महंगाई और मुफ्त से पाकिस्तान और श्रीलंका में सियासी संकट, भारत में मुफ्त बांटने की सियासत बन न जाए मुसीबत?
मुफ्त की सियासत के लिए राजनीति दलों ने कैसे संविधान समीक्षा आयोग की सिफारिशों को भी दरकिनार कर दिया, पढ़े वेबदुनिया की कवर स्टोरी
भारत के दो पड़ोसी देश पाकिस्तान और श्रीलंका इन दिनों संकट के दौर से गुजर रहे है। पाकिस्तान में महंगाई और आर्थिक नीतियों के चलते इमरान सरकार की विदाई हो गई तो सरकार की आर्थिक नीतियों और जनता को लुभाने के लिए मुफ्त की स्कीम के चलते श्रीलंका आज दिवालिया हो गया है। भारत के दोनों पड़ोसी देशों में अगर आज सरकार संकट में है तो इसके पीछे बड़ा कारण महंगाई है। अगर कहा जाए कि महंगाई डायन सरकार खाए जात है तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। भारत के इन दोनों पड़ोसी देशों में महंगाई और मुफ्त बांटने की सियासत के चलते आए संकट के बाद अब भारत में भी महंगाई और मुफ्त इस पर गहन चिंतन शुरु हो गया है। वेबदुनिया की खास सीरिज में में भारत में मुफ्त की सियासत और महंगाई की पूरी पड़ताल करेंगे।आज सीरीज की पहली कड़ी बात करेंगे मुफ्त बांटने की सियासत की।
मुफ्त का दांव चुनाव जीतने का ट्रंपकार्ड- भारतीय राजनीति में मुफ्त का कार्ड अब चुनाव जीतने की गारंटी सा बन गया है। दक्षिण के राज्यों की सियासत में मुफ्त बांटने की प्रवृत्ति सबसे पहले पनपी। साड़ी, प्रेशर कुकर से लेकर टीवी, वॉशिंग मशीन तक मुफ्त बांटी जाने लगी। तमिलनाडु में मुख्यमंत्री जयललिता के शासनकाल में अम्मा कैंटीन खूब फली-फूली लेकिन मुफ्त बांटने की सियासत परिणाम यह हुआ कि राज्यों की अर्थव्यवस्था कर्ज के बोझ तले दबने लगी। देश में दक्षिण भारत की सियासत से अपनी एंट्री करने वाला मुफ्त बांटने का कार्ड अब उत्तर भारत के साथ-साथ पूरे देश में अपने पैर जमा चुका है। अगर कहा जाए कि आज भारत में मुफ्त बांटकर वोट पाना एक शॉर्टकट बन गया है, तो यह गलत नहीं होगा। राजनीतिक दल अपने वोट बैंक को साधने के लिए मुफ्त को चुनावी टूल के रूप में इस्तेमाल कर रहे है। वोटरों को रिझाने के लिए मुफ्त अनाज, मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त शिक्षा, मुफ्त लैपटॉप,मुफ्त स्कूटी, मुफ्त स्मार्टफोन के साथ-साथ बेरोज़गारी भत्ता भी केंद्र और राज्य की सरकारें खुलकर दे रही है।
हाल में ही पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भी राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्र में मुफ्त बांटना सबसे अहम मुद्दा था। पार्टी सत्ता में आने पर जनता के लिए क्या-क्या मुफ्त करेगी इसको लेकर सियासी दलों में एक होड़ सी लगी रही। चुनाव के दौरान सभी राजनीतिक पार्टियों ने जमकर फ्री बांटने का ऐलान किया। कोई सियासी दल मुफ्त लैपटॉप देने का वादा कर रहा था तो कोई स्कूटी और कोई स्मार्टफोन तो कोई पैसे।
आज चुनाव आने पर लोग अपने नेताओं और राजनीतिक दलों से ऐसी उम्मीदें लगाते है जो मुफ्त के वादों से पूरी होती है। इसके अलावा जब आस-पास के अन्य राज्यों के लोगों को मुफ्त सुविधाएँ मिलती हैं तो चुनावी राज्यों में भी लोगों की अपेक्षाएँ बढ़ जाती हैं।
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रामदत्त त्रिपाठी मुफ्त बांटने की सियासत पर कहते हैं कि जब राजनीतिक दलों के पास लोगों को रोजगार और उनको खुशहाली देने का लॉग टर्म विजन नहीं होता है तो मुफ्त बांटने जैसे शॉर्टकर्ट अपनाती है। सवाल यह है कि आखिरकार सरकारें जिन पैसों को अपनी मुफ्त की सियासत को साधने में खर्च कर रही है वह पैसा तो टैक्सपेयर्स का है।
रामदत्त त्रिपाठी आगे कहते हैं कि आज देश की जो डेवलपमेंट प्लानिंग और इकोनॉमी है उस पर राजनीतिक हित ज्यादा हावी हो रहे है। देश में आज सरकारों के पास सतत विकास (sustainable growth) की पॉलिसी नहीं है। आज देश की आर्थिक नीतियां ऐसी चल रही है जिससे अमीरी-गरीबी की खाई बढ़ती जा रही है। वहीं उत्पादन (Production) में लोगों को भागीदारी नहीं हो रही है जिससे बेरोजगारी बढ़ती जा रही है।
आज पूंजीवादी अर्थव्यवस्था (capitalist economy) को भी यह मुफ्त का मॉडल शूट करता है जिसमें लोगों को थोड़ा-थोड़ा दे दो जिससे पॉलिटिक्स अनरेस्ट ( Political unrest) नहीं हो पाए। कुल मिलाकर यह एक मिलाजुला खेल है।
लोक कल्याण के नाम पर मुफ्त की सियासत- भारत में लोककल्याण (वेलफेयर स्टेट) के नाम पर आज जिस तरह केंद्र और राज्य की सरकार और सियासी दल मुफ्तखोरी को बढ़ावा दे रहे है वह बहुत ही खतरनाक है। आज की राजनीति में मुफ्त सुविधाएँ देने में राजनीतिक दलों के बीच एक होड़ सी लग गई है। जनता को मुफ्त बांटने वाले राज्यों की जमीनी हकीकत ये है कि वो कर्ज में दबे हुए हैं।
क्या कहते हैं सविधान विशेषज्ञ?-लोककल्याण के नाम पर सरकार जिस तरह से मुफ्तखोरी को बढ़ावा दे रही है उस पर संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप कहते हैं कि सरकारें गरीबों के हित के नाम पर मुफ्त की स्कीम लॉन्च कर रही है वास्तव में वह इससे निसंदेह अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति कर रही है।
सुभाष कश्यप कहते हैं कि संविधान के कामकाज की समीक्षा करने के लिए राष्ट्रीय आयोग National Commission to review the Working of the Constitution जिसके अध्यक्ष जस्टिस एमएन राव वेंकटचलैया थे और मैं डॉफ्टिंग कमेटी का चैयरमैन था उसने अपनी सिफारिश में कहा था कि सबको काम मिलना चाहिए और काम के पैसे मिलना चाहिए, काम कराके पैसा देना उचित है। जिममें मनरेगा जैसी योजना का प्रावधान था।
सुभाष कश्यप कहते हैं कि देश के गरीबों में मुफ्तखोरी की आदत डालना सही नहीं है। वह कहते हैं कि मुफ्तखोरी की सियासत से लोकतंत्र को खतरा हो सकता है। मुफ्तखोरी की सियासत से देश की इकोनॉमी के बैठने का खतरा हो जाएगा। ऐसे में इकोनॉमी बैठने से देश को खतरा हो गया और इसके साथ निष्क्रियता को बल मिलेगा अगर मुफ्त का राशन मिलेगा तो लोग काम करना बंद कर देंगे। हिंदुस्तान में लोगों को बहुत कम में जीवन निर्वाहन करने की आदत है ऐसे में जब मुफ्त राशन मिलेगा तो काम क्यों करेंगे।
मुफ्त की सियासत खजाने पर भारी- मुफ्त के दांव से राज्य के साथ-साथ केंद्र के खजाने पर भारी आर्थिक बोझ पड़ता है। लोगों को मुफ्त में सुविधाएँ देने का सीधा असर सरकारी खजाने पर पड़ता है और यहीं कारण है कि देश के आज अधिकांश राज्य आज कार्ड के बोझ के तले दबे हुए है और उनकी वित्तीय स्थिति सहीं नहीं है। ऐसे में जब राज्यों के पास राजस्व एकत्र करने के संसाधन सीमित है तब यह राज्यों के सामने बढ़ी चुनौती बन गया है। मुफ्त की बात करते समय राजनीति के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी ध्यान में रखना चाहिये।
गरीबों को मुफ्त में अनाज देने की योजना प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना को सितंबर तक बढ़ाने से राजकोषीय घाटा बढ़ने की आंशका बढ़ गई है। वित्तीय वर्ष 2022-23 के लिए खाद्य सब्सिडी परिव्यय बढ़कर 2.86 लाख करोड़ रुपये हो जाएगा जबकि बजट में इसके लिए 2.06 लाख करोड़ रुपये का ही अनुमान लगाया गया था।
श्रीलंका संकट के बाद सरकार को चेताया-श्रीलंका के हालात के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बैठक में दो दर्जन से ज्यादा बड़े नौकरशाहों ने सरकारों की मुफ्त की योजनाओं को लेकर चिंता जताई है। श्रीलंका में सरकार के मुफ्त के दांव ने पूरे देश के भविष्य को ही दांव पर लगा दिया है। ऐसे में भारत में सरकारों के साथ नेताओं और राजनीतिक दलों को सचेत हो जाना चाहिए जिसमें मुफ्त की सौगात देने की होड़ सी लगी हुई है।
श्रीलंका संकट के बाद देश की नीति निर्धारक अफसरों का मानना है कि जनता को दी जाने वाली फ्री की योजनाएं व्यवहारिक नहीं है, और ऐसी योजनाएं लंबे वक्त तक नहीं चल सकती है। विशेषकर कर्ज में डूबे राज्यों का ऐसी योजनाएं चलाना बेहद घातक है।