'बंदिनी' को याद कर धर्मेन्द्र ने कहा, मैं वो लम्हा हमेशा जीना चाहता हूं

Webdunia
शनिवार, 8 दिसंबर 2018 (23:38 IST)
नई दिल्ली। हिन्दी सिने जगत के मशहूर अभिनेताओं में शुमार धर्मेन्द्र ने फिल्मों में अपने शुरुआती दौर के जमाने में काफी संघर्ष किया है। अभिनेता का कहना कि उनके करियर का निर्णायक पल वह था, जब दिग्गज फिल्मकार बिमल राय ने उन्हें फिल्म 'बंदिनी' में देवेन्द्र की भूमिका निभाने के काबिल समझा।
 
 
अभिनेता शनिवार को अपना 83वां जन्मदिन मना रहे हैं। उन्होंने एक वाकया साझा करते हुए कहा कि जब राय और मैं एकसाथ खाना खा रहे थे तभी उन्होंने मुझे यह खबर सुनाई कि मैं उनकी फिल्म 'बंदिनी' में काम करने वाला हूं। यह सुनकर मैं हतप्रभ रह गया। हम साथ बैठकर मछली खा रहे थे और खबर सुनकर मेरे गले से एक निवाला भी नहीं उतर सका।
 
लेखक राजीव विजयकर ने अपनी किताब 'धर्मेन्द्र : नॉट जस्ट ए हीमैन' में इस किस्से का जिक्र किया है। अभिनेता की जीवनी पर आधारित यह किताब जल्द लोगों के बीच आने वाली है।
 
1950 के दशक में अब का मुंबई जब बॉम्बे हुआ करता था, उसी दौरान धर्मेन्द्र (धरम सिंह देओल) अपनी किस्मत आजमाने मायानगरी पहुंचे। असफल रहने पर वे घर भी लौट गए। 5 साल गुजर जाने के बाद भी उनके दिल से फिल्मों में काम करने का सपना नहीं गया और फिर वे नवोदित कलाकारों के लिए आयोजित फिल्मफेयर-यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स की प्रतियोगिता के लिए वापस आए, जहां उनकी किस्मत का सितारा चमका।
 
किताब में अभिनेता के हवाले से लिखा गया है कि मुझे याद है कि जब फिल्मफेयर प्रतियोगिता के अंतिम टेस्ट के दौरान मैं बड़ी बेसब्री से नतीजों का इंतजार कर रहा था, महान बिमल राय, उनके सहायक देबू सेन (जिन्होंने बाद में राय की 1968 में निर्मित दो दूनी चार का निर्देशन किया) निर्णायक मंडल में शामिल थे। देबू मुझसे प्रभावित थे। मैं जब वहां इंतजार कर रहा था तो उन्होंने मुझे बड़े गौर से देखा और कहा, है बात!।
 
कुछ ही देर बाद सेन ने मुझे अंदर बुलाया और कहा कि बिमल दा मुझसे मिलना चाहते हैं।
 
अभिनेता ने कहा कि मैं अंदर गया। मुझे देख बिमल दा ने बंगाली अंदाज में मेरा नाम पुकारते हुए कहा, आओ, आओ धर्मेंदु। देखो तुम्हारी बउदी (भाभी) ने माछ (मछली) भेजा है।
 
धर्मेन्द्र ने उस क्षण को याद करते हुए कहा कि मेरे गले से निवाला नहीं निगला जा रहा था, क्योंकि मैं नतीजों को लेकर बहुत चिंतित था। कुछ ही मिनट बाद रॉय ने यूं ही कहा कि और धर्मेंदु, तुम 'बंदिनी' कर रहा है!
 
किताब में उन्होंने कहा कि अब एक बार फिर मैं खा नहीं पा रहा था, क्योंकि मैं बहुत खुश था।
 
उन्होंने कहा कि हमारे जीवन में हमेशा ऐसा पल आता है, जो महीनों और कई साल के संघर्ष के बाद आता है जिसे आप हासिल करना चाहते हैं और उसे अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते! बरसों का मेरा पूरा संघर्ष उस एक लम्हें में समा गया! मैं हमेशा उस लम्हें में जीना चाहता हूं।
 
'बंदिनी' के शुरू होने में वक्त लगा और यह उनकी रिलीज हुई 6ठी फिल्म बनी लेकिन वह छोटी सी भूमिका हमेशा से अभिनेता के दिल के करीब रही है। धर्मेन्द्र की निभाई यह भूमिका फिल्म के पहले हिस्से में ही शुरू और खत्म भी हो जाती है।
 
धर्मेन्द्र ने कहा कि बिमल रॉय की फिल्म में भूमिका मिलना कोई मामूली बात नहीं थी और मेरे दूसरे निर्देशक गुरुदत्त होते, लेकिन बदकिस्मती से वह फिल्म कभी नहीं बन पाई। लेकिन मैंने उम्दा निर्देशकों के साथ काम शुरू किया।
 
रूपा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस किताब में यह भी खुलासा हुआ कि नूतन और अशोक कुमार अभिनीत 1963 की इस फिल्म में 2 अलग-अलग क्लाईमेक्स (अंतिम दृश्य) फिल्माए गए थे।
किताब के अनुसार कुछ वर्ष पहले धर्मेन्द्र ने साक्षात्कार के दौरान लेखक को बताया कि कहानी की खूबसूरती देखिए। मैं जो फिल्म में एक डॉक्टर बना हूं। मैं भी बंदिनी (कैदी) नूतन से प्यार कर बैठता हूं, उसके अतीत और उस तथ्य के बारे में जानते हुए भी कि वह अपने प्रेमी की पत्नी की हत्या के जुर्म में जेल में है। उसके दिल में भी मेरे लिए भावनाएं होती हैं। लेकिन वह मेरा जीवन बर्बाद नहीं करना चाहती। (भाषा)

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