सरकार! अन्नदाता की भी सुन लो, ऐसे समर्थन मूल्य का औचित्य ही क्या है...

वृजेन्द्रसिंह झाला
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हों या मुख्‍यमंत्री शिवराजसिंह चौहान या फिर कोई और नेता हो सभी किसानों के हित में दावे तो बड़े-बड़े करते हैं, लेकिन हकीकत इसके उलट ही होती है। देशभर में किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा भी किसी से छुपा नहीं है। मध्यप्रदेश में हालत इतनी खराब है कि किसान सोयाबीन की उपज समर्थन मूल्य से काफी कम दाम पर बेचने को मजबूर हैं। ऐसे में समर्थन मूल्य घोषित करने के औचित्य पर सवाल उठना स्वाभाविक ही है।
 
दरअसल, सोयाबीन की खरीद सरकार नहीं करेगी। ऐसे में खुले बाजार में समर्थन मूल्य से कम में सोयाबीन बेचना किसान की मजबूरी है। हालांकि केन्द्र सरकार ने निश्चित मात्रा में सोयाबीन खरीद के निर्देश राज्य सरकार को दिए हैं और इसके लिए 900 करोड़ रुपए का आवंटन भी किया गया है। लेकिन, राज्य सरकार की मुश्किल यह है कि समर्थन मूल्य पर सोयाबीन खरीद के लिए यह राशि 'ऊंट के मुंह में जीरे' के समान है।
 
 
इंदौर जिले के गांव नौलाना के किसान ईश्वरसिंह दरबार का कहना है कि सोयाबीन को सरकारी समर्थन मूल्य पर बेचने की आस में बैठे किसानों पर सरकार ने कुठाराघात किया है। सरकार अब सोयाबीन समर्थन मूल्य पर नहीं खरीद रही है। ऐसी हालत में उसे औने-पौने में अपना माल बेचने को मजबूर होना पड़ रहा है। एक ओर उत्पादन लागत बढ़ रही है, वहीं उसकी उपज का दाम भी कम मिल रहा है।
 
केन्द्र सरकार ने सोयाबीन का समर्थन मूल्य 3399 रुपए प्रति क्विंटल घोषित किया है, जबकि मंडी में सोयाबीन 2900 से 3000 में बिक रही है। अर्थात समर्थन मूल्य से 400-500 रुपए कम पर। सवाल यह भी उठता है कि जब उसकी उपज का निर्धारण बाजार और व्यापारियों द्वारा ही तय किया जाता है तो फिर सरकार किसानों को भुलावे में क्यों रखती है? इस संबंध में गढ़ीबिलौदा के पुष्पेन्द्र सिंह का कहना है कि जब सरकार किसानों की उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की व्यवस्था नहीं कर सकती तो इसे घोषित ही क्यों करती है? यह छलावा बंद होना चाहिए।
 
 
सिंडीकेट ने चने को ठिकाने लगाया : एक जानकारी के मुताबिक चने की कीमत बाजार में समर्थन मूल्य से ऊपर ही रहती है, लेकिन पिछले साल चने का उत्पादन बढ़ने से व्यापारियों की सिंडीकेट ने उसके दाम योजनाबद्ध तरीके से गिरा दिए। जिस चने का समर्थन मूल्य 4400 रुपए था, वह किसानों को 3500-3600 रुपए क्विंटल में बेचना पड़ा।
 
इस संबंध में सतीश सोलंकी का कहना है कि सरकार ने किसानों को व्यापारियों और उद्योगपतियों को लूटने के लिए छोड़ दिया है। जिन किसानों के मत से नेता सत्ता में बैठे हैं, सरकार बनने के बाद उन्हीं किसानों को भूल गए। चूंकि गेहूं खाद्य सुरक्षा मिशन में सरकार के काम आ जाता है, इसलिए उस पर किसान को समर्थन ‍मूल्य मिल जाता है और सरकार उसकी खरीदी भी कर लेती है।
 
 
फर्टिलाइजर के दाम बढ़े : पिछले कुछ समय में रासायनिक खाद के दाम भी बढ़ा दिए गए हैं। जो खाद का कट्‍टा 50 किलो का होता था, उसे घटाकर अब 45 किलो का कर दिया गया, जबकि तुलनात्मक रूप से दाम भी बढ़ा दिए गए। 50 किलो का कट्‍टा पहले 1250 रुपए का आता था, लेकिन अब 45 किलो वजन का खाद 1450 रुपए में खरीदना पड़ रहा है।
 
नौलाना के कृषक धन्नालाल लौदा ने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा कि सरकार ने रासायनिक खादों की कीमत में बहुत अधिक बढ़ोतरी कर दी है। क्या ऐसे ही किसानों के 'अच्छे दिन' आएंगे? पालाखेड़ी के सुरेन्द्र जोशी कहते हैं कि एक तरफ डीजल, कीटनाशक, रासायनिक खाद, मजदूरी सब चीज महंगी हो गई हैं ऊपर से किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य नहीं मिलता। जब सरकार ही अपने निर्णय से बदल जाए तो किसान किससे उम्मीद करें।
कृषि क्षेत्र पर कोई ध्यान नहीं : केन्द्र में किसी भी पार्टी की सरकार हो, लेकिन खेती और किसानों का ध्यान बिलकुल भी नहीं रखा जाता। एक जानकारी के अनुसार पिछले 45 सालों में समर्थन मूल्य में मात्र 19 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है, जबकि सरकारी नौकरियों में देखें तो वहां वेतन इसी अवधि में 280 से 320 गुना बढ़ा है।
 
 
बछौड़ा के सोहन मौर्य ने कहा कि खेती को लाभ का धंधा और दोगुनी आय का सपना दिखाने वाली सरकार सरेराह किसानों को बाजार के भरोसे छोड़ चुकी है। किसानों की ये नियति है कि वह सदियों से शोषित रहा है और रहेगा। जब हर चीज की कीमत बढ़ रही है तो किसान की उपज की क्यों नहीं? इससे साफ जाहिर है कि किसान को अन्नदाता तो कहा जाता है, लेकिन उसकी हमेशा से ही उपेक्षा होती रही है।

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