सालभर पहले भोपाल के एक कार्यक्रम में दीपक जोशी से मुलाकात हुई थी। पारिवारिक संबंधों के चलते घर-परिवार की सामान्य चर्चा के बाद बात राजनीति की शुरु हुई। सहजता से बोले, अरविंद भाई, हम भी राजनीति के खेल में खिलाड़ी ही हैं। आप हमें 20-20 नहीं खिलाना चाहते तो वनडे मैच में मौका दीजिए। यदि वनडे के लिए फिट नहीं हैं तो टेस्ट क्रिकेट खिलाइए और यदि ऐसा लगता है कि टेस्ट क्रिकेट भी हमारे बूते की बात नहीं है तो रणजी ट्रॉफी में मौका दीजिए। अब यदि आप हमें खेलने का मौका ही नहीं देंगे तो फिर हमें खेलने के लिए मैदान तो ढूंढना होगा। तब बात आई-गई हो गई।
पांच दिन पहले जब यह खबर मिली कि दीपक भाई भाजपा छोड़ रहे हैं तो सालभर पुरानी बात ताजा हो गई। तीन दिन पहले जब उन्हें फोन किया तो बोले, अरविंद भाई, याद है मैंने सालभर पहले आपसे क्या कहा था। मैंने जब उनकी बात को दोहराया तो बोले, अब खेलने के लिए नया मैदान ढूंढ लिया है। जब मैंने कहा कि क्या भाजपा छोड़ने का फैसला अंतिम है, तो बोले, बिलकुल। अब यहां रुकने का सवाल ही नहीं उठता। जब मैंने कहा, कांग्रेस में जा रहे हो, तो बोले 5 तारीख को दोपहर में इस बारे में बात करेंगे।
दीपक जोशी को मैं उस जमाने से जानता हूं जब 80 के दशक में उन्होंने भोपाल के सबसे बड़े सरकारी कॉलेज हमीदिया कॉलेज के अध्यक्ष का चुनाव एबीवीपी की पैनल से लड़ा था। शिवराज सिंह चौहान तब एबीवीपी के कार्यकर्ता थे और दीपक जोशी के प्रचार के लिए रोज कॉलेज आया करते थे। दीपक भाई अपने पिता कैलाश जोशी की एक विलीज जीप लेकर कॉलेज आते थे और शिवराज जी इसी जीप पर खड़े होकर भाषण देते थे।
गजब का तालमेल था दोनों का। इसी चुनाव में आलोक संजर उपाध्यक्ष पद के उम्मीदवार थे। पूरी पैनल चुनाव जीत गई। फिर दीपक जोशी युवा मोर्चे की राजनीति में आ गए। जनता विद्यार्थी मोर्चे के प्रभारी बने। 2003 में जब उमा भारती ने उन्हें पहली बार विधानसभा का टिकट दिया, तब से अब तक उनके कई रूप हमने देखे। 2018 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद थोड़े निराश थे, पर कहते थे, राजनीति में यह सब चलता रहता है, कभी हार, कभी जीत।
पिछले पांच-छह दिन में दीपक जोशी के जो तेवर देखने को मिल रहे हैं, उससे साफ है कि भाजपा छोड़कर कांग्रेस में जाने का फैसला उन्होंने मजबूरी में ही लिया। गले-गले तक भर जाने के बाद यह स्थिति बनी। हालात कितने बिगड़ चुके हैं, इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा चुका है कि मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि दीपक मेरे छोटे भाई हैं और दीपक कह रहे हैं कि मैं उन्हें अपना बड़ा भाई नहीं मानता।
इससे बढ़कर वे यहां तक बोल गए कि यदि कांग्रेस पार्टी ने मौका दिया तो मैं शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ बुधनी से चुनाव लड़ने के लिए भी तैयार हूं और भी कई तीखे सवाल उन्होंने मुख्यमंत्री पर दागे और संगठन के जिम्मेदार लोगों पर भी सवाल खड़े किए। सुनकर आश्चर्य लगता है, पर यह तो कटु सत्य है कि 30 महीने में भी कैलाश जोशी का स्मारक तो नहीं बन पाया।
सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसी नौबत आई क्यों? क्या पार्टी में संवाद का सिलसिला खत्म हो चुका है? क्या जिम्मेदार पद पर बैठे लोग बेपरवाह हो गए हैं? आखिर क्यों मुख्यमंत्री उन्हें अनदेखा कर रहे थे? क्यों वीडी शर्मा या हितानंद ने उनकी बात पर गौर नहीं किया?
क्या पार्टी में एक भी ऐसा नेता नहीं है जो उन्हें समझा पाता? क्यों कैलाश विजयवर्गीय जैसे नेता, जिनसे जोशी की बहुत अच्छी ट्यूनिंग है को संवाद की जिम्मेदारी नहीं सौंपी गई? तीन बार विधायक रह चुके नेता की हाटपिपलिया से लेकर भोपाल तक यदि सुनवाई नहीं होगी और दिल्ली वाले भी खामोश रहेंगे तो फिर ऐसा ही नतीजा देखने को मिलेगा।
दीपक जोशी के भाजपा छोड़ने को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। इससे जो संदेश जाएगा, वह कइयों के लिए परेशानी का कारण बनेगा। कार्यकर्ता यह सवाल तो खड़ा करेंगे ही कि जिन कैलाश जोशी ने मध्य प्रदेश में जनसंघ, जनता पार्टी और भाजपा की जड़ें मजबूत करने के लिए अपना पूरा जीवन झोंक दिया, उनके बेटे आखिर यह निर्णय लेने को क्यों मजबूर हुए?
कैलाश जोशी को आज भी मध्य प्रदेश की राजनीति में संत के रूप में जाना जाता है। वे आठ बार विधायक रहे, एक बार राज्यसभा के सदस्य रहे और दो बार भोपाल से सांसद। 2014 में यदि उन्हें घर नहीं बैठाया गया होता तो वे एक बार और भोपाल से चुनाव जीतते। इसकी कसक उन्हें जब तक जिंदा रहे, तब तक रही। ऐसे संत नेता का बेटा यदि भाजपा को छोड़ने को मजबूर हुआ है तो इसे बिलकुल भी हल्के ढंग से नहीं लेना चाहिए। दीपक का यह फैसला पार्टी के कर्ताधर्ताओं पर भी प्रश्न चिह्न तो खड़ा करता ही है।
छह महीने बाद विधानसभा चुनाव होना है। उसका मुहूर्त ही बिगड़ गया है। दीपक जोशी की बगावत कम से कम मालवा निमाड़ में तो पार्टी को नुकसान पहुंचाएगी, क्योंकि मुद्दा दीपक जोशी के कांग्रेस में जाने से ज्यादा कैलाश जोशी के बेटे का भाजपा छोड़ना बनने वाला है।
इस सिलसिले को यदि नहीं थामा गया तो ऐसे आक्रोषित स्वर रोज मुखर होने लगेंगे। जोशी के बाद सत्यनारायण सत्तन और भंवरसिंह शेखावत तो अपना रौद्र रूप दिखा ही चुके हैं। इनकी मान-मनुहार भी शुरू हो गई है, लेकिन जो संदेश आगे बढ़ रहा है, वह तो भाजपा के लिए नुकसानदायक ही है।
(यह लेखक के अपने विचार हैं। वेबदुनिया का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है।)