क्या शिवराज को टिकट कांग्रेस की ही ज़्यादा मदद नहीं करेगा?

श्रवण गर्ग
Madhya Pradesh Politics : इस तरह की चर्चाओं के बीच कि बग़ावत जैसी स्थितियों के कारण ही भाजपा की चौथी सूची में शिवराज सिंह और उनके ‘दागी’ मंत्रियों को भी शामिल करना पड़ा अब फ़ोकस इस सवाल पर केंद्रित है कि मध्यप्रदेश में जीत किस पार्टी की होने जा रही है? तीन सूचियों में 79 उम्मीदवारों की घोषणा के बाद शिवराज को भी टिकट देने का फ़ैसला निश्चित ही पहली लिस्ट के भारी-भरकम नामों (सात सांसदों और एक पार्टी महासचिव) की राजनीतिक हैसियत को भी प्रभावित करने वाला है। दूसरी ओर ज्योतिरादित्य की बग़ावत के बाद से नेतृत्व के मुद्दे पर कांग्रेस में किसी तरह का तनाव नहीं बचा है। आलाकमान (राहुल गांधी) की मंशा की जाने बग़ैर ही कमलनाथ ने काफ़ी पहले से ख़ुद को ‘भावी मुख्यमंत्री’ घोषित कर रखा है।
 
कांग्रेस के शीर्ष नेताओं के साथ 29 मई को दिल्ली में हुई बैठक के बाद आत्मविश्वास से सराबोर राहुल ने दावा किया था कि पार्टी एमपी में भी कर्नाटक दोहराएगी और उसे डेढ़ सौ सीटें प्राप्त होंगी! अपनी ऐतिहासिक ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान एक प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में तो राहुल ने यहां तक कह दिया था कि एमपी में कांग्रेस की सूनामी है। तब तक कांग्रेस की पहली सूची भी बाहर नहीं आई थी और किसी को अंदाज़ा नहीं था कि टिकट वितरण में सिर्फ़ कमलनाथ की ही चलने वाली है, दिल्ली की भी नहीं। राहुल भी अब सिर्फ़ जीतने की ही बात करते हैं डेढ़ सौ की नहीं।
 
सट्टा बाज़ार, यूट्यूब चैनलों की बहसों और व्यावसायिक एजेंसियों के ‘प्रायोजित’ सर्वेक्षणों के दावों पर यक़ीन नहीं करना हो तो ‘आज की स्थिति में’ चुनावी नतीजों के बाद दो संभावनाओं के लिए तैयार रहना चाहिए। पहली यह कि कांग्रेस मतगणना में हार सकती है। दूसरी यह कि अगर सीटें जीत दर्ज कराने जितनी ही मिलीं तो वह जीतने के बाद भी हार सकती है!
 
पहली संभावना का दोषी एकमात्र कारण यही बन सकता है कि कांग्रेस ने कई सीटों पर कमज़ोर उम्मीदवार खड़े कर दिए। ऐसा या तो भारी बहुमत से जीत के अंधे मुग़ालते के आधार पर कर दिया गया या फिर कोई ‘अज्ञात’ कारण रहा हो! कमज़ोर उम्मीदवारों में शिवराज के ख़िलाफ़ खड़े किए गए उम्मीदवार को भी गिनाया जा सकता है। टिकट वितरण से मचे घमासान के बाद कुछ सीटों पर किया गया फेरबदल तो व्यापक असंतोष की सिर्फ़ बानगी है।
 
यही कारण है कि भाजपा के अलावा अपनी ही पार्टी के बाग़ियों से भी अब कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशियों को मुक़ाबला करना है। विपक्षी गठबंधन INDIA के सहयोगी दलों (सपा, आप और जेडी-यू) के भी लगभग सौ उम्मीदवार मैदान में हैं। ये सब कांग्रेस के ही क़िले में सेंध लगाएंगे। भाजपा की मदद के लिए बसपा ने भी कई उम्मीदवार खड़े कर दिए हैं। 
 
जिस तरह की परिस्थिति है, उसमें कोई ईश्वरीय चमत्कार या भाजपा-विरोधी सूनामी ही एमपी में कांग्रेस को कर्नाटक बना सकती है। ऐसा नहीं हुआ तो दिग्विजय सिंह के इस दावे की पोल खुल जाएगी कि 4000 आवेदकों में से 230 को चुनने के लिए ज़िला, प्रदेश और एआईसीसी के सचिवों के स्तर पर स्क्रीनिंग कर सिर्फ़ जीतने वाले उम्मीदवारों के नाम ही तय किए गए हैं।
 
चर्चाएं आम हैं कि कर्नाटक में भारी बहुमत से जीत के बावजूद चुनाव परिणामों के दिन से ‘आजतक’ भाजपा वहां सरकार गिराने की कोशिशों में जुटी हुई है। मुख्यमंत्री सिद्दारमैया और उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार के बीच चल रहे मतभेद अपनी जगह (एमपी में कमलनाथ-दिग्विजय पढ़ सकते हैं) कुछ दिन पहले ही एक असंतुष्ट मंत्री को किसी तरह समझा-बुझाकर बड़ी संख्या में समर्थक विधायकों के साथ मैसूर यात्रा पर रवाना होने के ठीक पहले रोक लिया गया।भाजपा की शह पर जेडी(एस) नेता कुमारस्वामी सरकार गिराने के काम में पहले दिन से जर-जी-जान से लगे हुए हैं।
 
इस बात की जानकारी सार्वजनिक है कि पिछली बार (2018 में) चुनाव नतीजे प्राप्त होने के तत्काल बाद से भाजपा के कई नेता दिल्ली में सिंधिया के संपर्क में थे। कमलनाथ सरकार के ख़िलाफ़ चला ‘ऑपरेशन लोटस’ केवल एक रात में संपन्न नहीं हो गया था। एमपी में कांग्रेस की जीत अगर हिमाचल और कर्नाटक की तरह नहीं हुई और सीटों का अंतर 2018 की तरह (पांच सीटों) ही रहा तो सरकार फिर से भाजपा की बन जाएगी। मानकर चला जा सकता है कि भाजपा ने दूसरी संभावना पर कांग्रेस के उम्मीदवारों की घोषणा के पहले से काम शुरू कर दिया होगा। उसके लिए यह पता करना मुश्किल नहीं रहा होगा कि इस बार किसके लिए सिंधिया की मदद ली जा सकती है!
 
एक बड़े वर्ग का मानना है कि उम्मीदवारों के नामों की घोषणा के पहले तक लहर निश्चित ही कांग्रेस के पक्ष में मज़बूती के साथ थी और अब स्थिति चुनौतीपूर्ण बन गई है। कांग्रेस अगर चाहे तो मतदान के पहले अपनी प्रारंभिक मज़बूती को फिर से हासिल कर सकती है। उसके हथियार भी भाजपा ने ही कांग्रेस को सौंप दिए हैं। इनमें यह भी शामिल है कि शिवराज सरकार के ख़िलाफ़ अगर एंटी-इंकम्बेंसी (विरोध की लहर) 2018 के चुनावों से ही चली आ रही थी तो भाजपा आलाकमान के लिए कोई बहुत बड़ी मज़बूरी रही होगी कि मुख्यमंत्री सहित पूरी टीम को फिर से टिकिट थमा दिए गए। शिवराज की चुनावी मैदान में उपस्थिति कांग्रेस की ही मदद करने वाली है, भाजपा की नहीं!
 
दूसरे यह कि अमित शाह पिछले चुनाव की तरह इस बार दावा नहीं कर रहे हैं कि भाजपा दो सौ सीटें हासिल करेगी। उल्टे हो यह रहा है कि अफ़सरों को धमकाया जा रहा है कि ‘कमल’ के साथ सहयोग नहीं करने के नतीजे भुगतने के लिए तैयार रहें। ऐसी धमकियां तो कर्नाटक में जनता को भी दी गईं थीं। कांग्रेस के लिए सत्ता में आने का यह आख़िरी मौक़ा है। कमलनाथ अगर चाहें तो पार्टी की जीत का आंकड़ा अभी भी कर्नाटक के क़रीब पहुंचा सकते हैं। कांग्रेस अगर हार गई तो पराजय कमलनाथ की नहीं, बल्कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की होगी। कमलनाथ तो हार कर छिंदवाड़ा बैठ जाएंगे, राहुल गांधी कहां जाएंगे?
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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