक टुकड़ी अगर हथियार लेकर चलती है तो उसके पीछे आने वाले सैनिक खाली हाथ होते हैं और वे अपने जो सैनिक मर जाते हैं, उनके हथियारों को लेकर लड़ते हैं। सेना का ऐसा उपयोग करने के लिए चीन विवश है क्योंकि उसकी फौज में भी दुनिया के सबसे ज्यादा सैनिक हैं। चीन ने वियतनाम को बंजर धरती बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन वियतनाम ने चीन की कथित चुनौती की ताकत को धूल में मिला दिया। वियतनाम दुनिया का एक ऐसा देश है जिसने चीन को उसकी सही औकात दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
वियतनाम ने तो चीन ही नहीं अमेरिका जैसी महाशक्ति को भी नाकों चने चबाने के लिए मजबूर कर दिया। वियतनाम पर अमेरिकी आक्रमण का अमेरिकी नागरिकों ने ही विरोध किया था। विख्यात बॉक्सर मोहम्मद अली (पूर्व में कैसियस क्ले) जैसे अनेक नामचीन लोग इस अमेरिकी विरोध का प्रतीक बने। विदित हो कि चीन ने एक बड़ी सेना लेकर वियतनाम पर हमला किया था लेकिन वे अपने जीते हुए क्षेत्र को अपने पास नहीं रख सके थे। भारी प्रतिरोध को देखते हुए चीन ने अपनी सेना को वापस बुला लिया और यह प्रचार किया कि उसने वियतनाम पर कब्जा कर लिया है। चीन की यह चालबाजी बुरी तरह असफल हुई थी।
अशांत तिब्बत से भारत को फायदा : इसी तरह चीन ने भारत पर बहुत बड़ी सेना के साथ 1962 में हमला किया था लेकिन तब भी तिब्बत में लोगों के असंतोष और विद्रोह को देखते हुए चीन उस समय भारत से हार जाता लेकिन हमारे देश के आत्ममुग्ध प्रधानमंत्री नेहरू और उनके सलाहकारों ने तिब्बत में कोई हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई क्योंकि तब हिंदी-चीनी भाई-भाई थे, लेकिन इसी भाई ने पीठ में छुरा घोंपने से कोई परहेज नहीं किया जबकि हमें मालूम होना चाहिए कि 1962 के युद्ध में भाग लेने वाले भारतीय सैनिकों के पास अच्छे जूते भी नहीं थे और यह युद्ध 14 हजार फुट की ऊंचाई पर लड़ा गया था। बहुत से सैनिक ऐसे भी थे जिनके पास हाड़ कंपाती सर्दी में जूते भी नहीं थे।
विदित हो कि चीन में तिब्बत के अलावा, देश के कई अन्य राज्यों में भारी अशांति थी लेकिन नेहरू जी को इससे कोई मतलब नहीं था क्योंकि वे तो विश्व में शांति दूत बनकर पैदा हुए थे। भले ही उनकी सिद्धांत, आदर्शप्रियता ने उन्हें भारत में अलोकप्रिय बनाया। तब उस युद्ध में भारत अगर चाहता तो तिब्बत पर कब्जा कर सकता था लेकिन नेहरूजी के होते ऐसी बात सोची भी नहीं जा सकती थी। इसलिए भारत, अगर चीन के खिलाफ हारा तो इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व जिम्मेदार था। राजनीतिक नेतृत्व के लुंज पुंज का परिणाम है कि जम्मू कश्मीर में अशांति दबाने के लिए भारत कम से कम बल और पुलिस का उपयोग करता है भले ही देश के गद्दार पूरे ऐशो आराम से यहीं खाकर इसी थाली में छेद कर सकें।
गीदड़ भभकी हैं चीन की धमकियां : हमारे देश में लोकतंत्र के झंडाबरदार और वामपंथ के पैदाइशी दुश्मन भी नहीं चाहते कि देश में आजादी की लड़ाई का विरोध करने वाले भी रातोरात 'जनता के हीरो' न बन सकें। यहां सारी दुनिया में यह दुष्प्रचार किया जाएगा कि वामपंथियों को कमजोर करने के लिए यह षडयंत्र किया जा रहा है भले ही चीन की सेना वामपंथियों का गौरव हो। लेकिन वामपंथी हमारे देश का गौरव हैं क्योंकि वे पैदाइशी बुद्धिजीवी हैं और होते रहेंगे और विचारों के लिए मॉस्को, पेइचिंग का मुंह देखते रहेंगे। माओवादियों को हमारे देश में ऐसा सम्मान दिया जाता है मानो वे बहुत बड़े विचारक, विद्वान हों। ये देश भक्त भी उन अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की मदद लेने से गुरेज नहीं करते हैं, भले ही वे कितने ही खुले तौर पर भारत विरोधी क्यों न हों?
चीन के भारत-विरोध का सबसे बड़ा कारण आर्थिक भी है क्योंकि चीन एशिया में एक आर्थिक महाशक्ति बनकर उभरा है। लेकिन यह महाशक्ति भी भारत पर तब ही हमला करेगी जबकि युद्ध आखिरी और केवल आखिरी विकल्प हो। इसकी बजाय अगर धमकियां और चेतावनियों से काम चलता हो तो चीनी नेता और जनता इस काम में सबसे ज्यादा माहिर हैं। विश्वास न हो कि चीन की प्रतिदिन की चेतावनियों को देख लें और चीन तब ही ऐसा कोई जोखिम उठाएगा जबकि लड़ाई में चीन की बजाय भारत का अधिक नुकसान हो लेकिन स्थिति यह है कि ऐसी लड़ाई में ड्रेगन को सबसे ज्यादा नुकसान सहन करना पड़ेगा।